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१७४. ] . आत्मकथा
जैनगज़ट आदि में विरोधी लेख निकलने लगे। विरोध में ऊंचे से ऊंचे पंडितोंने भाग लिया और मैं उन सब का उत्तर देने लगा.. लोगों को और मुझे भी उत्तर कुछ जोरदार मालूम हुए इसलिये मेरा खूब उत्साह बढ़ा और सब विद्वान तो एक ही एकबारः के उत्तर में चुप होगये पर एक विद्वान अवश्य एक वर्ष से ऊपर लिखते रहे और दोनों के बीच में कई दर्जन लेख लिखे गये । उनके चुप होनेपर विजातीय विवाह के सिद्धान्त पर एक तरह से प्रामाणिकता की छाप लगगई ।।
विरोध में लिखनेवाले विद्वानों की संख्या काफी थी और उनके. पत्र मी बहुत थे और मेरे पास सिर्फ एक ही पत्र था इससे एक बड़ा लाभ यह हुआ कि विरोधी विद्वान आपस में ही एक दूसरे के विरुद्ध लिंख जाते थे जब कि मेरे पक्षमें मैं ही लेखक था इसलिये परस्पर विरोध की नौबत न आती थी।
मेरे सहपाठी मित्र पं. कुँवरलालजी अवश्य लिखने में कभी कभी मेरा साथ दिया करते थे पर वे अपने लेख पहिले मेरे पास भेज दिया करते थे । इन दिनों मेरा परिश्रम काफी बढ़ गया था पर प्रसिद्धि की धुन में उसकी कुछ भी. पर्वाह न करता था । संफलता दिन दूना उत्साह बढ़ाती थी।
चर्चा शुरू होने के कुछ . महिने बाद विरोधियों को जब · पता लगने लगा कि चर्चा में पार पाना कठिन है तब उनने दूसरी
आवाज यह लगाई कि इस तरहं चर्चा करने से क्या होता है समाज तो दो कौड़ी में भी इन बातों को न पूछेगी । इसका तार्किक उत्तर तो मैंने तुरन्त दे ही दिया पर मेरा ध्यान इस तरफ गया कि