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१८०. .. आत्मकथा । पड़ा.। फिर भी व्याख्यान का कार्यक्रम मैंने न रोका । अन्त में जव कुछ उपाय काम न आया तब विरोधी लोग सैकड़ों की तादाद में चिल्लाते हुए आये और व्याख्यान के चौक में बैठकर शोर मचाने लगे। कहने लगे-देखें आज कैसे व्याख्यान होता है, मारेंगे मर जायेंगे पर व्याख्यान न होने देंगे।
- कुंछ लोग आये वोले-अब व्याख्यान नहीं हो सकता, लोग ऊधम मचायेंगे-असभ्यता करेंगे। मैंने कहा-चिन्ता नहीं, मैं गालिया सहलँगां, धक्के सहरूँगा, मारपीट करेंगे तो वह भी सहजाऊंगा पर जाऊंगा अवश्य | मामला टेढ़ा तो अवश्य था पर मैं गया । लोगोंने शोर मचाना तथा चकना शुरू किया पर पांचसात मिनिट के बाद उन्हें चुप रहना पड़ता कि सभा का कार्य शुरू किया जाता और फिर लोग चिल्लाते । इस प्रकार चलता रहा । फिर मैंने कहा कि
आप लोग इतने डरते हैं कि मेग व्याख्यान सुन लेने से ही समझते हैं कि आपकाःसम्यग्दर्शन वह जायगा । यदि ऐसा है तो आप लोग अपने दलके अच्छे. पंडितों को बुलाकर अपना सम्यक्त्व सुरक्षित रखकर मेरे विचारों को पछाड़ते क्यों नहीं हैं ? इस प्रकार बीच: बीच में मैं या मेरी तरफ से मेरे मित्र चुनौतियाँ देते रहे और लोग चिल्लाते रहे । एकाध उत्साही भाई ने मुझे गोली मारने की धमकी दी। पीछे एक भाईने मेरे ठहरने के स्थान का दरवाजा. वाहर से वन्द कर दिया कि मैं निकलकर वाहर व्याख्यान न देने लगें। .
- जब काफी समय होगया तब कुछ सजनों ने मुझसे कहासाहिब ! आज तो व्याख्यान यहां हो नहीं सकता, यहां सव समय नष्ट किया जाय इसकी अपेक्षा यही अच्छा हैं कि आप डेरे पर