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विजातीय विवाह आंदोलन
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सचमुच इस तरह इस चर्चा से कागज़ काले ही होंगे। समाज में जबतक विचार-क्रांति न हो तबतक पंडितों से झगड़ना निष्फल ही रहेगा इसलिये एक तरफ जब मैं विरोधियों का उत्तर देता रहा तत्र दूसरी तरफ समाज के विद्वानों, श्रीमानों तथा अन्य संजनों की सम्मति छपाने लगा । इसके लिये मुझे खूब परिश्रम करना पड़ता था। विजातीय विवाह पर सम्मति माँगने के लिये जो मैं विद्वानों तथा श्रीमानों या मित्रों के पाप्त पत्र भेजता था उसमें विजातीय विवाह के पक्ष में जो संक्षेप में कहा जा सकता है वह सब लिखता इस प्रकार वह लम्बा पत्र एक छोटा-सा लेख बन जाता था । इस प्रकार के कुछ पंत्र में प्रायः प्रतिदिन लिखा करता था। कंजूस इतना था कि यह न हुआ कि इतनी महनत प्रतिदिन करता हूँ इसके बदले में विजातीय विवाह. पर 'संक्षेप में पूरा प्रकाश डालने वाला एक मजमून छपा लूँ और संबके पास भेजा करूँ । इसका एक कारण तो यह था ही कि हस्तलिखित पत्र को लोग जितने ध्यान से पढ़ते हैं उतने ध्यान से छपहुए पत्र को नहीं पढ़ते, पर दसरा कारण मेरी कंजूसी था । मैं सोचा करता था कि मैं इतनी महनत खर्च करता हूँ और पोस्टेज भी लगाता हूँ और अब छपाऊं भी मैं ही। दूसरा कोई श्रद्धापूर्वक मुझे क्यों न दे दे ? पैतृक संस्कार हों या ब्राम्हणों के संसर्ग सें. हो, ऐसी कंजसी आ गई थी। थोड़े थोड़े पैसों का भी बड़ा खयाल करता था। यों खाने-पीने में इतना कंजस नहीं था, नाटक-सिनेमा में भी साधारणतः ठीक ही खर्च कर देता था फिर भी उदारता नहीं थी।