________________
डायरी के कुछ पृष्ठ
[ १६७
संसार अच्छा या बुरा मालूम पड़ने लगता है । मैं नई नई लालसाओं को बढ़ाता हूँ और पूर्ण होने पर पछताता हूँ । जैसे वेश्या एक को पाकर दूसरे की लालसा करती है वैसी ही दशा मेरे मन की हो रही है ।
इन्दोर १ जनवरी १९२१
वास्तव में जो विद्या परोपकार के लिये थी उसीसे मैं अपना पेट भर रहा हूं, वैश्य़पुत्र होकर इससे बढ़कर क्षुद्र वात और क्या होगी ?
इन्दोर ४ जनवरी १९२२
.:... शक्ति के सामने सब कोई झुकते हैं, अपने से अधिक शक्ति के आ पहुँचने पर सब कोई दब जाता है । आज यह देखा । लेकिन निरपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ! ? जिसको धन आदि की चाह नहीं ऐसा पुरुष राजाओं की सेवा क्यों करेगा ? इसलिये यदि संसार में बड़ा बनना है तो निरपेक्षवृत्ति बनने की चेष्टा करना चाहिये
1
इन्दोर ५ जनवरी १९२३
मनुष्य में सब कुछ आ जाता है पर स्वदोपनिरीक्षण नामक गुण मिलना बहुत कठिन है । अगर यह गुण मनुष्य में आ जाय तो झगड़े की जड़ ही मिट जाय । परन्तु मनुष्य- हृदय इतना दुर्बल है कि वह इस बात को नहीं कर सकता 1.
ललितपुर २२ जनवरी १९२३
मेरे विचार बहुत विस्तर्ण और कुछ स्त्री-स्वातंत्र्य के