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आत्माथा मी उनके वान्या को लेकर उनके नान पर रोयें तो इस में क्या बुद्धिमानी है ? अगर हम में ही परिज्ञान न हो तो हम जितनी जल्दी मरे उतना ही अच्छा। . इन्दोर १४ जनवरी १९२४
जत्र में अपनी परिस्थितियर विचार करता हूँ तब मझे वडी निराशा होती है | क्या में योग्य आजीविका करते हुवे स्वतन्त्र रह सकता हूँ? मेरे जीवन का उद्देश्य है कि खूब ग्रन्थ लिख जाऊ और समाज और धर्म का रूप बदल जाऊँ । स्त्री-स्वातन्त्र्य, परदासिस्टम का विनाश, अछूतोद्धार, विवाह अदि कार्यों में व्यर्थ व्यय : का नाश, संगठन आदि समाज-सुधार के अंग हैं । धर्ना की असलियत क्या है, प्रचलित मते में सत्यता का अंश कितना है इत्यादि परीक्षा करके धर्म का वास्तविक रूप संसार के सामने रखना मेरे जीवन का य है पर जब तक आजीविका स्वतन्त्र नहीं होती तब तक इन कामों में सफलता कैसे मिल सकती है ?
इन्दोर ७ जुलाई १९२४ . बहुत दिनों से मतों से मेरी श्रद्धा उड़ रही है । जैन मत में भी वहुत ही त्रुटियाँ नज़र आती हैं । मेरी इच्छा है कि आजीविका से स्वतन्त्र हो जाऊं और खूब ज्ञानोपार्जन करूं । यदि दोनों में सफल हुआ तो सलसमाज की स्थापना करूंगा। हम सरीखे क्षुद्र जीव भला क्या सफलता प्राप्त करेंगे लेकिन उस के लिये । जितना भी क्षेत्र तैयार हो जायगां भविष्य की सन्तान को उतना ही सुभीता होगा । सत्यसमाजी को राष्ट्रीयता और संकुचित धी