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इन्दोर में
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बजे लौटता था । शुरू शुरू में तो मैं काफी प्रभावित हुआ पर धीरे धीरे ऋषि जी की चतुरता मेरे ध्यान में आने लगी । प्लाचेट की तिपाई का जब एक पैर उठता था तब तिपाई पर रक्खे हुए ऋषिजी के हाथों की नसें फूलती थीं इसलिये गौर से देखने वाले को साफ मालूम हो सकता था कि तिपाई के पैर को ऋषि के हाथ एक तरफ जोर लगाकर उठा रहे हैं- कोई मृतात्मा नहीं ।
मृतात्माएँ जो बातें कहा करती थीं अर्थात् उनके नामसे ऋषिजी जो सुनाया करते थे वे कभी कभी ऐसी असम्बद्ध और तर्कविरुद्ध होती थीं कि विचारक आदमी अवश्य ही चौकन्ना हो जाय कभी मृतात्माएं कहा करती कि यहां बहुत सूक्ष्म शरीर हैं हम क्षणभर में हजारों मील की यात्रा कर सकते हैं यहां बीमारी नहीं होती । पर कभी ऐसी भी मृतात्माएं आती जिन्हें सिरदर्द आदि की बीमारी होती थी । मैं कहता तुम्हारे शरीर में रक्तमांस तो है ही नहीं फिर ये बीमारियाँ क्यों होती हैं? उत्तर कुछ नहीं । कभी कभी मृतात्माएँ कहतीं हम राजवाड़ा चौक से यहाँ तक (ऋषिजी के घर तक ) चले आ रहे हैं इसलिये थक गये हैं । इस प्रकार की असम्बद्ध बातों से मुझे पोल नजर आने लगी ।
एक दिन मैंने कहा कि किसी मृतक आत्मा से कहो कि वह हमारे हाथ से भी प्लाश्चेट चलांव, बेनड़ी नामक एक आत्मा इसके लिये तैयार भी हुआ । पर हमने अपने साथ ऋषिजी को न
बैठा कर भाई कमलकुमार जी को बिठलाया । आध घंटे तक पूरी एकाग्रता दिखाने पर भी प्लाञ्चेट न चली । लज्जित होने पर भी ऋषिजी बोले अभी आपको कुछ दिन साधना करने की और