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इन्दोर में
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"और बहुत से भारतवासी, जो प्रत्येक गोरे चमड़े में वैज्ञानिकता का दर्शन करते हैं, मृतात्मा की कल्पना को विज्ञानसिद्ध समझते हैं। पर ये जादूगर की दूकानें हैं, भले ही कोई इनसे पैसा कमाता हो और कोई यश |
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नाटक - कम्पनियों में
नाटक देखने का बाल्यावस्था से ही शौक था । यहाँ तक कि सागर पाठशाला में भी चोरी से रासलीलाएँ देखने चला जाता बनारस में हम पतिपत्नी काफी नाटक देखते थे । एक दिन विचार आया कि इन कम्पनियों को पैसा तो बहुत दिया कुछ इन से लेना भी चाहिये | इसलिये मैंने 'भारतोद्धार' नामक एक नाटक बनाया । इस समय इन्दोर में, पाटणकर - संगीत मंडली नामक एक मराठी कम्पनी अपने खेल कर रही थी । मैंने अपने नाटक का एक अंक बनाकर उसे बताया उस के मालिक को वह बहुत पसन्द आया । बोला जल्दी पूरा कर दीजिये मैं इसे अवश्य खेलूंगा । मेरा उत्साह बढ़ा, मैंने पांच सात दिन में नाटक पूरा कर दिया और उसे बताया। उसने खूब पसन्द किया । तय हो गया कि दो चार दिन में कम्पनी अपने नटों को वह सिखायगी । कौनसा नट कौनसा पात्र बनेगा यह भी तय हो गया ।
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इधर एक प्रकाशक महोदय भी १०० ) में उसका प्रकाशन · अधिकार माँगने लगे इस प्रकार मैं समझने लगा कि बस, लक्ष्मी तो छप्पर फोड़ कर कूदी और अब कूदी । पर लक्ष्मी अपढ़ों को भले ही चर ले, बेईमानों को भी वर ले, पर बेवकूफों को