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आत्म कथा नहीं वरती उस के पाने के लिये कुछ लियाकत चाहिये । पर इस विषय में मैं काफी बुधू था इसलिये वह अवसर खोदिया ।।
एक मित्र , जिनने मेरी अपेक्षा काभी दुनिया देखी थी, बोले ऐसे नाटक के हजार रुपये से कम न लेना चाहिये और छापकर वेंचने से भी दो चार सौ रुपये सहज में मिल जायेंगे इस प्रकार उनने बहुत चढ़ाया । मैंने कम्पनी के मालिक से हजार रुपये की माँग की उसने दो सौ तक की बात चलाई
और यह भी कहा कि छपाने का अधिकार आपके ही पास रहेगा पर मुझपर तो हजार का भूत सवार था, इस लिये सौदा टूट गया । कम्पनी चली गई । दूसरी बहुत कम्पनियाँ आई पर सबने मुफ्त में ही नाटक हथियाने की कोशिश की किसीने एक भी पैसा न दिया । अब मुझे अपनी भूल समझ में आई पर अब तो अवसर-मुढ़ता का और सिर्फ पन्द्रह दिन परिश्रम करके हजार-दो-हजार रुपये पीट लेने की तृष्णा का दंड भोगना ही रह गया था । एक नाटक निकल जाता तो अन्य नाटक भी निकलते इस प्रकार जैन समाज की आर्थिक गुलामी छोड़ने की जो चिरलालसा थी वह पूरी हो जाती । पर मेरी अवसर-मूढ़ता के कारण सारे स्वप्न हवा हो गये । और उसका पश्चात्ताप वर्षों बना रहा।
. हाँ, इतना लाभ अवश्य हुआ कि बहुत-सी नाटक कम्पनियों के सम्पर्क में आया थोड़ा बहुत मजूरी सरीखा काम करके पच्चीस पचास रुपये कमाये भी, मुफ्त में खूब नाटक देख, फर्स्ट क्लास और आरचेस्ट्रा आदि, न जाने क्या क्या नाम होते हैं, उनपर बैठकर