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इन्दोर में [१४९ इसीलिये गया . भी.। में समझता था कि परिषत् सुधारके कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिये सुधारकों का संगठन है । पर मैंने देखा कि परिषत् के संचालकों को सुधार और समाज-सेवा का इतना ख्याल नहीं है जितना इस बात का कि परिषत दि. जैनियों की प्रतिनिधि सभा कैसे बन जाय ?
प्रतिनिधित्वकी वेदीपर सुधारकता का बलिदान करके ये परिषत् का क्या करेंगे? महासभा से अलग होने का मतलब ही क्या रहेगा। इसका इन्हें ध्यान नहीं था। विजातीय विवाह पर मैं काफी आन्दोलन कर चुका था उस प्रचंड आन्दोलन के फल स्वरूप उसकी धर्मानुकूलता समाज हितकरता विचारकों में निर्विवाद बन गई थी, किन्हीं किन्हीं प्रान्तों में उस नीतिसे काम भी होने लगा था फिर भी लखनऊ अधिवेशन में परिषत् विजातीय-विवाह का प्रस्ताव पास न करसकी, लम्बे समय के इन सब अनुभवों से मैं अच्छी तरह समझ गया कि सुधार या क्रान्ति करने क लिये एक स्वतन्त्र संगठन की जरूरत है, समाज के बहुमत के आधार से क्रान्ति नहीं हो सकती । समाज पहिले तुम्हारे कामी देखती है तब मानती है अब तुम समाज की मान्यता होने पर काम करो इस प्रकार तुम्हारे काम देखे बिना समाज की मान्यता में सुधार न हो
और समाज की मान्यता बिना तुम काम न करो तब तो प्रलय तक भी कुछ न होगा।
तब मुझे समझ में आया कि . महावीर बुद्ध ईसा. मुहम्मद आदि पुरुषों को धार्मिक और सामाजिक क्रान्ति के लिये अपनी स्वतन्त्र धर्मसंस्था या समाजसंस्था क्यों बनाना पड़ी? : बात यह है