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आत्म-कथा पढ़ो। मैंने कुछ रुष्ट होकर कहा- आप अपने कानों को सँभालोगे तो जरूर सुन पड़ेगा यों चिल्लाने से नहीं सुना जा सकता । पहिली वार सेठजी ने टोका तब मैंने उसे एक श्रोता की सूचना समझा पर दूसरे वार जब टोका तब समझा कि यह . श्रोता की सूचना नहीं है अधिकारी का हुक्म है। इसलिये मैंने आव देखा न ताव-फटकार दिया ।
__ . . निःसंदेह इसे श्रोताओं ने सेठजी का अपमान समझा पर सेठजी ने होशियारी से काम लिया और जब मैं शास्त्र-गद्दी से उठा तो उनने मुझे प्रेम से छाती से लगा लिया । सेठ हुकुमचन्द जी में यह गुण तो है ही कि वे निर्भयता की स्तुति करते हैं।
इसी तरह एक दूभरी घटना भी हुई। . . सेठ हुकुमचन्द जी के जन्मदिन की सभा जरीवाग
विद्यालय में की जाती थी। विद्यालय की संभाओं का में स्थायी-सा वक्ता था, पर उस दिन व्याख्यान देने से मैंने मना कर दिया। एक धनी आदमी की इसलिये स्तुति करना कि हम उमकी संस्था में नौकरी करते हैं, यह तो विद्वत्ता का अपमान है - ऐसा ही कुछ पागलपन या अहंकार मन में था । पर अन्य लोगों ने मुझे इतना विवश किया कि मुझे बोलना ही पड़ा । पर बोलना न बोलने से भी बुरा हुआ । मैंने कहा-सेठजी ने पूर्व 'पुण्य के उदय से जो लक्ष्मी पाई उसका - उनने अच्छा उपयोग किया है और यश भी पाया है, पर दान की सार्थकता धन देने में ही नहीं है किंतु धन ..का : उपयोग. अच्छा से अच्छा हो इसके