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आत्म-कथा
वाला भी नहीं रहा, और सिर्फ इसलिये कि मैं जनहित की दृष्टि से कुछ अप्रिय सत्य बोलता हूँ, तब वह घबरा जाता है उसका दिल उससे पूछने लगता है आखिर यह सब किस लिये । जिस रोगी के लिये वैद्य मरा जाता है. उसी रोगी में जब कृन्निता के भाव नहीं दिखते बल्कि कृतघ्नता और घृणा दिखाई देती है तब वैद्य की हिम्मत टूट जाती है पर पक्के चिकित्सक और कच्चे चिकित्सक की यहीं कसोटी होती है ।
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इस प्रकार के कच्चे चिकित्सक से भी इतनी हानि नहीं है जितनी दम्भी चिकित्सक से | चिकित्सक रोगी का णगलपन तो न सह सके पर फीस वसूल करना चाहे तब वह भयंकर हो जाता है । फीस के लिये वह रोगी के हिताहित को पर्वाह किये बिना रोगी की इच्छा के अनुसार नाचने लगता है। इसी प्रकार नामकीर्तिलोलुप जनसेवक जनता की इच्छा के अनुसार नाचने लगते हैं । यही कारण है कि कंचन कामिनी से विरक्त पुरुषों को भी समाज के सामने इतना डरपोक पाया जितना पेट के लिये विवेक की हत्या करने वाले पंडितों को । इससे मालूम होता है कि समाज का यह शस्त्र कितना घातक है ?
जहां लोग हमें सिर आंखों पर रखते रहे हों, सुवारक होने से अगर यह सोचना पड़े कि वहां जायेंगे तो कहां ठहरेंगे और खाने का इन्तजाम क्या करना होगा ! तब आदमी इस अपमान से मर्माहत हो जाता है । समाज इतना अपमान दुराचारियों और टंभियों का भी नहीं करती । पर इसका दुष्परिणाम भी समाज को ही भोगना पड़ता है कि उसे सच्चे सलाहकार या सेवक नहीं मिळते, मिलते हैं तो समाज लाभ नहीं उठा पाती ।