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शाहपुर में . [ १३१ खैर, जबलपुर में नौकरी न की और: छुट्टी के दिन काटने को लिये ससुराल ( शाहपुर) आया । यहां दो माह रहा । बरसात . के दिन थे, इसलिये व्यापार वहाँ का ढीला था, शाहपुर में जैनियों
की खासी वस्ती है और सब एक ही जगह रहते हैं । कुछ शास्त्रप्रेमी लोग भी हैं । इसलिये सुबह, मध्याह्न और रात्रि में दो दो तीन तीन घंटे प्रतिदिन शास्त्राचन होता था.। श्रोताओं का जमघट लगा रहता था । शाहपुर निवासी न होने पर भी शाहपुर मेरी जन्मभूमि थी , पुराने सम्बन्धी भी थे, ससुराल भी थी । इन सब बातोंसे दमोह की अपेक्षा शाहपुर ही अधिक प्रिय था। दो महीने रहा पर दोचार दिन को छोड़कर शेष सब दिनों निमन्त्रित ही रहा । मुझे निमन्त्रित करने के लिये लोगों में विवाद तक हो जाता था कि इतने दिन हो गये अभी तक हमारी वारी नहीं आ पाई। दूसरे दूसरे लोग ही निमन्त्रण करते हैं आदि । चार चार पांच पांच दिन पहिले से लोग निमन्त्रण के दिन रिजर्व कराते थे । मेरी उम्र का वह २१ वाँ वर्ष था पर बड़े बड़े बूढ़े भी गुरु की तरह विनय करते थे । शाहपुर के लोगों को आपस में खराब खराब गालियाँ देने की बड़ी बुरी आदत है पर उन दिनों आपस में गाली देना बन्द--सा हो गया था। आदत के अनुसार किसीके मुखसे निकल भी जाती तो दूसरा तुरंत टोकता-कैसा है रे ! सुन लेंगे तो क्या कहेंगे। यद्यपि प्रतिदिन सात आठ घंटे परिश्रम करना पड़ता था--बोलना पड़ता था- और आमदनी कुछ भी न थी फिर भी मेरे जीवन में वे दो महीने जितने आनन्द और निर कुलता से चीते वैसी निराकुलता न पहिले पाई थी न पाछे भी आज तक पाई है। ::