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सिवनी में कुछ माह [११७ आज धनवानों का अनादर नहीं करता, एक गृहस्थ के समान उनका आदर करता हूं और सामाजिक कार्यों में उनसे सहयोग की आशा हो तो उनका विशेष आदर भी करता हूं फिर भी अगर किसी धनवान का मुझसे अनादर होजाय या आदर में कमी रह जाय तो दिल को ऐसी चोट नहीं पहुँचती जैसी कि वर्तमान व्यवहार के अनुसार पहुँचना चाहिये।
सम्पत्ति का अधिक आदर न करने का भाव जैनशास्त्रों ने तो दिया ही था पर उस छोटे से जीवन में जो थोड़ा बहुत अनुभव हुआ था उससे धन की महत्ता का पता लगजाने पर भी धनवान की महत्ता का पता न लगा था बल्कि कुछ घृणा ही पैदा हुई थी। क्योंकि धनवान होने के मुख्य रास्ते दो ही मैंने देखे ये-कानून की मार से बचकर लुटारू बनना या ऐसे ही किसी लुटारू के बेटे या अनुचर बनना । इन दोनों में जीवन की वास्तविक महत्ता या पवित्रता नहीं है।
बड़े बड़े धनवान कैसे बनते है ? इसका एक छोटासा अनुभव सिवनी में ही मुझे हुआ । सिवनी में मराठी साड़ियों पहिनने का रियाज़ था, मेरी पनी की इच्छा भी तीन थी इसलिये पहिले महीने में चेतन के जब पचास रुपये मिले तब मैं साड़ी खरीदने के लिये एक जैन श्रीमान के यहाँ पहुँचा। उनने एक साड़ी बतलाई और कहा कि हमारी खरीद चौदह रुपये की है, रिवाज के अनुसार फी रुपया आठ आना नफा, इस प्रकार इपीस रुपये हुए, पर आप तो अपने ही है आपसे अधिक नफा गया लिया जाय ? आपसे सित वीस रुपये दीदूंगा।