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१२६] . आत्म-कथा फिर सम्हलकर कहा, "मेरा ध्येय विचार है-प्रचार नहीं, इस विषय में विद्वानों से जो मैंने पत्र-व्यवहार किया है और समझदारों से जे चर्चा की है उसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि अगर कोई अपने से ऐसे प्रश्न पूछे तो उसको अच्छे से अच्छा उत्तर क्या दिया जाय ? . दोनों महानुभाव बोले-हां, हां, इस में कोई हर्ज नहीं, हम तो सिर्फ प्रचार ही की बात कह रहे हैं। मैंने स्वीकार किया कि इसका प्रचार न करूंगा।
इस प्रकार उन दोनों के विनीत व्यवहार ने अथवा चतुराई ने मुझे झुकालिया । अगर उनन यह समझकर कुछ कठोरता दिखाई हाती कि यह तो हमारा नौकर है, तो मेरा अहंकार गर्न पड़ा होता 'अच्छा, ये धनवान होने के कारण मुझे दवाते हैं, में भीख मांगूगा, भूखे मरूंगा पर इनकी धमकी में न आऊंगा, अवश्य प्रचार करूँगा, इस प्रकार विधवा-विवाह का जो आन्दोलन मैंने उस घटनाके नव दस वर्ष बाद शुरू किया वह तभी शुरू होगया होता। विधवाविवाह के विषय में ठंडा हो जाने पर भी मैं विजातीय विवाह के प्रचार में कुछ उद्योग करता ही रहा । उन दिनों मैंने एक महाकाव्य लिखने का विचार किया था और एक जैन कथानक के आधार पर 'क्षत्रिय रत्न' काव्य लिखना शुरू कर दिया था । वह हाथरस से निकलने वाले जैन-मार्तण्ड में निकला करता था । उसी में मैंने प्रकरण लाकर जातिपाँति तोड़ने के विषय में काफी पद्य लिखे। काव्य काफ़ी सुन्दर था इसलिये सम्पादक ने प्रकाशित करने से इनकार तो न किया पर टिप्पणी लिखी कि ऐसे महान् और सुन्दर