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बनारस में अध्यापक [१०७ पटाने में सारी शक्ति लगाकर उन्हें समझाता था, पर कभी भी गाम्भीर्य नष्ट न होने देता था और न बालोचित क्रीड़ाएँ करता था, दिनभर पुस्तकावलोकन ही करता था। इन सब बातों का बहत अच्छा प्रभाव पड़ा । फिर भी गतवर्ष मेरे साथ पढ़नेवाले वे विद्यार्थी
तो विद्यालय छोड़ कर चले ही गये जो पिछले धर्माध्यापकजी के पक्ष . में थे। फिर भी दो महीने में सारा वातावरण साफ हो गया और गर्मी की छुट्टियों के बाद मैं अपनी पत्नी को लेकर बनारस पहुँच गया । और जुदे मकान में रहने लगा।
वह महँगाई का ज़माना था । पांच सेर का गेहूं और करीव तीन रुपया सेर घी मिलता था फिर भी पैंतीप्त रुपया में मैं सन्तुष्ट था । अर्थिक दृष्टि से आत्मगौरव और स्वतन्त्रता का पूग अनुभव होता था। विवाह के बाद से इन पांच वर्षों में मैं पत्नी को एक रुपया भी न देसका था इसका दर्द मेरे दिल में और पत्नी के दिल में भी उठा करता था पर दोनों ही भविष्य के किसी सौभाग्यशाली दिन की आशा में उस दर्द को सह रहे थे । मैं उस दिन की बाट चातक की तरह देख रहा था जब पूरा वेतन पत्नी के हाथ पर रक्वंगा और जिस दिन मैंने वेतन लाकर पत्नी के हाय पर रक्खा उस दिन हम दोनों एक दूसरे से सटकार खड़े होकर जिस अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करते रहे वह पीछे हजारों रुपया पा पार भी नहीं हुआ।
. . उस समय न तो मेरी पत्नी के पास अच्छी धोती थी न सामान रखने के लिये पेटी थी पहिले महीने में यही खरीदे गये,