________________
९८ ]
आत्म कथा
यह तो कादम्बरी की टक्कर का गद्य है, अजी तुमने तो अपने आप काव्य पढ़ कर बड़ा विकास कर लिया ।
इस प्रकार वनारस में हरएक शिक्षण में स्वावलम्बन से बहुत काम लेना पड़ा और इससे मुझे अपना ज्ञान बढ़ाने में बड़ी मंदद मिली पर इससे अध्यापकों की कर्तव्यशून्यता उपेक्षणीय नहीं हो जाती । यह तो सौभाग्य कहना चाहिये कि मुझे इससे स्वावलम्बन की शिक्षा मिली पर बहुत से दीपक तो अध्यापकों की इस कर्तव्यशून्यता से बुझ जाते हैं। खैर, इस परिस्थिति में भी मैं बनारम में रहकर ही अपना शिक्षण पूरा करना चाहता था पर एक साधारण सी घटना ऐसी हुई जिससे मुझे बनारस छोड़ना पड़ा ।
एक दिन मेरे मित्र उदयचन्द्रजी को रात में प्यास लगी पर दुर्भाग्य से पानी के सब घड़े खाली थे इसलिये उनने मुझे जगाया। मैंने कहा चलो गंगा में पानी पी आवें, पर अंधेरी रात में इतनी सीड़ियाँ पार कर गंगा किनार जाना मजेदार होनेपर भी उचित न जचा । मैंने कहा-उधर पंडितजी [ धर्माध्यापकजी का घड़ा रक्खा है j उससे पानी पीलो शायद उसमें होगा ! उदयचन्दजी पानी पीने गये घड़ाको हाथ लगाकर पानी लिया ही था शायद एकाध घूंट पिया भी होगा कि पंडित जी की नींद खुल गई और एक विद्यार्थी उनका पानी पी रहा है इससे उन्हें बड़ा क्रोध आया। उनने नालायक पाजी' उल्लू गधा आदि गालीसहस्रनाम पढ़ना शुरू कर दिया | उदयचन्दजी को तो बुरा लगा ही. पर उससे भी ज्यादा बुरा मुझे लंगा, इतना ही नहीं शोरगुल सुनकर अन्य सब विद्यार्थी भी जाग पड़े थे. उन को भी बुरा लगा । सबेरे : सबने निश्चित किया कि