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आन्म कथा
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उनने कभी किसी जमाने में गोम्मटसार पड़ा था इस समय तो उन्हें गोम्मटसार का इतना ही ज्ञान था जितना मुझे | और थे ऐसे आलसी कि पहिले से तैयार भी नहीं होते थे । इसलिये दो टे सिरपच्ची करके वे दो चार गाथाएँ पढ़ा पाने थे। मुझे इससे बड़ी चिन्ता हुई । इस के लिये शहर के जैन मन्दिरों में मैं वृध और एक जगह याचना करने पर भंडार में से स्व. तोडरमलजी की भाषा वचनिका मिलगई । ( उन दिनों ये ग्रंथ छपे नहीं थे ) वहीं हस्तलिखित पोथा लेकर आया और हर दिन तीन घंटे उस का स्वाध्याय करने लगा | अध्यापक से पढ़ने के पहिले में दो तीन घंटे सिरपच्ची करके काफी तैयार हो जाता था । विद्यार्थी श्रेणी में बैठकर अध्यापक को मदद करता था । एक दो बार अध्यापक से ही कह दिया कि यह बात ऐसी है आप जैसी कह रहे हैं वैसी नहीं । इस पर जब वे नाराज होते और अध्यापक को अपमानित करने के लिये मुझे अपराधी बनाते तब मैं कहताअच्छा तो आप आगे देख लीजिये | आगे पढ़ने पर मेरी बात का समर्थन होता, अध्यापक महोदय लज्जित होते सब पर मेरी धाक बैठ जाती । इस तरह धर्मशास्त्र की पढ़ाई का खटारा चल रहा था । गोम्मटसार के कुछ प्रकरण प्रयत्न करने पर भी मैं समझ नहीं पाया था और अध्यापक महोदय तो समझाते ही क्या ? इसलिये इस फिराक में था कि कोई अच्छा विद्वान मिलता तो उससे पूछता ।
धर्मशास्त्र के अध्ययन की जो दुर्दशा थी न्याय की भी वैसी थी । न्यायाध्यापक तो बनारस के प्रसिद्ध विद्वान थे पर उनपर बुढ़ापा खूब छागया था। पढ़ाते. पढ़ाते वे सो जाते थे और हम.