________________
... पाठशाला का जीवन [४१ ..अच्छा ही है। इस वृत्ति की जड़ बाल्यावस्था से ही जमी है । यही
कारण है कि एक पैसे को लेकर मैंने बीस दिन गुजर की। बीस दिन के लिये सबेरे के चने भी बन्द हो गये.फिर और खर्च तो करता ही क्या ?
इस समय विचार करता हूं तो ऐसा मालूम होता है कि उस समय काफी आर्थिक कष्ट था। परन्तु उन दिनों उतने में ही सन्तोष था बल्कि धर्मशास्त्र का यह असर पड़ता था कि अपने को कुछ दान भी देना चाहिये । इसी बात के लिये एक वार दो चार छात्रों ने एक बैठक की। उसमें विचार किया गया कि अपने को चार आना महीने हाथखर्च मिलता है, परन्तु दुनिया में ऐसे भी आदमी हैं जिन्हें इतना भी नहीं मिलता इसलिये अपना कर्तव्य है कि हम हाथखर्च में से कुछ न कुछ दान अवश्य करें । अन्त में यह तय हुआ कि एक पैसा महीना दान करना चाहिये। बस, जिस दिन हाथखर्च के चार आने मिलते उस दिन दो अधेले दो भिखारियों को दे देता। बहुत दिनों तक यह नियम चला । इससे समझा जा सकता है कि उस समय की गरीबी खटकती नहीं थी। इतना ही नहीं, किन्तु दानी बनने का शौक भी पूरा कर लेता था। . . . सागर पाठशाला की दिनचर्या कुछ कठोर थी। सुबह चार
बजे उठना पड़ता था और रात्रि के दस बजे सोना पड़ता था । . आज भी मैं सात साढ़े सात घंटे नींद लेता हूं उन दिनों आठ घंटे
की जरूरत थी । फल यह होता कि उस दो घंटेकी कमी को चार घंटे ऊंघकर पूरी करता । इधर आठ बजे से ऊंघने लगता उधर सवेरे चार बजे उठकर दिया जलाकर अच्छी तरह रजाई ओड़कर छः बजे तक ऊंघता रहता । पंडितजी या कोई अध्यापक जन आये तो आहट