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आत्म-कथा
निःसन्देह हम लोग गरीब थे और उस विवाह से पच्चीस पचाम हज़ार रुपये की सम्पत्ति के मालिक हो जाते। इतनी बड़ी सम्पत्ति कां प्रलोभन जीतना कुछ सरल नहीं था पर एक बात और थी कि जिस से पिताजी इस प्रलोभन को जीत सके ।
उक्त श्रीमान् मुझे घर जमाई बनाना चाहते थे । इसका यह परिणाम होता कि पिताजी की उस घर में इज्जत न रहती । पुत्रवधू अपने मां बाप के घर में अपनी पैतृक सम्पत्ति पर रहे तो पति की भी इज्ज़त नहीं करती फिर ससुर की तो बात ही क्या है ? पिताजी ने यह सोचकर कि इतनी जायदाद मिलकर भी अन्त में तो मुझे अपमान तिरस्कार आदि ही मिलेगा धन के पीछे लड़का हाथ से चला जायगा, वह सम्बन्ध न किया ।
खैर, उनने अपने लिये कुछ भी सोचा हो पर मेरा तो उससे कल्याणं ही हुआ । अगर वह सम्बन्धं हो जाता तो मुझे पढ़ना छोड़कर मासिक एक आना रुपया की साहुकारी सँभालने में लग जाना पड़ता । सत्येश्वर के दर्शन कर सकने वाले एक गरीब सत्यभक्त के स्थान में मुफ्त का माल पाकर गुलछर्रे उड़ाने वाला एक अविबेकी युवक दिखाई देता ।
वह सम्बन्ध तोड़ देने पर पिताजी ने दूसरा सम्बन्ध करने का निश्चय किया और वह सम्बन्ध शाहपुर ( सागर सी. पी. ) के श्री गनकूलालजी की पुत्री के साथ तय हुआ । श्रीगनकूलालजी के घर में इस विषय में काफ़ी मतभेद था । मेरी सासू का कहना था कि यह सम्बन्ध अंच्छा नहीं है घर में धन नहीं; कोई कुटुम्बी .