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. विवाह
[ ७९ .. वैवाहिक सम्बन्ध को लेकर दो कुटुम्बों का जो मेल होता . है उसमें जो आज रीतिरिवाजों के नाम पर विकृति आगई है उसमें एक बात मुझे काफ़ी खटकती रही है। वह है कन्या पक्ष का विलकुल छोटा समझा जाना । जब मैं पलकाचार में पलंग पर बैठा तब कन्या पक्ष के बड़े बड़े बूढ़े और गुरु जन मेरे और कन्या के पैर छते थे । वर और कन्या बेटी और बेटे के समान हैं वे सास-ससुर आदि गुरुजनों के पैर छुएँ यह तो समझ की बात है पर गुरुजन ही अपनी सन्तान या सन्तानोपम व्यक्तियों के पैर छुएँ यह बात समझ में नहीं आई। विवाह के बहुत दिनों बाद जब ससुरालवालों से संकोच हट गया था तब मैं अपनी सासू आदि से ये सब बातें कहा करता था, वे मेरी बातों को दाद तो देती थी पर विदा के समय मेरे और अपनी लड़की के पैर छूना न भूलतीं थीं । इस प्रकार मैं खुशी से व्याख्यान भी झाड़ लेता था और चुपचाप उसकी अवहेलना भी करा लेता था । . . . .
एक बार एक भाई ने इसका कारण बताया कि कन्यादान पात्रदान है और पात्र तो पूज्य होता है इसलिये वर उम्र में छोटा होने पर भी पूज्य है। पर इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं था कि कन्या क्यों पूज्य है । कदाचित् पात्र की पत्नी होने से वह पूज्य मानी जाय तो उससे अधिक पैर छूने लायक वन्दनीयता तो कन्या के पिता में ही आ जाती है क्योंकि वह पूज्य कन्या का पिता है । इसलिये उसे कन्या के विनय करने की अपेक्षा अपना विनय अधिक करना चाहिये। .