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आत्म-कथा
ससुराल में नहीं रह गई थी। कभी कभी उन्हें कुछ कडुए व्यंग भी सुनना पड़ते थे। :. . . मेरी पढाई के अंतिम दिनों में तो आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि पिताजी पाँच सात रुपये महीने पर किसी के घर में झाड़ने वुहारने आदि घरू कामों की भी नौकरी करने को तैयार हो गये थे। पिताजी का पडोसियों में जो स्थान था उसे देखते हुए यह एक ताह से आत्महत्या कही जा सकती थी । पिताजी ने जब मुझसे इस विषय में सलाह माँगी तो मुझे रोना
आगयां पर दूसरा उपाय क्या था ? रोते रोत मैंने भी सम्मति दे दी। फिर भी पिताजी रुक गये और यह अच्छा ही हुआ ।
कभी कभी ऐसे मौके भी आये जब मैं छुट्टी में घर आता, रात में जब हम पतिपत्नी विना खिड़की के अँधेरे कमरे में, जिसमें चूहे खूब ऊधम मचाया करते थे,. वन्द हो जात तब उस घोरान्धकार में मिट्टी का दिया जलाने के लिये भी तल न होता । रुपयों की बात तो दूर है पर पैसों की भी कभी चिन्ता करना पड़ती थी । गनीमत इतनी ही थी कि ये सब बातें भोग ली जाती थीं-मुँह पर कभी न आती थी इसलिये पडौसी भी यह सब न जानते थे। इस प्रकार वाल-विवाह ने और वैवाहिक कुप्रथा ने आर्थिक संकट काफ़ी बढ़ा दिया था।
वालविवाह का दूसरा दुष्परिणाम हुआ पदपद पर अपमान का . कष्ट । विवाह के बाद एक दो वर्ष तक कुछ नहीं हुआ, वाद में लोग इस बात पर जोर देने लगे कि पढ़ना. छोड़कर कुछ धंधा