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विवाह
[८१ एक यह रिवाज़ अच्छा था कि भाँवर के समय कन्या बिलकुल पर्दै में नहीं रहती। उस का घूघट तो रहता ही नहीं है परन्तु सिर भी काफी खुला रहता है, हाथ पीठ : पेट आदि भी खुला रहता है। आढ़ने का कपड़ा काफ़ी पतला रहता है जिससे अंग दिख सकें । यह रिवाज़ इसलिये बनाया गया है कि सब लोग अच्छी तरह कन्या को देख सकें । भावर ही विवाह की पक्की छाप मानी 'जाती है इसलिये उस समय कन्या का पूर्ण निरीक्षण हो जाना
आवश्यक है। यह रिवाज़ काफ़ी अच्छा है। जहाँ पर्दाप्रथा है वहाँ तो इस प्रथा की काफ़ी उपयोगिता है। - कहीं कहीं तो ऐसी मान्यता है कि भाँवर के समय दोनों तरफ के खास खास सम्बन्धी ही उपस्थित रहते हैं, सर्व साधारण को उपस्थित नहीं रहने दिया जाता । उसका कारण यही है कि भाँवर के समय कन्या काफ़ी खुली रहती है और इस वेष में सर्व साधारण उसे क्यों देखे ? इसीलिये बहुत से स्थानों पर भाँवर का समय बारह बजे रात के बाद रक्खा जाता है । आवश्यकता ब्राह्मण देवता से ऐसा ही मुहूर्त निकलवाती है । पर अब तो सब से अच्छी बात यही है कि पर्दा-प्रथा ही उठा दी जाय और विवाह अधिक से अधिक लोगों की साक्षी में हो सके । हाँ, इतने लोग न बुलाये जॉय जिससे शांतिभंग हो।
विवाह के पुराने रीति रिवाजों में कुछ ऐसे हैं जो उस समय की आवश्यकता को देख कर बनाये, गये थे । कुछ ऐसे हैं जो किसी । घटना विशेष के अन्ध.. अनुकरण हैं । इन सब का पता