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विवाह
[७३ एक तरह का भिखमंगापन है, कन्या के पिता से कुछ माँगना भीख माँगना है । मर्द वह है जो मुफ्त में किसीसे एक पैसा भी नहीं लेता न किसी से माँगता है । स्त्री के धन से धनवान बनना
या अपनी गुज़र करना अपने पुरुषत्व को लजाना है । .. मेरे इन विचारों में एक तरह का विवेक तो था, परन्तु इससे
भी ज्यादा था घमंड । इसी घमंड के कारण मैंने निश्चय किया था · कि विवाह में ससुरालवालों से मैं कुछ भी नहीं माँगूगा । आर्थिक गरीबी के कारण, पुराने संस्कारों के कारण, आर्थिक मामलों में अधिकारी न होने के कारण और कुछ लोभी होने के कारण, मैं यह निर्णय तो नहीं कर सका कि ससुरालंबालों से एक भी पैसा न लँगा, वे खुशी से देंगे तो भी न लूंगा, परन्तु इतना निर्णय कर सका कि उन्हें पैसे के लिये तंग न करूंगा, अपनी तरफ से कोई माँग पेश न करूंगा, जो देंगे उसी में सन्तुष्ट हो जाऊँगा। जब पलकाचार हुआ तब मैंने किसी को भी न पकड़ा । पलकाचार में चर कन्या पलंग पर एक दूसरे के सामने मुँह करके बैठाये जाते हैं। कन्यापक्षवाले एक एक करके आकर दोनों के पैर छते हैं और कुछ भेंट देते हैं, इसी समय वर उनको. पकड़ लेता है। वह उन्हें बड़ी देर तक पकड़ रखता है और वे लोग धीरे धीरे कुछ अधिक दक्षिणा देते जाते हैं और छूटते जाते हैं । वर पक्षवाले पास बैठे बैठे वर को सिखाने जाते हैं कि इससे इतना लेना, अभी मत छोड़ना आदि । इस प्रकार १५ मिनिट का काम चार चार पाँच पाँच घंटों में पूरा होता है । .. पर मैंने किसी को भी पकड़ने से साफ इनकार कर दिया।