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विवाह
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भिखारी नहीं हूँ कि पैसे के लिये अड़ जाऊंगा, देना हो देना, न देना हो न देना, मैं तो भोजन करता हूं ।
दहेज़ की कुप्रथा से क्या क्या हानियां होती हैं इस बात का गम्भीर विचार करने लायक योग्यता तव नहीं थी । उस समय तो यही विचार था कि याचना करके किसी से कुछ क्यों लूं ? और कन्या के पिता को इसलिये तंग क्यों करूं कि उसने दूसरे का कुटुम्ब बसाने के लिये एक बाला का पालन-पोषण किया हैं। इस प्रकार थोडीसी समझदारी और करने से मुझे विमुख रखता था ।
बहुतसा घमंड याचना
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दहेज के विषय में आज भी मेरे वे विचार हैं । जिसे मैंने घमंड कहा है उस ढंग का आत्मगौरव प्रत्येक युवक में होना चाहिये • और कन्या पैदा करने का दंड किसी को न देना चाहिये ।
बंगाल महाराष्ट्र और यू. पी. की अनेक जातियों में हुंडा आदि के नाम से जो ठहरावनी की कुप्रथा है वह तो अत्यंत नृशंसतापूर्ण है ही, साथ ही साधारण याचना की कुप्रथा भी अन्याय है ।
यह बीमारी शिक्षितों में भी फैलती जा रही है और शिक्षण का अधिकांश उपयोग शतानियत को सभ्यता का द्वेष पहिनाने में हो रहा हैं, इस लिये दलील की जाती है कि कन्या का क्या पैतृक सम्पत्ति पर कुछ भी हक नहीं है ? वही हक विवाह के समय लिया जाता है ।
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अगर यह हक ज्यों का त्यों मान लिया जाय तो भी इससे हुंडा या दहेज की पापता कम नहीं होतीं । पैतृक हक तो माता
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