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पाठशाला का ज्ञानदान
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वहाँ:
: एक घंटा पढ़ता और दौड़ कर समय पर शाला में आ जाता ।
इस प्रकार हिन्दी पुस्तकें पढ़ने का पूरा
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तो चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता संतति, के प्रसिद्ध ऐयारी और तिलस्मी के उपन्यास ही पढ़ें पर धीरे धीरे उपन्यासों से अन्य विषयों के पठन के तरफ रुचि होने लगी । इस अध्ययन-शीलतांने मेरी बुद्धि को फैलाने की काफी कोशिश की, अन्यथा मैं जैसी परिस्थितियों में पड़ गया था उसमें विचारक बनना कंठिन ही था ।..
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धर्मशास्त्र - भक्ति- सागर पाठशाला में धर्मशास्त्र नहीं पढ़ाया
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जाता था इसका मुझे बड़ा खेद रहता था । उसकी भूख बुझाने के लिये मैं कभी कभी मंदिर में स्वाध्याय करता । पर मैं चाहता था कि व्यवस्थित रीति से धर्मशास्त्र पढूं जिससे पंडित वनजाऊँ । अन्त में अपने ही आप कुछ अध्ययन करने के लिये मैंने तत्रार्थसूत्र अनुवाद सहित खरीदा और उसे पढ़ने लगा । कहीं कहीं वह समझ . में नहीं आता था पर तीसरा चौथा अध्याय खूब समझ में आया जिसमें स्वर्ग नरक आदि का वर्णन था । उस समय मैं कितना कूपमंडूक था यह इसीसे जाना जासकता है कि मैं सोचता था कि इससे बढ़कर ज्ञान जगत् में क्या हो सकता है ? जगत् के बड़े से बड़े विद्वान इससे अधिक क्या जानते होंगे ? इस में स्वर्ग नरक उत्सर्पिणी अवसर्पिणी आदि तीन काल तीन लोक आगये अब जानने को बचा क्या ?
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व्यसन लग गया । पहिले भूतनाथः आदि उस जमाने
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तत्वार्थ सूत्र के उस स्वाध्याय का यह असर हुआ कि यह
संसार मुझे बिलकुल फीका मालूम होने लगा । स्वर्ग, भोगभूमि और
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