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आत्म कथा
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चिरकाल से जो मेरी इच्छा थी वह पूरी हो ही गई, मैं जिनेन्द्र हो गया अब सिद्धशिला पर आसन जमाऊंगा और सदाके लिये इस संसार से छूट ज़ाऊंगा । उस समय इतना ज्ञान नहीं था कि जैनियों की वर्तमान मान्यता के अनुसार जिनेन्द्र को सोच विचार करने ..का भी हक्क नहीं है और सिद्ध जीव सिद्ध शिलापर आसन नहीं जमाते । सिद्धशिला तो सिर्फ शोभा के लिये है. वे तो उसे पारकर उसके ऊपर तनुवात वलय में समानतल पर लटकते रहते हैं । खैर, यही अच्छा था कि इतना नहीं समझता था, नहीं तो स्त्रम का मजा कुछ किराकिरा किराकिरा हो जाता। जब यह स्वप्न आही रहा था तभी सवेरा होने से फिर जगा दिया गया। समवशरण में सिंहासन के वेदले जमीन पर बिछे हुए अपने बिस्तर पर जब अपने को पड़े पाया' तत्र स्वर्ग के स्वप्न से भी ज्यादा खेद हुआ । स्वर्ग से तो आखिर कभी न कभी गिरना ही पड़ता है पर जिनेन्द्र होकर भी गिरना पड़ा यह कुछ कम दुर्भाग्य की बात नहीं थी । उस रात स्त्रम टूटने का मुझे इतना रंज हुआ कि मैं रजाई से सिर ढंककर रोने लगा । धर्मग्रंथों के अध्ययन को कोमल हृदय पर क्या प्रभाव पड़ता है · इसका एक नमुना मैं था ।
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पीछे तो पाठशाला में धर्मशास्त्र का शिक्षण दिया जाने लगा और मुझे कृतकृत्यता का अनुभव होने लगा । धर्मशास्त्र के विषय में मेरी इतनी श्रद्धा थी कि जब कहीं मुझे यह समाचार मिलता कि अमुक को भूत लगा है तो मैं यह कहता कि मैं इस बात की • . . तुरन्त जाच कर सकता हूं कि भूत सच्चा है या झूठा । मैं उससे पूछूंगा कि वह किस निकाय का देव है ? व्यन्तर निकाय का है तो
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