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आत्म कथा : पढ़े। पर उधर पंडित गणेशप्रसादजी से कुछ कहने की हिम्मतन पड़ती थी। इसलिये मैं आठ दस दिन की. सुट्टी लेकर घर गया और वहाँ से एक पत्र लिखा कि आप मुझे सर्वार्थसिद्धि पढ़ावें .तो आता हूं नहीं तो मोरेना जाता हूं। . . . . . . ..
___ मोरेना के नाम से पाठशाला के हर एक व्यक्ति का जी जलता था। उस समय मोरेना पं..गोपालदासजी वौया के कारण धर्मशास्त्र की शिक्षा का सर्वोच्च केन्द्र बन गया था। इधर सागर पाठशाला के ब्राह्मण अध्यापक, धर्मशिक्षण; से बरसा रखते थे। इसलिये वे जब देखो तब मोरेना, विद्यालय की और पं. गोपालदासजी की निन्दा किया करते थे। उनका आक्षेप था कि दूसरे विद्यालयों और खासकर मोरेना की पाठशाला का शिक्षण उथला है जब कि सागर पाठशाला का ठोस हैं। इसमें सन्देह नहीं कि शिक्षण ठोस था, इतना ठोस कि उसमें ज्ञानका पौधा कठिनाई से ही ऊंग संके। उस वातावरण का प्रभाव मुझ पर भी काफी शर्भिशास्त्र का भक्त होने पर भी मैं मोरेना विद्यालय का द्वेषी था। यह जानता. था कि मोरेना जाने से सागर पाठशाला की इज्जत को बट्टा लगेगा, इसलिये मोरेना जाने की इच्छा नहीं थी पर अगर सागरे पाठशाला: के लोग मुझे सर्वार्थसिद्धि न पडावे तो सर्वार्थसिद्धि · पढ़ने के लिये यह पाप करने को भी तैयार था । : :........... का अंगर मोरेना जाना पड़ता तो बड़ा दुःख होता क्योंकि उस समय भी मैं पूरा कूपमंडूक था। समझता था संसार में सबसे बड़ें विद्वान पं. गणेशप्रसादजी हैं, सबसे अच्छी पाठशाला सागर की यह हमारी पाठशाला है। इतना ही नहीं, यह कूपमंडूकवा ज्ञान के