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पाठशाला का ज्ञानदान
[५२ विषय में भी थी.। मैं समझता था कि संस्कृत में जो ज्ञान हैं वह कहीं
नहीं है । संस्कृत पढने से जगत में कुछ पढ़ने को नहीं रह जाता। __यह पद्य रट रक्खा था- ... ... ... ... ... . संस्कृत भाषा ही इस जगमें सब की माँ कहलाती हैं।
इसको भली भाँति पढ़ने से सर्व विद्या आ जाती है।
अंग्रेजी की निंदा करने के लिये कहता था जिनने अंग्रेजी पढ़ी उनका नाम कौन जानता है ? पर संस्कृतं पढ़नेवालों को देखों, पाणिनीय कात्यायन पतञ्जलि और हमारे पंडित जी का नाम दुनिया जानती है।
इतना तो समझता था कि दुनिया बहुत बड़ी है पर इतना नहीं जानता था कि सारी दुनिया: सागर पाठशाला के साँचे में नहीं ढली है । सागर पाठशाला में जिसका नाम है उसका ही नाम दुनिया में है और जिनका यहाँ नहीं है : उनका कहीं नहीं है यह कूपमंडकता बहुत दिनों तक रही, या तब तक रही जब तक सागर पाठशाला नहीं छोड़ दी। - खैर, पंडितजी ने सर्वार्थसिद्धि पढ़ाना मंजूर कर लिया और मैं सागर पाठशाला में ही रहा । इस प्रकार मुझे धर्मशास्त्र की भूख बुझाने का अवसर मिला। . . .
.. अव तो प्रायः सभी जगह का शिक्षणक्रम बदला गया है पर उस समय शिक्षण क्रम ऐसा था कि बहुत दिनों में मैं बहुत कम पढ़ पाया। मेरी रुचि भी कुछ ऐसी थी कि मैं अध्यापकों से ..बहुत कम लाभ उठा पाया।