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आत्म-कथा बाहर ले गया और एकान्त में उनसे पूछा-मैं तुम्हारा खाता हूं या बुआ का ?
पिताजी मेरे इस इस प्रश्न से ही बहुत कुछ समझ गये । मेरे अभिमानी स्वभाव का उन्हें पता था ही इसलिये उन्हें भय हुआ. कि कहीं कोई कांड न बढ़ जाय इसलिये उनने मुझे समझाते हुए कहा 'बेटा अपन गरीव हैं, अपन बुआ का ही खाते हैं इसलिये वे कुछ कहें तो चुपचाप सुन लेना चाहिये उन्हें तंग न करना चाहिये।
.उनकी बात सुनकर मेरे आँसू बहने लगे और पिताजी के भी । फिर मेरा धैर्य छूट गया और मैं पिताजी से लिपट कर खूब सिसक सिसक कर रोने लगा । पिताजी भी मुझे छाती से लगाकर ख़ब रोने लगे । दोनों मौन थे । आज मुझे पहिले पहल गरीबी का अनुभव हुआ था । मैं सोच रहा था-मैं कंगाल का बेटा ई ऐसा कि अपने बाप की रोटी भी नहीं पा सकता ऐसे कंगाल को रिसाने का क्या अधिकार है ? पिताजी मुझे देख रहे थे-उस असीम अंधकार में मैं ही उनके हाथ का छोटा सा दीपक था जिसे सब कुछ लगाकर वे बड़े जतन से सम्हाल रहे थे और जीवनपथ तय कर रहे थे। दोनों ही वेदनाओं का बोझ लिये हुए घर में आये । किसी को उस घटना का पता भी न लगा । मेरा रिसाना इकदम कम हो गया । ख़ास कर वुआ के सामने तो मैं रिसाता ही न था ।
. . अब मैं समझने लगा कि पिताजी क्यों इतना कष्ट सहते हैं । कठिन से कठिन काम को भी क्यों तैयार रहते हैं ? एक वार