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आत्म-कथा स्कूल में मुझे कुछ मुविधा अमुविधा तो नहीं हुई और यह अन्या
ही हुआ पर पिताजी की ममता की छाप दिल पर अवश्य __ गहरी हो गई।
धर्म-शिक्षण हिन्दी स्कूल की पढ़ाई के दिनों में धर्म-शिक्षण की पढ़ाई भी होती थी। पंचायत ने एक जैन पाठशाला खोल रक्खी थी उसी में मैं जैन-बाल गुटका, इष्ट छत्तीसी, मंगल पूजा-प्रक्षाल के पाठ आदि पढ़ता था । इसी से मैं समझता था कि मैं भी कुछ पढ़ा हूं। - हां, इधर उधर से कुछ भजन भी सीख लिये थे और पर्युषण में उनका ख़त्र. प्रदर्शन भी करता था । दि. जैनियों में रात्रि में शास्त्र-प्रवचन के बाद भजन आदि कहने का रिवाज है | दमोह में चार मंदिरों में शास्त्र वचंता था और मैं क्रम क्रमसे चारों मन्दिरों में भजन कहता या इससे लोगों को ख़ासकर स्त्रियों की नज़र में मैं बहुत ऊंचा उठेगया था। जब बुद्धी स्त्रियाँ कहती कि "देखो तो नन्न का लडका कैसा होश्यार है, विनाः माँ का होने पर भी नन्न ने अपने लड़के को पाल पोस कर होश्यार बना लिया है, गरीब और अपढ़ का लड़का है पर कैसा चतुर है?" तत्र मैं आसमान में विहार करने लगता | मेरे पिताजी की छाती भी फूली न समाती। - इसके बाद पंडित कहलाने का मैंने दूसरा तरीका निकाला। मैं पद्मपुराण का स्वाध्याय करने लगा | कथा तो दिलचस्प थी ही और मुझ में भावुकता भी काफ़ी थी इसलिये जब अञ्जना देवी