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धर्म-शिक्षण • की कष्टकथा. पढ़ता, सीताहरण और सीता परित्यागः की बात पढ़ता तब खूब रोता । सीता और अञ्जना पर मेरी इतनी श्रद्धा हो गई थी कि मैं उन्हें राम-चन्द्र आदि से बहुत ऊँचा समझता था। और मन ही मन कल्पना करता था कि अगर मैं उनके पास होता तो उनकी माता की तरह पूजा करता, सेवा करताः और जीवन देकर भी उन्हें सुखी बनाता । सीता: और अम्बना के चरित्र ने मेरे हृदय पर इतनी गहरी छाप मारी कि नारी जाति का अपमान मेरे लिये असह्य हो गया..। स्त्रियों के विषय में विशेष सन्मान के भाव मुझे
वहीं से मिले । अञ्जना के साथ पवनञ्जय ने जो नीचतापूर्ण · व्यवहार किया उसमें मुझे पुरुषत्र का मदोन्माद ही दिखाई दिया और पुरुषत्व के मद से मुझे घृणा हो गई। नारियों के पक्ष-समर्थन का कुछ उत्कट रूप जो मेरे जीवन में दिखाई दिया और कुछ अंश में अभी भी दिखाई देता है उसका बीज उसी समय पड़ा था। .... खैर, मैं पंडित कहलाने के लिये मंदिर में पद्मपुराण का स्वाध्याय करता और जब कोई स्त्री .पास.. में आकर बैठ जाती तब ज़ोर ज़ोर से शास्त्र पढ़ने लगता । वह घर के काम से चली जाती
और दूसरी आ जाती तो उसे सुनाता. इस प्रकार बाल्यावस्था में ही स्त्रियों का पंडित बन जाने का गौरव अनुभव करता।
इससे इतना फायदा अवश्य हुआ कि ज्ञान न होने पर भी दूसरों के सामने बाँचने बोलने की हिम्मत आ गई। करीब ग्यारह वर्ष की उम्र तक मैं ऐसा ही :पंडित: (१) बना. रहा । एक धार्मिक बालक में जो भावुकता चाहिये वह मुझ में आ गई थी ।