Book Title: Shrimad Devchand Padya Piyush
Author(s): Hemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्देवचन्द्र पद्य-पीयूष प्रेरक मुनिराज श्री जयानन्दमुनि जी महाराज चरित्र लेखिका व शब्दार्थ कारिका साध्वजी हेमप्रभाश्री जी महाराज एम. ए. (दर्शन) भूमिका लेखक ईश्वरलाल चुन्नीलाल लूणिया संग्राहक पुरातत्वविद् श्री अगरचन्दजी नाहटा बीकानेर संपादक सोहनराज भंसाली, जोधपुर. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ज्ञापन प्रेरक प्रेरक मुनिराज श्री जयानन्दमुनि जी महाराज चरित्र लेखिका व शब्दार्थ कारिका साध्वजी हेमप्रभाश्री जी महाराज एम. ए. संग्राहक पुरातत्वविद् श्री अगरचन्दजी नाहटा, बीकानेर . भूमिका लेखक ईश्वरलाल चुन्नीलाल लूरिया संपादक सोहनराज भंसाली, जोधपुर. प्रकाशक श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार बम्बई द्रव्य सहायक खरतर गच्छ जैन संघ, जोधपुर खरतर गच्छ जैन संघ बम्बई आवरण पृष्ठ ऋषभ पार्टस्, जोधपुर। मुद्रक इण्डिया प्रिण्टर्स, जोधपुर मूल्य २ रु. ५० पैसे प्रतियाँ १००० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARSE गणि बुद्धिमुनिजी महाराज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्हें श्रीमद् के प्रति अगाध श्रद्धा थी, जिन्हें श्रीमद् के सैकड़ों पद, स्तवन, सज्झाएँ कंठस्थ थीं, जिनकी प्रेरणा से श्रीमद् की कई रचनाओं का गुजराती में प्रकाशन हुआ, ऐसे परमपूज्य संयमशील गुरुवर्य, स्वर्गीय गरि बुद्धि मुनिजी महाराज साहब को परम पुनीत आत्मा को यह पुस्तक सादर समर्पित है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only आपके बाल जयानन्द Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका स्वानुभव जैन धर्म का गुरण है । यह दर्शन संकल्प का है फिर भी उसमें भक्ति का स्थान है। जैन धर्म विश्व धर्म बनने का सर्व गुणों से विभूषित है । जगत् के समस्त जीवों में मानव प्रधान है। इसी कारण मानव देह की प्रतिष्ठा है । केवल आत्म तत्व पर निर्भर धर्म देह की महत्ता को स्वीकार करता है । फिर भी महापुरुषों आत्मा और देह की भिन्नता को प्रभेद माना है । स्व संवेदन द्वारा स्वयं की बाह्य प्रवृतियों से परे होकर महापुरुषों ने अन्तर मानन्द को ढूँढ़ कर, जानकर और संसार के कल्याण के लिए शुद्ध स्वरूप से विश्व में प्रचारित किया था । आत्मा की पुष्टि के लिए परम पुरुषों ने अभिव्यक्त की वारणी अनन्त धर्मों ने स्याद्वाद द्वारा समझाई है । अनन्त धर्म से व्याप्त भावों से भरी हुई व्यक्ति के जीवन में वात्सल्य, करूणा आदि सहज भाव से प्रकट होती है । ग्रन्य जीवों को स्व-स्वरूप समझ सकते हैं, इसलिए इसके आचरण में अहिंसा का दर्शन सरलता से देखने को मिलता है। इस कारण से उच्च पुरुषों के सानिध्य में स्व-ज्योति को प्रकट कर प्रात्मिक उत्थान में गति करते हैं और अन्त में मोक्ष गामी बनते हैं । श्रात्म तत्व परमार्थिक दृष्टि से समान है । कर्म-जन्य न्यूनाधिक दृष्टि गोचर होती है। ज्ञान प्रादि रत्नत्रय की रमरणता का मुख्य लक्ष्य वहाँ तक रहता है जहाँ तक आत्म निष्पत्ति की प्राप्ति न हो इन्द्रिय भोगों का रोध प्रभु की मूर्ति से होता है इसलिए जिनेश्वर भगवान् की पूजा स्व की पूजा है । इसी कारण श्रागम और मूर्ति को परम प्रलंबन माना है। अविद्या को दूर करने का यह एक अमोघ उपाय है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ दो ] इसीलिए दर्शन कारों ने भगवान् को स्वामी माना है। स्वामी और सेवक के भाव को स्थान दिया है। आत्म तत्व समान होने के कारण सुन्दर प्रौर श्रेष्ट योग से आत्मा में उन्हीं गुणों का प्रकटिकरण होता है। ..... विश्व के प्रत्येक धर्म में प्रभु और गुरु उच्च स्थान में हैं। जहाँ तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो वहाँ तक इनको छोड़ना नहीं चाहिए। परम कारुणिक प्रभु की धर्म सरिता निर्मल होती है। सर्ब की निर्मलता मात्र ही उनका हेतु है। भौतिकता के उच्च शिखर पर चाहे विश्व प्राज आनन्द मानता हो परन्तु अन्तर का जो आनन्द है वह बाह्य खोज करने से नहीं मिलता। सम्पन्न पुरुष भी विश्व में शान्ति के लिए भटकता है। इसमे ज्ञान होता है कि भौतिक पदार्थों में सच्ची शान्ति उपलब्ध नहीं - होती। कारण शान्ति देना उनके स्वभाव में ही नहीं है। अंत: सच्ची आत्मिक शान्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। कर्म प्रवेश द्वारा समान इन्द्रियों को बाह्य योग से निकाल कर अन्तर में स्थिर करनी चाहिए। राग, द्वेष, मोह एवं विषय कषाय से दूर होकर मन को जीतकर केवल दृष्टा भाव से कर्मो के फल का आस्वादन लेना चाहिए। जिससे उदासीन वृति के कारण आत्मा पर कर्म के वर्गणा नहीं लगती। संवर और निर्जरा निरन्तर चालू रहती है, परिणाम स्वरूप पुराने कर्म उदय को प्राप्त होते ही बिखर जाते हैं। इसी प्रक्रिया से आत्मा को आनन्द का अनुभव होता है। निरन्तर इस प्रक्रिया से प्रात्मा का निस्तार सहज भाव से स्वयं होता है। ___सर्वज्ञ कथित वाणी यद्यपि ज्ञान भण्ड रों में पुस्तक रूप में दिखाई देती है और इन पवित्र ग्रन्थों का रक्षण करने वाले सब यश के भागी हैं। स्व ज्ञान का उपयोग सुन्दर ग्रन्थों की रचना द्वारा अपनी विशाल शक्ति का परिचय अल्प आत्माओं को ज्ञानी जन दे गये हैं। इस अमूल्य लाभ को प्राप्त करने वाले हम उन ज्ञानी पुरुषों के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तीन ] प्रतिमस्तक होते हैं । आगमों के रहस्यों को सर्व साधारण जन लाभ उठा सकें उन्हें समझ सकें इस हेतु ज्ञानी पुरुष उसे सरल साहित्य में रचना कर गए हैं। आगमिक साहित्य में धर्म भिन्न-भिन्न स्वरूप में वर्णन किया गया है जो चार विभागों में विभाजित है । ये अनुयोग के नाम से सर्व विदित है। चार प्रकार के प्रयोग में तत्व की पहिचान द्रव्यानुयोग में सविशेष और विस्तार से है । ये तत्वों का विशाल भण्डार है । तत्वालम्बन से आत्मा शुद्ध मार्ग का धारक बनता है । भक्ति व कृति अन्य जीवों का एवं स्वात्मा का कल्याण करती है। निर्मल बुद्धि से और उद्दात भावना से लिखी गई रचनाएँ आनन्द सागर के हिलोरे मारती है । स्वानन्द की मस्ती से वातावरण परम शुद्ध बनता है। उन महापुरुषों के उपकार को याद करते हुए अपना मस्तक सहज भाव से उनके समक्ष झुक जाता है । गुजराती साहित्य में अनेक प्राध्यात्मिक पुरुष हुए जिन्होंने स्व के प्रकाश में पथिक को मोक्ष मार्ग बताया है । इस आनन्द को व्यक्त करते हुए उन्हें आनन्द की अनुभूति होती है । मन को तन्मय करने के लिए काव्य कृति सविशेष उपयोगी है । - काव्य के रसास्वादन के साथ ज्ञान की गंगोतरी की तेजस्विता प्रत्यक्ष होती है । विद्वान और ज्ञानी के काव्य समाज की महान धरोहर होती है । प्रस्तुत ग्रन्थ एक महान् योगी द्रव्यानुयोग के परम धारक कविवर्य, कर्म साहित्य के पण्डित श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज की परम काव्य सरिता का सागर है। इसमें कुछ पहले प्रकट हो चुके हैं और कुछ नए प्रकट हो रहे हैं । तत्कालीन महापुरुषों ने उनकी कृतियों की भूरि भूरि प्रशंसा की है । प्रागमिक ज्ञान सागर के कुछ अंश काव्य रूप में गुन्थनकर के एक पुष्प हार भव्य जीवों को अर्पण किया है। उसकी सुवास निर्दोषता और तेजस्विता आत्मा का द्योतक है ।.. साहित्य वृत्ति में विहरमान जिन स्तवन, वर्त्तमान जिन स्तवन, प्रतीत जिनस्तवन, आध्यात्मिक गीता, ग्रागमसार, ज्ञान मंजरी टीका; कर्म साहित्य आदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चार ] श्रीमद् की कृतियाँ हैं । प्रागमसार लघु पुस्तक होते हुए भी विशाल है । इसमें अल्प में अधिक अर्थात् गागर में सागर भर दिया गया है। जगत में गीता प्रसिद्ध है । उसमें भी अध्यात्म गीता श्रेष्ट है । आत्मा के निस्तार के लिए अध्यात्म गीता का स्वाध्याय परमावश्यक है । इस गीता से प्रभावित होकर परम पूज्य उपाध्याय श्रीमद् लब्धिमुनिजी महाराज साहब ने जीवन के अन्तिम वर्षों में इस गीता को कंठस्थ की और नित्य उसका स्वाध्याय करते थे । इस अनुपम कृति का स्वाद तो अध्यात्म प्रेमी, भक्त हृदय ही अनुभव कर सकता है। श्रीमद् गच्छ के कदाग्रही नहीं थे । सत्य अन्वेषक सर्व को समान मानता है । इस महापुरुष ने न्याय विशारद श्रीमद् यशोविजयजी महाराज साहब की रचना ज्ञान सार के ऊपर ज्ञान मंजरी नामक टीका की रचना की । यह उनके उदार दृष्टिकोण का ही प्रतीक है । प्राचार्य बुद्धिमागर सूरिजी ने भी सत्य के साथी बनकर देवचन्द्रजी महाराज साहब का साहित्य प्रकाशित किया है । नाना भाँति के पुष्पों से वनी माला अलग-अलग सौरभ को संकलित करके श्रेष्ट सुगन्ध को प्रसारित करती है । प्रस्तुत पुस्तक में संकलित विविध प्रकार के पुष्पों की महक सर्वत्र व्याप्त होगी ऐसी प्राशा की जाती है । प्राध्यात्मिक साहित्य की कृति जब प्रकाशित होती है तब आत्मार्थी व्यक्तियों को प्रानन्द की अनुभूति होती है। इनके ज्ञान को समझने में यदि अल्पज्ञ व्यक्ति प्रयत्न करें तो विद्वान जगत में उपहास का काररण ही बनेगा। फिर भी भाव की वृद्धि में सर्व गोरा बन जाता है । प्रिय वाचक वृन्द यह पुस्तक जिनकी प्रेरणा और मार्ग-दर्शन में प्रकाशित हो रही है वह परम पूज्य गुरुदेव श्री जयानन्द मुनिजी महाराज साहब की गुरु कृपा से प्राप्त हुई ज्ञान की भेंट है। इस उपहार से हम सब आनन्द के साथ ज्ञान प्राप्त करके मानव जीवन को सफल करें। अनन्त जन्म की अपेक्षा से मानव जीवन की कल्पना अंश मात्र ही है । सर्व कोई ज्ञान के सागर को प्राप्त करके भव सागर तैर कर निजानन्द के सागर को प्राप्त हो यही भव्य अभिलाषा है । मांडवो कच्छ दि० १-५ ७७ (गुजरात) Jain Educationa International ईश्वरलाल चुन्नीलाल लूणिया For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य महान अध्यात्मयोगी द्रव्यानुयोग के महान ज्ञाता एवं अपनी अनेक सुन्दर व विद्वता पूर्ण रचनाओं द्वारा स्व और पर का महान् उपकार करने वाले श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज रचित प्रकट-अप्रकट स्तवन, सज्झाय, पद आदि प्रकाशित करके अध्यात्म प्रेमी महानुभावों के कर कमलों में रखते हुए हमें अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है। आज से पैंतीस वर्ष पूर्व परम पूज्य गुरुदेव श्री बुद्धिमुनिजी महाराज साहब की प्रेरणा से एक पुस्तिका गुजराती भाषा में प्रकट की गई थी परन्तु हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोग जो गुजराती भाषा पढ़ने में असमर्थ हैं, वे इस पुस्तक से लाभ उठाने में सर्वथा वंचित रहे । अतः मेरी दीर्घ काल से यह इच्छा थी कि हिन्दी भाषा में श्रीमद् देवचन्द्रजी के प्रकट-अप्रकट स्तवन, सज्झाय पद आदि संग्रहकर एक बड़ी पुस्तक प्रकाशित की जाय। वीर संवत् २५०० में जब मेरा चतुर्मास जयपुर में था, उस समय बीकानेर निवासी विद्वान व पुरातत्वविद सुश्रावक श्री अगरचंदजी नाहटा दर्शनार्थ वहाँ आए थे। उन्होंने मुझे बताया कि श्रीमद् देवचन्द्रजो के अप्रकट स्तवन सज्झाय मुझे और भी मिली हैं, जो अभी तक मुद्रित नहीं हुई हैं। उसी समय मेरे मन में विचार आया कि श्रीमद की इन अप्रकट रचनाओं के साथ साथ उनकी अन्य लोक प्रिय रचनाओं व.ा संग्रहकर हिन्दी भाषा में एक पुस्तक प्रकट करवानी चाहिए। मैंने नाहटा साहब से इन रचनाओं का संग्रहकर मेरे पास भेजने का प्रस्ताव किया। वीर संवत् २५०१ में जब मेरा चतुर्मास जोधपुर में हुआ तब यहाँ के श्री संघ को प्रस्तुत पुस्तक को मुद्रित कराने के लिए कहा । तत्कालीन खरतरगच्छ जैन संघ के अध्यक्ष श्री जबरमल जी चोरडिया, सचिव प्रकाशमलजी पारख तथा श्री गुमानमलजी पारख, श्री उगमराजजी भंसाली एडवोकेट आदि सज्जनों ने इस पुस्तक के प्रकाशन में पूरा सहयोग देने की स्वीकृति प्रदान की। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छः ] श्रीमान अगरचंदजी नाहटा ने प्रस्तुत रचनाओं को संग्रह कर मेरे पास भेज दी। विदुषी साध्वीजी श्री अनुभव श्री जी की विद्वान शिष्या साध्वीजी हेम प्रभाश्री जी ने संग्रहीत रचनाओं में प्रयुक्त कठिन शब्दों का सरल अर्थ कर तथा कुछ टिप्पणियां लिखकर पाठकों को अर्थ समझने में सरल कर दिया है। प्रफ संशोधन और संपादन का कार्य श्रीमान् सोहनराजजी भंसाली ने अत्यन्त रुचि एवं लगन पूर्वक किया है जो अत्यन्त सराहनीय है। अन्त में, मैं इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि प्रस्तुत पुस्तक इतनी जल्दी प्रकाशित होने का मुख्य श्रेय साध्वीजी श्री हेम प्रभा श्री जी, श्रीमान् अगरचन्दजी नाहटा एवं श्रीमान् सोहनराजजी भंसाली को है। यदि इन महानुभावों का सहयोग न मिला होता तो यह पुस्तक अब तक प्रकाशित न हो पाती। महान् उपकारी श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज कृत स्तवन, सज्झाय, पद आदि का अध्ययन चिन्तन मनन करके भव्य आत्मा कल्याण करें, यही मनोकामना करता हूँ मैं आशा करता है कि इसी तरह श्रीमद् देवचन्द्र कृत ध्यान चतुष्पदी दीपिका भी शीघ्र प्रकाशित होकर भक्तजनों के हाथों में पहुँचेगी। प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन में द्रव्य सहायता जोधपुर खरतर गच्छ जैन संघ ने दी है अतः इसके लिए जोधपुर संघ धन्यवाद का पात्र है। जैन मन्दिर शास्त्री नगर, जोधपुर. गरिण श्री बुद्धिमुनिजी महाराज . साहब के शिष्य जयानन्द मुनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का याद कर chan अठारहवीं शताब्दी के महान् संत, आदर्श विभूति, जैन-आगम साहित्य के प्रकांड पंडित तथा जैन-द्रव्यानुयोग के प्रखर अध्येता एवं व्याख्याता श्रीमद् देवचन्द्र जी की कुछ प्रकट-अप्रकट रचनाओं का संग्रह "श्रीमद् देवचन्द्र पद्यपीयूष" पुस्तक का सम्पादन श्रीमद् के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करने का मेरे लिए एक अपूर्व एवं सुन्दर अवसर है। परम पूज्य गुरूदेव मुनिराज श्री जयानन्दमुनिजी महाराज साहब पाली चतुर्मास के बाद नागौर जाते हुए जब जोधपुर पधारे तब मैं कुशल भवन में आप श्री के दर्शनार्थ गया। उस समय महाराज श्री ने प्रस्तुत पुस्तक की प्रेस कॉपी मुझे दी और बोले इसे देखिए, छपवाना है। प्रेस कॉपी का अवलोकन कर मैंने कुछ सुझाव महाराज श्री के सम्मुख रखे। मेरे सुझावों को सुनकर महाराज श्री ने कहा "आप जैसा चाहें" उस तरह के सुधार करें, इसके संपादन की जिम्मेदारी आपको ही उठाना है । मैं संकोच में पड़ गया। मेरे पास न तो आध्यात्मिक पृष्ठ भूमि है. न ही जैन तत्व ज्ञान का गहरा अध्ययन है, और न प्राचीन भाषाओं का परिपक्व ज्ञान ही। ऐसी वस्तु-स्थिति में किस आधार पर इस पुस्तक के सम्पादन की जिम्मेदारी स्वीकार करता। पर महाराज श्री की आज्ञा को अस्वीकार करना भी मेरे लिए संभव नहीं था। अतः गुरूदेव के आशीर्वाद व मार्ग दर्शन का संबल प्राप्त कर मैंने इस जिम्मेदारी को स्वीकार कर लिया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पाठ ] प्रस्तुत पुस्तक "श्रीमद् देवचन्द्र पद्य-पीयूष" में संग्रहीत रचनाओं में कुछ एक को छोड़ कर सभी स्तवन, सज्झाएँ, पद आदि का संग्रह जैन समाज के जाने माने पुरातत्व विद्, प्राचीन जैन साहित्य के उद्धारक तथा जैन शास्त्र भंडारों के अन्वेषक श्रीमान् अगरचंदजी नाहटा बीकानेर ने किया है। इन संग्रहीत रचनाओं में कुछ एक तो ऐसी हैं जो नाहटा जी ने स्वयं शोधकर शास्त्र भंडारों से बाहर निकाली हैं, जो अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुई हैं। कुछ रचनाएं ऐसी भी संकलित की गई हैं जो इस के पूर्व छप तो चुकी हैं परन्तु वे गुजराती में छपी हैं। अत: हिन्दी भाषी लोगों के लिए तो प्रस्तुत पुस्तक में प्रकट रचनाएँ अधिकतर नई और पहली बार ही छपी हैं । पाठकों की सुविधा के लिए प्रस्तुत पुस्तक की रचनाओं को पांच खण्डों में विभाजित किया गया हैं, जो निम्न प्रकार हैं१. जिनेश्वर देवों की स्तवन-स्तुतियाँ २. तीर्थ स्थल व विविध स्थानों के मन्दिरों से संबंधित स्तवम-स्तुतियां ३. तप, पर्व, महोत्सव संबंधी रचनाएँ ४. जिनराज आंगिक वर्णन ५. सज्झाय व गहूँली श्रीमद् जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व प्रादर्श संत की रचनाओं का रसास्वादन । करने के पूर्व ऐसे असाधारण संत कवि के जीवन के संबंध में उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के विषय में भी जानकारी की जिज्ञासा एवं उत्सुकता रहना स्वाभाविक ही है। अतः श्रीमद् का जीवन चरित्र भी प्रस्तुत पुस्तक में विस्तार से दे दिया गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ नौ ] श्रीमद् की रचनाओं में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ व आवश्यक टिप्पणियां भी दे दो गई हैं। इससे पाठकों को अर्थागम व कवि के भावों को समझने में कुछ सरलता व सुविधा होगी, साथ ही अर्थ समझ कर पाठ करने से विशेष प्रानन्द की अनुभूति हागी। श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज की प्रत्येक रचना आध्यात्मिक भावों से प्रोतप्रोत है। प्रत्येक पद में आध्यात्मिकता स्पष्ट रुप से परिलक्षित होती है। दूसरी विशेषता जो भक्ति की अतिशयता है वह अध्यात्मिक्ता के साथ स्वर्ण मणिवत् संयोग है। यद्यपि वे स्वयं जैन दर्शन के कर्ता स्वतंत्र पद का प्रतिपादन करते हैं कि आत्मा स्वयं, स्वयं के ही पुरुषार्थ द्वारा अनादिय रंक दशा से मुक्त बनेगी किन्तु निमित कारण का भी कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं। अतएव अतिशय भक्ति को व्यक्त करने वाले भावों को व्यक्त करते समय प्रभु वीतरागदेव जो कि उपादान शुद्धि के लिए निमित्त कारण है, उनमें हो कहीं कहीं कर्ता पद का आरोप कर देते हैं। प्रभु से अनुनय-विनय करते हैं। आत्म शुद्धि के लिए, प्रात्म मुक्ति के लिए बार-बार प्रार्थना करते हैं। अतिशय भक्ति के क्षणों में ऐसे उद्गार निकले हैं जैसे कि तार हो तार प्रभु मुझ सेवक भणी जगत में एटलू सजश लीजे दास अव गुण भर्यों जागी पोतातणो दया निधि दीन पर दया कीजे ॥ जैन दर्शन में ऐसे ईश्वर को कोई स्थान नहीं है जो इस जगत का कर्ता, धर्ता या हर्ता हो। जैन मतानुसार ईश्वर का परवाना किसी एक व्यक्ति को प्राप्त नहीं है। संसार का कोई भी व्यक्ति स्वात्मा का विकास और उत्क्रांति कर परमपद् प्राप्त कर सकता है। नर से नारायण बन सकता है, ईश्वरत्व की प्राप्ति कर सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ दस ] श्रीमद् ने अपनी कविताओं में भगवान का गुण गान कर अपने गुणों को उभारा है, उनके दर्शन कर अपने स्वरूप का दर्शन करना चाहा है । भगवान् के जीवन की याद कर अपने जीवन का निर्माण करने का प्रयास किया है । उनके साधना मार्ग को स्मरण कर अपना साधना मार्ग प्रशस्त किया है। उनके त्याग और तप से प्रेरणा लेकर स्वयं को ऊपर उठाने का प्रयत्न किया है। श्रीमद् ने अपनी रचनाओं में जैसा इस जैन सिद्धान्त का निर्वाह किया है, वैसा शायद कोई कवि नहीं कर सका। __ श्रीमद् एक उच्च कोटि के कवि ही नहीं वे एक आदर्श संत भो थे उनकी प्रत्येक कविता में संत वाणी उजागर होती हैं। उनके हर पद में जैन दर्शन प्रस्फुटित होता है। सचमुच उन्होंने अपनी कविताओं में जैन सिद्धान्त रूपी सागर को गागर में भर दिया है। श्रीमद् के स्तवन, स्तुतियां, पद, सज्झाएँ जब भक्त लोग मधुर लय में गाते हैं, तब श्रोता जन भी झूमने लग जाते हैं और उस समय सब के हृदय में एक अपूर्व आत्मानुभूति जागरित होती है। स्वर्गीय पं० चैनसुखदासजी ने ठीक ही कहा है-“संत जब कवि की भाषा में बोलता है तब उसका माधुर्य इतना आकर्षक बन जाता है कि भक्ति साकार होकर हमारे सामने आ जाती है ।" . जीवन चरित्र का प्रालेखन हमारे अनुरोध को स्वीकार कर श्रीमद् के जीवन चरित्र का आलेखन तथा शब्दार्थ का कार्य परम पूजनीय साध्वोजी श्री अनुभवश्रीजी की विदुषी शिष्या साध्वीजी श्री हेभप्रभाश्रीजी एम० ए० (दर्शन शास्त्र) ने किया है जिसके लिए मैं उनका हार्दिक आभार प्रकट करता हूं। श्रीमद् के जीवन चरित्र में आवश्यक संशोधन या परिवर्द्धन आपकी स्वीकृति से किया गया है । विदुषी साध्वीजी श्री मणिप्रभाश्रीजी एम० ए० ने समय समय पर बड़ी लगन एवं तत्परता से मार्ग दर्शन दिया है अतः उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ। भूमिका श्रीमद् के परम भक्त एवं जैन विद्वान मांडवी, कच्छ (गुजरात) निवासी श्री ईश्वरलाल चुन्नीलाल लूणिया ने प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका लिख भेजो है जिसके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Matीजानानाननादिशाश्मदिवसारीवादीटा मेहदीसासदा नंदकेशयाममनोदशाबरडाहमारीयामेय।।इतिश्रीपाश्चnailam२३॥डाला|| (सीमवरकरड्याममापदेमनमान्यारवीरङत्रिमलानंदनदेवासवश्साहिब यावसासमेवाघlaam सारुतादावाधधर्ममतादीया यजयाल।वनितधावैदहार याडोकवनेदानीमातोदवश समीरवनंतायामीटा॥ ॥डाकी उस्मारधीतियmil आदिकरिवंद्रमसिंana वाणिोदोवीडितदीनव्यायातमा तिमनिवाणिYanडिनईसीमा को चोवीसमाशिवरायालघमे || दोबायला मारणेदमुतिगुणगापतिश्रीविनातितीर्घकराणस्तदेनानी|| सafailmaaमनीष्टवदिशदिनेयंग्देदवगतिवितश्रावको पताकपादकाबाईकमांत्रावताहा ॥श्री:॥ ॥श्री:॥ ॥श्री। - - श्रीमद देवचन्द्रजी के हस्ताक्षरों में प्रानन्द वर्द्धन कृत चौबीसी का अंतिम पत्र (सं० १७७०) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ग्यारह ] लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। भूमिका की भाषा गुजरातो होने से उसका हिन्दी अनुवाद कर दिया गया है। अनुवाद करने में कोई भूल रह गई हो तो लेखक महोदय क्षमा करें। श्रीमद के हस्त लिखित अक्षर श्रीमद् का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, अतः उनकी हस्त लिखित अक्षर देह की एक प्रति जो सं० १७७६ की है, उसका ब्लॉक बनवाकर प्रस्तुत पुस्तक में समावेश किया गया है। श्रीमद् की चरणपादुका के देरी का चित्र भी देने का विचार था पर खेद है वह उपलब्ध नहीं हो सका। पुस्तक में प्रकाशित रचनाओं प्रयुक्त भाषा के विषय में निवेदन यह है कि इसकी भाषा तात्कालिक प्रयोग का समन्वित रूप है जिसमें अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी पादि सबका सम्मिश्रण है इसमें प्रयुक्त शब्दावली उस युग के बोल चाल व भाषा का मानक, प्रमाणिक रूप है जिसे आधुनिक काल के परिपेक्ष्य में अशुद्ध न माना जाय । पुस्तक को सुन्दर, सरस और बड़े टाइप में सर्व जन ग्राह्य बनाने का अपनी क्षमतानुसार प्रयास किया है। प्रूफ आदि के देखने में यथा संभव सावधानी रखी गई है, फिर भी दृष्टि-दोष व मतिभ्रम से जो भूलें या कमियां रह गई हैं, उनकी ओर पाठक ध्यान दिलाएंगे तो अगले संस्करण में उनका परिष्कार किया जा सकेगा। भक्त लोग प्रस्तुत प्रकाशन से आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त कर इस से लाभ उठाएंगे तो, हम (प्रेरक, संग्राहक, संपादक शब्दार्थ कारिका आदि) अपने प्रयास को सार्थक समझेंगे। प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन में जिन्होंने आर्थिक या बौद्धिक सहयोग प्रदान किया है उन सबका हार्दिक अभिवादन करता हूं। कुशलम् सोहनराज भंसाली १६२ डी, शास्त्री नगर, जोधपुर. वैशाख पूर्णिमां. वीर सं० २५०३. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका विषय भूमिका वक्तव्य सम्पादकीय श्रीमद् जीवन चरित्र प्रथम खण्ड जिनेश्वर देवों की स्तवन-स्तुतियां मंगल नमस्कार 'धर जिन स्तवन श्री शीतल जिन स्तवन श्री धर्मनाथ स्तवन श्री शान्तिनाथ स्तवन श्री नेमी नाथ स्तवन श्री पार्श्व जिन चैत्य वंदन प्रभु स्मरण पद ऋषभ जिन स्तवन ७ रत्नाकर पच्चीसी भावानुवाद द ध्यान चतुष्क विचार गर्भित - १२ 31 31 Jain Educationa International पृष्ठ सं. " एक पांच सात बारह ३ ५ ६ १८ १६ २० २१ 17 विषय श्री गोडी पार्श्वनाथ जिन स्तवन 33 17 31 11 "" 33 "" " अनुक्रमणिका २२ जगवल्लभ पार्श्वनाथ स्तवन २४ पार्श्वनाथ स्तवन २६ वीर निर्वाण वीर जिन निर्वाण स्तवन अनागत पद्मनाभ जिन स्तवन पद्मनाभ जिन स्तवन सीमंधर जिन स्तवन सहस्त्रकूट जिन स्तवन प्रभातिक छन्द (चौपाई ) द्वितीय खण्ढ पृष्ठ सं For Personal and Private Use Only २७ ४७ ४८ ४६ ५१ M ૪ ५६ तीर्थ स्थल व विविध स्थानों ५७ के मंदिरों से संबंधित स्तवन तृतीय खण्ड तप, पर्व एवं महोत्सव चतुर्थ खण्ड जिन राज प्रांगिक बन पंचम खण्ड सज्झाय व गहूंली ६५ १०७ १११ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तेरह ] श्रीमद् देवचन्द्र सन्त सदा ही देश और समाज के पथ-प्रदर्शक रहे हैं क्योंकि वे प्रात्म सौन्दर्य की खोज में समस्त सांसारिक इच्छाओं के विजेता होते हैं । वे वैराग्य की मस्ती में अपने समग्र जीवन को समर्पित कर देते हैं । ज से ज से आत्मा की अनन्त गहराई में उतरते हैं व से बसे उसमें "प्रात्मवत् सर्व भूतेषू' की भावना बढ़ती जाती है। मैत्री भाव का पावन स्रोत उसकी अन्तरात्मा से फूट पड़ता है । यही कारण है कि उनकी साधना 'स्वान्तसुखाय' होते हुए भी 'परजन हिताय' बन जाती है। उनकी वाणी देश. काल की सोमा को लांधकर मानव मात्रा की उपकारक होती है उनकी कृतियों मानवजीवन की समस्त गुत्थियों का ठोस आध्यात्मिक हल देने के साथ आत्मविकास की सर्वागीण मीमांसा करती हैं, अत एव वे मानव-जाति की अमूल्य धरोहर बन जाती है। जब कभी धरती का पुण्य जगता है, समय का भाग पलटता है तब ऐसी विमूतियां अवतीर्ण होती हैं । श्रीमद् देवचन्द्र १८ वीं शताब्दी की ऐसी ही एक विरल विभूति थे, जिन्होंने अपनी ज्ञान और संयम की साधना से एक ऐसी ज्योति दी जो प्रकाश स्तम्भ (Search Light) की तरह अज्ञान के अंधेरे में भटकती हुई मानव जाति को दिशा निर्देश करती रहेगी। श्रीमद् प्रकाण्ड विद्वान, समर्थ लेखक, भक्त-कवि ही नहीं किन्तु अध्यात्मयोगी महापुरुष थे । गन्म और दीक्षा पुण्यभूमि भारत के इतिहास में राजस्थान का स्थान महत्वपूर्ण है। इस महिमा शाली धरा ने जहां पान पर प्राण न्यौछावर करने वाले वीरों को जन्म दिया वहां भक्तिरस की सरिता वहाकर जन मानस के विकारों को धो डालने वाले भक्तों और तिक-जीवन की पावन प्रेरणा देने वाले सन्तों को भी जन्म दिया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौदह ] उसी राजस्थान में धवल-धोरों से घिरा हुआ बीकानेर शहर हैं, जिसकी अपनी निराली प्राकृतिक शोभा है। "उनाले में तपे तावड़ो लूारा लपका । रातडली इमरत बरसावे नींदा रा गुटका ।। कठोर जलवायु में पलने के कारण यहां के निवासी स्वभाव से ही बड़े परिश्रमी, सहिष्णु और साहसी होते हैं। बीकानेर राज्य के राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक निर्माण में यहां के जनों का बड़ा योगदान रहा है। मंत्री कर्मचन्द बच्छावत की राज्य और राज्य की जनता के लिए की गई सेवाएं भारतीय इतिहास में सदा अमर रहेगी। उन्होंने अनेक लड़ाइयाँ लड़कर युद्ध के मैदान में विजय श्री प्राप्त की। यहां के जनों ने समय आने पर राज्य और प्रजा की तन, मन, धन से सेवा की है। ये जितने कौशल से धन कमाना जानते हैं उससे कई अधिक गुणा औदार्य से उसका सदुपयोग करना भी उन्हें आता है। "शत हस्तं समाहरेत" और सहस्त्र हस्त सकिरेत' उनका सच्चा जीवन सूत्र रहा है। इसी बीकानेर के समीपवती एक गांव में, प्रोसवश के लूणियां गौत्र में संवत् १७४६ में श्रीमद् का जन्म हुआ था । आपके पिता का नाम तुलसीदास जी एव माता का नाम धनाबाई था। जब श्रीमद् गर्भ में थे तभी इन भाग्यशाली दम्पति ने खरतरगच्छीय विद्वान वाचक वर्य श्री राजसागर जी के सम्मुख यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि पुत्र हुआ तो वे उसे जैन शासन को सेवा हेतु उन्हें अर्पण कर देंगे। कहा जाता है कि जब श्रीमद् गर्भ में थे तब धना बाई ने एक स्वप्न देखा था करियण न उस स्वप्न का वर्णन अपने शब्दों में इस प्रकार किया है शय्या में सुतांथकां किंचित जागृत निंद । भेरु पर्वत उपरे मिली चौसठ इन्द्र ॥ जिन पडिमानो अोछव करे मिलिया देव महान । परावण पर वेसी ने देता सहुने दान । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पन्द्रह ) एहवू सुपनते देखी ने थया जागृत तत्काल । अरूणोदय थयो तत् क्षिणे, मन में थयो उजमाल ॥ स्वप्न में सुमेरू पर्वत पर इन्द्रों द्वारा प्रभु के जन्म महोत्सव का दृश्य देखकर देवी धन्ना का रोम-रोम पुलकित हो उठा । इस स्वप्न का क्या फल होगा यह जानने की तीव्र उत्कंठा पंदा हुई। सौभाग्य से गच्छनायक श्री जिनचन्द्रसूरिजी का कुछ दिनों के बाद ही वहां शुभागमन हुआ । पुण्यवान दम्पत्ति ने उनके समक्ष अपने स्वप्न की चर्चा की। यह सुनकर आचार्य श्री अत्यन्त प्रसन्न हए और बोले कि देवी! तुम्हें एक महान भाग्यशाली पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। यह पुत्र या तो छत्रपति होगा या सर्व विद्यानिधान पत्रपति होगा। यह सुन माता को बड़ा हर्ष हुआ। प्राचार्य श्री के कथनानुसार स. १७४६ में बालक का जन्म हुआ । नवजात बालक का नाम देवचन्द्र रखा गया। जब बालक ८ वर्ष का हुआ तब वाचकवर्य राज सागरजी विहार करते हुए पुन: वहां पधारे। माता-पिता ने अपनी भावना और प्रतिज्ञा को स्मरण कर उस पुत्ररत्न को गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया। दो वर्ष तक बालक देवचन्द को राजसागरजी ने अपने पास मुमुक्षु के रूप में रखा । बालक की तीव्र बुद्धि, आलौकिक प्रतिभा एवं विशिष्ट गुणों को देखकर गुरु श्री ने शुभ मूहुर्त में स. १७५६ में सकल संघ की उपस्थिति में मुनिधर्म की दीक्षा दी। अब आप का नाम राज विमल रखा गया । दो वर्ष के पश्चात् आपकी बड़ी दीक्षा आचार्य श्री जिन चन्द्रसूरि' के सानिध्य में सम्पन्न हुई यद्यपि आपका नाम राज विमल जी रखा गया किन्तु वे श्रीमद् देवचन्द्र के नाम से ही प्रसिद्ध हुए। केवल उनकी दो एक कृतियों में राज विमल नाम मिलता है । १-खरतर-गच्छ में प्रत्येक चौथे पट्टधर का नाम जिनचन्द्रसूरि रखने की "प्राचीन परंपरा है । ये जिन चन्द्र सूरि ६५ वें पट्टधर थे। इनका शासनकाल १७११ से १७६२ तक रहा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानोपासना और संयमसाधना सदगुरु और शिल्पी दोनों एक समान होते हैं। शिल्पी एक अनघड़ पत्थर को काट-छीलकर उसे सुन्दर मूर्ति का रूप प्रदान कर देता हैं। वैसे सद्गुरु भी ज्ञानध्यान, तप और त्याग की छेनी से तराश कर शिष्य के जीवन का नव निर्माण कर देता है । यहि कारण है कि गुरु की महिमा प्रभु से भी अधिक बताई है । कबीर के शब्दों में [ सौलह ] DC Jain Educationa International 'गुरु गोविन्द दोनों खड़े का के लागू पाय । बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय' ॥ केवल दीक्षा देने मात्र से कुछ नहीं होता, उसके साथ आवश्यक है शिक्षा देना । श्रीमद् के गुरु इस तथ्य से भली भाँति परिचित थे । श्रीमद् के रूप में तो उन्हें एक कोह-ए-नूर मिला था । आवश्यकता थी उसे निखारने की, उनकी अनंत आभा को उजागर करने की । श्रीमद् कुशाग्र बुद्धि वाले तो थे ही साथ ही बड़े अध्ययनशील थे । अपने गुरुके प्रति भी उनके हृदय में अनन्य श्रद्धा, प्रगाधभक्ति एवं सहज विनयभाव था । अतः वाचक राजसागर जी, पाठक ज्ञानधर्म जी एवं दीपचन्द्रजी ने प्रसन्न हो मुक्त हृदय 'से प्रापको ज्ञानदान दिया । मां भारती की असीमकृपा, ज्ञानदाता गुरुजनों की लगन, अपनी तीव्र बुद्धि एवं अध्ययननिष्ठा के कारण अल्प समय में आप व्याकरणः काव्य-कोष, छन्द अलंकार, न्याय-दर्शन; ज्योतिष कर्म साहित्य एवं आगमसाहित्य के तलस्पर्शी अध्येता एवं व्याख्याता बन गये । ज्ञानोपासना की तीव्रता में श्रापने दिगम्बर ग्रन्थों को भी अछूता नहीं घोड़ा था । आपकी विद्वत्ता का वर्णन करते हुए कवियर कहते हैं " सकल शास्त्र लायक थया हो, मंइ सुइ ज्ञान रे ॥ जहने For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सत्तरह] इसके अतिरिक्त सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंस, गुजराती एव राजस्थानी भाषा पर प्रापका पूर्ण अधिकार था। आपकी ज्ञानोपासना के सही प्रभाव को खोजने के लिए आपके द्वारा निर्मित कृतियों का पारायण करना ही अधिक उपयुक्त होगा। ज्ञान का फल है विरति "ज्ञानस्य फलं विरति' जैसे-जैस उनकी ज्ञानोपासना दृढ बनती गई वैसे-व से उनकी सयम साधना कठोर बनती गयो । त्याग और वैराग्य दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। यही कारण था कि बहुत छोटी उम्र में ही श्रीमद् का झुकाव आध्यात्मिक और योग की ओर हुआ । आज का विद्यार्थी जिस आयु में अनुभव हीन, शुष्क ज्ञान का बोझ ढोता हुमा कालेजों की खाक छानता है वहां श्रीमद् ने केवल १६ वर्ष की अल्प आयु में संवत् १६६६ में पंजाब के मुलतान नगर के प्रतिष्ठित श्रावक मिठ मल भंसाली आदि योग साधना प्रेमी श्रावकों के अनुरोध पर ध्यान के गूढ रहस्यों से भरी ध्यान दीपिका चतुष्पदी नामक ग्रन्थ की रचना कर डाली। प्रवास और उपदेश-- श्रीमद् द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियां, चं त्यपरिपाटियां, तीर्थ स्तव एव देव विलास से स्पष्ट है कि आपका प्रवास राजस्थान, सिंध, पंजाब, गुजरात, एव सौराष्ट्र के प्रदेशों में अत्यधिक हुा । दीक्षा के बाद २० वर्ष तक तो आप राजस्थान सिंध, पंजाब में विचरण करते रहे । इन बीस वर्षों मैं मुलतान, बीकानेर, जैसलमेर, मरोठ आदि शहरों को छोड़कर आपके चातुर्मास कहाँ-कहाँ हुए, आपके द्वारा शासन प्रभावना के क्या क्या कार्य हुए, इसका कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता । श्रीमद् ज से समर्थ विद्वान, सयम निष्ठ और बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति (ग्रन्थरचना के अतिरिक्त) इतना लम्बा काल यों ही व्यतीत कर दें, यह बुद्धिगम्य नहीं होता । अतः इस सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा समुचित खोज अपेक्षणीय है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात की शोर [ अठारह ] विद्वत्त्व ं च नृपत्व च, नेव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यत राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते ॥ विद्वत्ता, संयमनिष्ठा. अध्यात्मरसिकता एवं प्रवचनपटुता के कारण आपकी कति दूर दूर तक फैल गई थीं, अतः स्थान-स्थान के श्री संघ आकर अपने गांवों और 'नगरों मैं पधारने की आपसे सविनय प्रार्थना करने लगे । गुजरात भी उस ज्ञान-गंगा से अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने में, कैसे पीछे रहता ? अतः वहां का C *IF FF TVSEN TYP हा 5 भी अत्याग्रह । श्रीमद् के गुजरात प्रवास के पीछे एक खास बात यह भी रही कि संघ के आग्रह के साथ एक गुणानुरागी सद्धदय - साधु पुरुष का भी नम्र आग्रह था। वे साधु पुरूष थे तपागच्छीय मुनि श्री क्षमाविजय जी । Sh ST संवत १७७७ में श्रीमद् के गुजरात की ओर विहार किया । इस प्रवास को आपने तीर्थ यात्रा एवं धर्म प्रचार का माध्यम बनाकर अनेक धर्म प्रभावना के कार्य किए। जहां जहां वे तीर्थो में गये वहां वहां नवीन स्तव-स्तुतियों द्वारा मुक्त हृदय 'से भक्ति करते हुए उसे चिरस्मरणीय बनाया । विचरण करते हुए प समाज में तो ज्ञान का प्रचार किया ही, साथ ही राजकीय अधिकारियों में भी मुक्त रूप से हिंसा धर्म का प्रचार किया। उनमें से कई तो श्रापके परम भक्त बन गये VITT म T सर्व प्रथम श्रीमद् गुजरात के पाटनगर पाटण में पधारे। पुण्य पुरुष कहीं भी पधारे सर्वत्र प्रानन्द ही श्रानन्द छा जाता है “ पदे पदे निधानानि" । इस राजस्थानी 빛나는 “सन्त की प्रवचन पटुता एवं मधुरवाणी ने पाटणवासियों को मन्त्र मुग्ध कर दिया । उनके जीवन और उपदेशों में न तो ग्रह भाव था, न ममत्व, किन्तु समभाव का ही र Jain Educationa International अमृत करता था । अतः, उसका पान करने के लिए लोग हजारों की तादाद में उनके ब्याख्यानों में प्राते थे और जीवन की समस्याओं का सही समाध For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उन्नीस ] निविमलसूरि और श्रीमद्-- (सहस्त्रकूट जिन नाम:प्रसिद्धि) . __ बड़ा बड़ाई ना करे, बड़ो न बोले बोल । ... - हीरा मुख से कब कहे; लाख हमारा मोला ॥ तथापि जैसे हीरे का पानी हीरे का मूल्य बता देता है, वैसे प्राचरण व्यक्ति की "महानता का परिचय करा देता है। उस समय पाटण के नगर सेठ श्रीमाली दोसी तेजसी जैतसी थे। उन्होंने वहां सहस्त्रकूट जिनालय बनवाया था जिसका वर्णन श्रीमद् ने स्वयं सहस्त्रकूट स्तवन में किया है। . . . . ... "श्रीमाली कुलदीपक जे तसी, सेठ सुगुण भण्डार । तस सुत सेठ शिरोमणी ते जसी पाटण नगर में दातार ।। तणे ए बिब भराव्या भावशु, संहस अधिक चौबीस । कीधी प्रतिष्ठा पूनमगच्छधरू भाव प्रभ सूरीश ।।' . 5. एक दिन श्रीमद् ने सेठ जी से पूछा कि आपमे 'सहस्त्रकूट के नाम तो गुरु मुख से सुने ही होंगे ? सेठजी ने अपनी अज्ञानता प्रकट की। किन्तु इससे उनके हृदय में सहस्त्रकूट के नाम को जानने को प्रबल जिज्ञासा पैदा हो गई । उन्होंने अपनी यह , जिज्ञासा उस समय के जाने माने विद्वान ज्ञानविमलसूरि के समक्ष रखी । ज्ञान विमल सूरि ने इन्हें फिर कभी बताने को कहा। एक दिन साही पोल स्थित श्री पाश्वनाथ मन्दिर में सत्तरभेदी पूजा के प्रसग को लेकर सूरिजी और श्रीमद् दोनों ही वहां पधारे । सेठजी भी वहाँ आए हुए थे। सूरिजी को देख कर. उनकी जिज्ञासा फिर जगी और उन्होंने अपना प्रश्न पुनः दोहराया । उत्तर देते हुए सूरिजी ने कहा कि उपलब्ध शास्त्रों में प्राय: इन नामों का उल्लेख नहीं मिलता। एक अधिकारी आचार्य के मुह से यह बात सुनकर श्रीमद् से नहीं रहा गया और उन्होंने इसका नम्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बीस ] प्रतिवाद किया। इस पर प्राचार्य श्री जराक्रुद्ध होकर बोले यदि तुम्हें विदित हो तो तुम ही बतला दो। श्रीमद् ने उस समय विनय पूर्वक सूरिजी को शास्त्र पाठ सहित सहस्त्र जिन नाम' बतलाये। इससे सूरिजी बड़े प्रभावित हुए । विद्वता के साथ स्वभाव की नम्रता और साधुता के सुमेल ने तो सूरिजो को ऐसा आकर्षित किया कि दोनों में गाढ मैत्री हो गई। यह जानकर तो सूरिजी को बड़ा हर्ष हुआ कि वे खरतर गच्छीय विद्वान परम्परा के वाचक राज सागर जी के सुयोग्य शिष्य हैं मौन रही ने पूछे ज्ञान, तुमे केहना शिष्य निधान रे उपाध्याय राजसागरजी ना शिष्य मीठी वाणी जेहनी इक्षु रे ॥ नम्रता गुण करी बोले ज्ञान, देवचन्द्र ने आप्या मान रे तुम वाचक तो जैन ना काजी, तुमे जनना थभ छो गाजीरे आदि घर छे तमारु भव्य तुमे पण किमन होय कव्य रे ॥ धन्य है ऐसे गुणानुरागी महात्माओं को जो गच्छ व समुदाय के भेद से ऊपर उठ कर गुणों के ग्राहक और साधुता के पूजक होते हैं । क्रियोद्धार ___ संसार परिवर्तनशील है। कोई यह दावा नहीं कर सकता कि-अमुक समाज, राष्ट्र, धर्म, जाति या पन्थ अपने उद्गम से लेकर आज तक एक सा रहा हो सामयिकपरिवर्तनों से कोई अछूता नहीं रहा । प्रत्येक चीज उत्थान और पतन के दो बिन्दुओं के बीच लुढ़कती रहती है। १-इन नामों का वर्णन श्री मद रचित सहस्त्रकूट जिन स्तवन में है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [इक्कीस] जैन धर्म भी इसका अपवाद नहीं रहा। समय-समय पर उसे भी आचारिक और वैचारिक उत्थान-पतन का शिकार होना पड़ा। 'चैत्यवासी-परम्परा" एक ऐसे ही पतन का नमूना था । जैन धर्म में इसके बीज कब से बोये गए थे, यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना स्पष्ट है कि प्राचार्य हरिभद्रसूरि जी के समय चैत्यवासियों वा सूर्य मध्यान्ह में था। यह उनके द्वारा रचित सम्बोध प्रकरण से स्पष्ट है। चैत्य का अर्थ है मन्दिर, वासी यानि उसमें रहने वाले । अर्थात् उस समय साधुओं का बहुत बड़ा वर्ग शास्त्र-मर्यादाओं को तोड़ कर मन्दिर में ही बस गया था। उनका खान-पान, धर्मोपदेश, पठन-पाठनादि वहीं होते थे। मन्दिर ही उनके मठ थे । इसके साथ धीरे-धीरे उनमें और भी शिथिलता आ गई थी। शास्त्रवरिणत प्राचारों से उनके प्राचार में बड़ी विसंगति थी। धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त राजनैतिक, सामाजिक और व्यापारिक क्षेत्रों में भी उनकी धाक थी। मंत्र, तन्त्र, के सफल प्रयोग के कारण उन्होंने तत्कालीन राजा और प्रजा को अपने वश कर रखा था। यहां तक कि वे राज्य निर्माता (King Makers) भी थे । शीलगुणसूरि, देवेन्द्र सूरि प्रादि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। यद्यपि हरिभद्रसूरि जी ने इसके विरुद्ध आवाज तो उठाई थी तथापि उस परंपरा को खत्म करने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं था। उसके लिये तो आवश्यकता थी एक ऐसे व्यक्तित्व की जो ज्ञानबल और क्रियाबल दोनों से वरिष्ठ होने के साथ-साथ चैत्यवास के विरुद्ध संप्रदायव्यापी और देशव्यापी आन्दोलन बुलन्द कर सके तथा उसकी भावना को प्रचण्डता के साथ अपने शिष्यों, प्रशिष्यों तक पहुँचा सके। ऐसा प्रखर और तेजस्वी व्यक्तित्त्व वर्धमान सूरि की छत्रछाया में पनपा। वह व्यक्तित्त्व था जिनेश्वरसूरि का। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बाईस ] यद्यपि बर्धमान सूरि स्वयं किसी समय चैत्यवासियों के प्रमुख प्राचार्य थे, किन्तु जैन शास्त्रों का विशेष अध्ययन करने पर उन्हें अपना तत्कालीन आचार-विचार मिथ्या और अनुचित लगने लगा । फलतः उन्होंने इस अवस्था का त्यागकर विशिष्ट त्यागमय जीवन अपना लिया। उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि आदि ने भी उसी मार्ग का अनुसरण किया । वे क्रियापत्र ही नहीं उच्चकोटि के आगमज्ञ भी थे। उन्होंने चैत्य वास के विरुद्ध संप्रदाय व्यापी और देश व्यापी आंदोलन छेड़ने का कार्य अपने हाथ में लिया। इसके लिये उन्होंने सुविहित मार्ग प्रचारक नया गण स्थापित किया । इसके उन्मूलन के लिये यथाशक्य सभी उपाय किए शास्त्रार्थ भी किया। आपने पाटण में दुर्लभ राज की सभा में चैत्यवास के प्रबल समर्थक सुराचार्य के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। इसी विजय के फलस्वरूप दुर्लभराज ने उन्हें 'खरतर-विरुद्ध' दिया। इस तरह खरतर गच्छ का प्रादुर्भाव अपने में एक महासाहसिक कदम था। इस प्रसंग से जिनेश्वरसूरि की पाटण में ही नहीं किन्तु मारवाड़ मेवाड़, गुजरात, सिंध, मालवा प्रादि प्रदेशों में भी खूब ख्याति बढ़ी। आपकी निश्रा में चतुर्विध संघ का अच्छा संगठन तैयार हुआ था। इनके प्रभाव के कारण अनेक समर्थ यतिजन चैत्याधिकार का और शिथिलाचार का त्यागकर क्रियोद्धार करके अच्छे संयमी बने । मन्दिरों की व्यवस्था और देवपूजा की पद्धतियों में शास्त्रानुकूल सर्वत्र परिवर्तन हुए। यद्यपि जिनेश्वरसूरि ने इस परंपरा को मिटाने का प्राजीवन पुरुषार्थ किया. तथापि इतने थोड़े समय में उसके मूल को उखाड़ फेंकना आसान नहीं था। उसके लिये तो परंपरा का प्रचण्ड प्रयास अपेक्षित था। अतः सूरिजी ने अपने शिष्य-प्रशिष्यों में भी उस भावना को बड़े वेग से फैलाया । अतः उनके पीछे आने वाले उनके कई उत्तराधिकारियों-नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि-जिनवल्लभसूरि-जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि प्रादि ने उनके विचार का बड़े विस्तार से प्रचार किया। किन्तु उसके बीज को उन्मूलन कर देना सहज काम नहीं था। कभी वह पुनः जोर पकड़ लेता फिर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तेईस ] उसे खत्म करने का प्रयत्न किया जाता। इस प्रयास में महान आचार्यों ने शिष्यों तक का मोह त्याग दिया था । श्रीमद् के समय साधु-जीवन में पुन: शिथिलता व्याप्त हो गई थी। सुविहित-परंपरा के संस्कारों को विरासत में पाने वाले श्रीमद् की त्यागी-वैरागी आत्मा में इसका बड़ा दुख था । अतः आपने शैथिल्य का सर्वथा परिहार कर उत्कृष्ट-त्यागमय जीवन अपना लिया। फलतः उस समय आपके पास केबल ८-१० शिष्य प्रशिष्य ही टिक सके, जो प्रापको तरह ही कठोर साधु-जीवन के पालन में रूचि रखते थे। १-इस दृष्टि से अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि का नाम उल्लेखनीय है । संवत् १६१४ में चैत्रकृष्णा ७ को जब सूरिजो ने क्रियोद्धार की उद्घोषणा की तब २०० शिष्यों में से आपके पास कुल १६ ही शिष्य रहे । अवशिष्ट, जो विशुद्ध संयम का पालन करने में असमर्थ थे, उन्हें गृहस्थ के कपड़े पहिनाकर अलग कर दिया। इन्हीं से 'मत्थेरण' (महात्मा) जाति का उद्भव हगा। यह जैन जाति आज भी मारवाड़, मेवाड़ में विद्यमान है। २-यह मन्दिर हाजा पटेल की पोल में स्थित शांतिनाथजी की पोल में है। श्री सहस्त्रकरण के नीचे निम्न लेख दिया हुअा है "संवत् १७८४ वर्षे मागशीर वदि ५ दिन सहस्त्रफरणाथी मंडित श्री पार्श्वनाथ परमेश्वर बिंव कारितं उपकेशवंशे साह प्रतापशा भार्या प्रतपदे पुत्र शा. ठाकरशी केन आणंदबाई भगनी झवरयुतेन बृहत्वरतरगच्छे भट्टारक श्री युग प्रधान, श्री जिनचन्द्रसूरि, शिष्याणां महोपाध्याय श्री........शिष्य उपाध्याय श्री देवचन्द्र गणि शिष्य-युतैः" ... (श्री पादराकरजी द्वारा लिखित श्रीमद् का जीवन-चरित्र पृ. ३१) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौबीस शासन-प्रभावना:इसी वर्ष आप अहमदाबाद पधारे और नागौरी सराय में बिराजे । वहाँ भगवती सूत्र पर अापके बड़े ही तर्क और तत्त्व से पूर्ण मधुर व्याख्यान होते थे। वहाँ मारणकलालजी नामक एक सम्पन्न सद् गृहस्थ रहते थे। स्थानकवासियों के संसर्ग से उनकी मूर्तिपूजा की श्रद्धा क्षीण हो गई थी। किन्तु श्रीमद् के उपदेश से वे पुनः मूर्तिपूजक बन गये और उन्होंने एक जिन चंत्यालय बनाया, जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १७८४ में श्रीमद् के वरद-हस्तों से हुई थी। रवंभात चातुर्मास एवं सिद्धाचल पर पेढ़ी स्थापन: रखंभात श्रीसंघ के अत्याग्रह से संवत् १७७६ का आपका चातुर्मास रवंभात में हुआ। वहाँ आपके व्याख्यानों से अनेको लोग प्रभावित हुए । श्रीमद् के स्तुतिस्तवों, गिरिराज पर निर्माण-कार्य, एवं बार-बार वहां जाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी सिद्धाचल के प्रति अगाध भक्ति एवं अनन्यश्रद्धा थी। अतः, इस चातुमास में आपने तीर्थराज की महिमा का अपूर्व वर्णन किया। सिद्धाचल इतना प्राचीन एवं पवित्र तीर्थ होते हुए भी इस तीर्थ की सुचारू व्यवस्था के लिये कोई सुसंगठित संस्था या पेढ़ी नहीं थी। तीर्थ के पंडे, पुजारी तीर्थ पर एकाधिकार जमाए बैठे थे। तीर्थ की सारी आय वे ही हड़प कर जाते थे। व्यवस्था की दृष्टि से वास्तव में तीर्थ की दशा बड़ो दयनीय व हृदय विदारक थी। श्रीमद् को इस बात का गहरा दुःख था और वे इसके लिये समुचित उपाय करना चाहते थे । अतः, रवंभात चातुर्मास में उन्होंने तीर्थ की समुचित व्यवस्था हेतु एक संस्था स्थापित करने का मार्मिक उपदेश दिया । आपकी प्रेरणा के फलस्वरूप उसी वर्ष एक पेढ़ी की स्थापना हुई । अनेक सामयिक परिवर्तनों से गुजरती हुई उस पेढ़ी का विकसित रूप वर्तमान की इस आनंदजी, कल्याणजी पेढ़ी को कह दिया जाय तो कोई अनुचित नहीं होगा। पेढ़ी की स्थापना के बारे में कवियरण कहते हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पच्चोस] "तीर्थ महात्म्यनी प्ररूपणा गुरुतणी, सांभले श्रावक जन्न । सिद्धाचल उपर नवनवा चैत्यनो, जीर्णोद्वार करे सुदिन्न । कारखानोतिहाँ सिद्धाचल उपरे मंडाव्यो महाजन्न । द्रव्य खरचाये अगणित गिरीउपरे, उल्लसित थयोरे तन्न । संवत् १७८१-८२ एवं ८३ में आपके सदुपदेश से गिरी राज पर विशाल पैमाने में 'जीर्णोद्धार एवं चित्रकारी का काम हुआ' कवियण के शब्दों में "संवत सतर एकासीये ब्यासीये त्रयासीये कारीगरे काम" चित्रकार सुधानां काम ते, दृषद् उज्वलतारे नाम।" यह निर्माण कार्य सिद्धाचल पर कहाँ चला था, कवियण ने इसका कुछ भी उल्लेख नहीं किया। किन्तु श्री तीर्थराज पर के शिलालेख से मालूम होता है कि यह कार्य 'खरतरवसही' में चला था। १-वर्तमान में जो आनन्दजी कल्याणजी की पेढी है उसका इतिहास इस प्रकार है । शान्तिदास सेठ के वंश में हेमा भाई हुए । इन्होंने सवा तीन लाख रुपये खर्च करके उजमबाई व नंदीश्वर ट्रॅक बनवाई और सं. १८८६ में प्रतिष्ठा कराई। उनके पुत्र प्रेमाभाई हुए। उन्होंने १६०५ में शत्रुजय का संघ निकाला और वहां मन्दिर बनवाया (जैन सा. र. पृ. ६७२) इन्हीं प्रेमा भाई के समय में आनन्दजी कल्याणजी नाम पड़ा तथा उसका विधान बना । सं. १८७४ में अहमदाबाद अंग्रेजों के शासन में पाया इस: लिये नामकरण व विधान की जरुरत पड़ी होगी। उसके पहले से पेढ़ी तो थी जिसकी स्थापना श्रीमद् के उपदेश से हुई थी । पेढ़ी की स्थापना का उल्लेख कवियण ने अपनी पुस्तक में किया है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छन्बीस] 'खरतरवसही' में दाहिनी ओर की खुली जगह में रही हुईं सिद्धचक्र शिला पर इस भांति का लेख है। "संवत् १७८३ माघ सुजी ५ सिद्धचक्र" धणपुर के रहने वाले श्रीमाली लघु शाखा के खेता की स्त्री पाणंदबाई ने अर्पण की (बनाई) बृहत् खरतरगच्छ की मुख्य शाखा में श्री जिनचन्द्रसूरिजी हुए जिनको अकबर बादशाह ने युगप्रधान पद दिया था। उनके शिष्य महोपाध्याय राजसागरजी हुए, उनके शिष्य महोपाध्याय ज्ञानधर्मजी, उनके शिष्य उपाध्याय दीपचन्द्रजी, उनके शिष्य पंडितवर देवचन्द्रजी ने प्रतिष्ठा की।" (डॉ. वूल्हर कृत ले. सं. ३४) पालीताणा से आप राजनगर पधारे सूरतसंध का अत्याग्रह होने से १७८४ कार चातुर्मास आपने सूरत में किया। उपदेश द्वारा वहाँ कईआत्माओं को धर्मप्रेमी बनाया। वहाँ से विहार कर, विभिन्न गाँव, नगरों को पावन करते हुए आप पालीताणा पधारे। वहाँ १७८५-८६ और ८७ में वधुशाह कारित चैत्यों की बड़े महोत्सव : र्वक प्रतिष्ठा की। __डॉ. वूल्हर द्वारा संगृहीत लेख नं. ३५ और ३६ से तत्कालीन प्रतिष्ठा की पुष्टि होती है। गुरू वियोग :-- पालीताणा से विहारकर आप राजनगर पधारे । यहाँ आपके गुरुदेव उपाध्याय -जिनविजयजी ने प्रा. ले. सं. भा. २ में तथा मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई ने श्रीमद् के जीवन चरित्र के वक्तव्य पृ. ६ में लिखा है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सत्ताईस ] जी श्री दीपचन्द्रमी अस्वस्थ हो गए । श्रीमद् के प्रति आपका महान् उपकार था । श्रीमद् का भी आपके प्रति अपूर्व प्रेम था । श्रीमद् ने गुरूदेव की तन-मन से खूब सेवा की । किन्तु, “परिवर्तिनी संसारे, मृतः को वा न जायते ।” जहाँ जन्म है, वहाँ मृत्यु है । जन्म और मृत्यु का यह अविनाभावी सम्बन्ध मोक्ष fafa होता है । यद्यपि श्रीमद् ने गुरूदेव की सेवा में कोई कसर नहीं रखी किन्तु मृत्यु ! अप्रतिक्रिय तत्त्व है । उसके आगे किसी का वश नहीं तथा सन्त पुरूष का तो जीना और मरना दोनों समान ही हैं, क्योंकि वे मरकर भी अपनी गुरण देह से सदा अमर रहते हैं । उपाध्यायजी भी संयम की समाराधना करते हुए संवत् १७८८ की प्राषाढ़ सुदी २ के दिन समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हो गए । आपकी अपने गुरूजनों के प्रति अगाध श्रद्धा एवं अनन्य भक्ति थीं । गुरू चरणों में आपका समर्पण अद्भुत था । अपनी समस्त रचनाओं में महोपाध्याय राजसागरजी एवं उपाध्याय दीपचन्द्रजी का नाम अंकित कर उनके नाम को भी अमर कर दिया । इस तरह अपने गुरू के ऋण को यथा शक्ति चुकाने का जो विनम्र प्रयत्न श्राप श्री ने किया वह श्लाघनीय एवं अनुकरणीय है । भण्डारी जो को प्रतिबोध अहमदाबाद के तत्कालीन सूबेदार जोधपुर निवासी श्री रत्नसिंहजी भण्डारी थे । भण्डारीजी के घनिष्ठ मित्र श्री प्राणंदरामजी श्रीमद् के पास आया-जाया करते थे एवं उनकी ज्ञानगरिमा से अत्यधिक प्रभावित थे । आणंदरामजी ने भण्डारजी के समक्ष श्रीमद् के गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उनके गुरणों से प्राकर्षित हो भण्डारीजी भी गुरूदेव के सत्संग का लाभ उठाने लगे । सन्तों की वाणी में सदाचार का प्रोज होता हैं । सत्य का जादू होता है, जिससे प्रेरित हो व्यक्ति आत्म-समुन्नति के पथ पर अग्रसर हो जाता है । सन्तों के सत्संग का बड़ा भारी महत्व है । तुलसीदास जी के शब्दों में- Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अट्ठाईस] "एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में भी प्राध । तुलसी संगत साधु की, कटै कोटि अपराध ।।" श्रीमद् के सत्संग से भण्डारीजी में धर्म की जागृति हई। नित्य जिन-पूजनादि करने लगे तथा धार्मिक कार्यों में सेवा सहयोग करते हुए सोत्साह भाग लेने लगे। शासक वर्ग को धर्म प्रेमी बनाना धार्मिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण बात है। चातुर्मास बाद विहारकर आप धोलका पधारे। वहाँ के निवासी सेठ श्री जयचन्द्रजी ने पुरुषोत्तम नामक योगी से आपका परिचय कराया। श्रीमद् ने भी उसे धर्म का सही स्वरूप बताकर जैन धर्मानुरागी बनाया। ___ यह पहले ही कहा जा चुका है कि श्रीमद् की शत्रुजय तीर्थ के प्रति अपूर्व भक्ति थी। वहाँ अपने उपदेश देकर, मन्दिर निर्माण, जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठादि के महान् कार्य किए थे। संवत् १७६५ में आप पालीताणा पधारे। इस बात को पुष्टि वहाँ के एक शिलालेख से भी होती है। “१७६४ (गुजराती) शक १६५८ असाढ़ सुदी १० रविवार (राजस्थानी संवत् १९८५) प्रोसवंश' वृद्ध शाखा नाडूल गोत्र के भण्डारी भीनाजी के पुत्र भण्डारी नारायणजी के पुत्र भण्डारी ताराचन्दजी के पुत्र भण्डारी रूपचन्दजी के पुत्र भण्डारी शिवचन्द के पुत्र हरख चन्द ने इस देवालय का जीर्णोद्धार कराया और पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा अर्पण करी। बृहत् खरतरगच्छ के जिनचन्दसूरि के विजयराज्य में महोपाध्याय राजमागरजी के शिष्य उपाध्याय दापचन्द्रजी के शिष्य पण्डित देवचन्द्र ने प्रतिष्ठा करी।" १-धीपावसी के एक देवालय के बाहर यह लेख है। डॉ. वूल्हर ने इसका नं. ३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उन्तीस ] मवानगर में नया काम :-- संवत् १७६६-६७ में आप नवानगर बिराजे । यहाँ पर आपने प्राकृत में 'विचारसार' एव 'ज्ञानसार' पर 'ज्ञानमंजरी' टीका लिखी। इसके अलावा नवानगर में धर्म प्रभावना का नया काम यह किया कि-स्थानकवासियों के प्रभाव से वहाँ के लोगों की मूर्ति पूजा के प्रति एकदम अश्रद्धा हो गई थी। फलत: मन्दिरों और मूर्तियों की हालत बड़ी खराब थी। घोर आशातना हो रही थी। यह देखकर सत्यप्रेमी श्रीमद् को बड़ा दुख हुआ । उन्होंसे पागम और युक्तियों के द्वारा स्थानकवासियों के समक्ष मूर्तिपूजा की सत्यता सिद्ध की। लोगों की मूर्ति-पूजा में श्रद्धा स्थिर हुई । और वहाँ के मन्दिरों में पुनः दर्शन पूजन आदि शुरू हुए। यहाँ परछरी के ठाकुर साहब आपके परिचय में आए और उनको प्रतिबोध देकर आपने धर्मप्रेमी बनाया। तत्पश्चात् १७६८ से १८०१ तक आप नवानगर और पालीताणा के बीच विचरण करते रहे। १८०२-३ में आप नवानगर के पास स्थित 'राणाबाव' में विराजे । अन्य लोगों से साथ गाँव का ठाकुर भी आपके प्रवचन में आने लगा। आपके त्याग का ही प्रभाव समझो कि आपके सत्संग से ठाकुर का सारा जीवन हो बदल गया। दुर्गुणों की दुर्गन्ध से भरापूरा जीवन संयम की सुगन्ध से महक उठा और वे आध्यात्मिक जीवन जीने लगे। संवत् १८०४ में आप भावनगर पधारे थे और वहाँ के महाराजा भावसिंहजी भी इसी तरह आप से प्रभावित हो मापके परमभक्त बन गये थे। १८०५-६ में पाप लींबड़ी बिराजे । इस बीच लींबड़ी-चूड़ा एवं ध्रांगध्रा में मापके सान्निध्य में बड़े महोत्सव पूर्वक जिनबिंबों की प्रतिष्ठा हुई थी।' लोंबड़ी प्रतिष्ठा के विषय में श्रीमद् स्वयं स्तवन में कहते हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तीस. ] "संवत् अठारसे साते बरणे, फागुण सुदी, बीज दिवसे रे । श्री शांति जिणेसर हरषे थाप्या, बहुमुनि शिवसुख बरसे रे ॥" ध्रांगध्रा में आपका सुखानंदजी के साथ सौहार्द पूर्ण मिलन हुआ। सुखानंद जी भी महान् आध्यात्मिक पुरूष थे, अतः श्रीमद् का उनके प्रति अच्छा आदरभाव था। संवत् १८०८ में आप पुनः पालीतारणा पधारे। तत्पश्चात् दो साल तक गुजरात के विभिन्न गांवों में विचरण करते रहे । १८१० में पुन: पालीताणा । १८११ में लींबड़ी में प्रतिष्ठा कराई । १८१२ का चातुर्मास राजनगर में किया। संघ यात्रा आपके सानिध्य में तीर्थराज शत्रुजय के तीन संघ निकलने का उल्लेख मिलता है। १. संवत् १८०४ में सूरत के संघवी शाह कचरा कीका ने शत्रुजय का संघ निकाला था, जिसका वर्णन स्वयं श्रीमद् ने अपने सिद्धाचल स्तवन में किया है । "संवत् अढ़ार चिड़ोत्तर वरसे सित मगसर तेरसीये श्री सूरत थी भक्ति हरख थी संघ सहित उल्लसीये ।।६।। कचरा कीका जिनवर भक्ति (गुणवंत) रूपचंद जीइए श्री संघ ने प्रभुजी भेटाव्या, जगपति प्रथम जिणंद ।।७।। २. आपके उपदेश से १८०८ में गुजरात से संघ निकला था। १-देवविलास और स्तवन में जो संवत् का अन्तर है, (१८०६-७) वह गुजराती और राजस्थानी संवत् के कारण है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इकतीस ] संवत् अठारने आठ में गुजराती थी काढयो संघ | श्री गुरूना गुरू उपदेश थी, शत्रुंजय नो प्रभंग || 'देवविलास' ३. संवत् १८१० में कचरा कीका ने पुनः संघ निकाला था । संवत् दश प्रष्टादशे, कचरा साहजीइं संघ । श्री शत्रु जयतीर्थ नो, साथे पधार्या देवचन्द || इस संघ की पुष्टि निम्न शिलालेख से भी होती है । " संवत् १८१० माघ सुदी १३ मंगलवार संघवी कचरा कीका वगैरह समस्त परिवार ने सुमतिनाथ प्रतिमा अर्पणकरी, सर्व सूरियों ने प्रतिष्ठा करी । विमलवसही में हाथी पोल की ओर जाते हुए दाहिनी ओर के एक देवालय में यह लेख है । सच्चे ज्ञानदाता -- श्रीमद् वस्तुतः श्रुतदेवी के सच्च े उपासक थे । उन्होंने स्वयं ज्ञानार्जन में कोई कमी न रखी तो उदारतापूर्वक ज्ञानदान देने में भी कोई कसर नहीं रखी। जैसे मेघ जल बरसाने में किसी तरह का भेद-भाव नहीं रखता वैसे श्रीमद् ने भी सम्यग्ज्ञान के दान में साधु श्रावक, समुदाय या गच्छ का कुछ भी भेद नहीं रखा था । यही कारण था कि तपागच्छ के महास्तंभ गिनेजानेवाले मुनिवरों ने अपने सुयोग्य शिष्यों को सैद्धान्तिक अध्ययन कराने के लिये आपसे सविनय विज्ञप्ति की थी । उनकी भावनाओं का प्रादर करते हुए आपने भी बड़े वात्सल्य-पूर्वक उन्हें महान् प्रागमिक ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन करवाया था । देखिये कवियरण के शब्दों में “गच्छ चौरासी मुनिवरूरे, नाका नहीं मुख थकी रे, Jain Educationa International लेवा ग्राबे विद्यादान | नय उपनय विधान रे ॥ 'देवविलास' For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बतीस ] अपर मिथ्यात्त्वी जीवड़ा रे, तेहनी विद्यानो पोस । अपूर्व शास्त्रनी वांचना रे, देतां न करें सोस रे । विद्यादान थी अधिकता रे, नहिं कोई अवरते दान । न करे प्रमाद भणावतां रे, व्यसननो नहीं तोफान ॥" कवियण के इस कथन की सत्यता अध्येता मुनिवर स्वयं अपनी कृतियों में सिद्ध करते हैं। · तपागच्छ के प्रखर विद्वान् गिने जाने वाले पण्डित जिनविजयजी, उत्तम. विजयजी एवं विवेक विजयजी ने आपके पास अनन्य श्रद्धा और भक्तिपूर्वक अध्ययन किया था। पण्डित जिनविजयजी ने आपके पास महाभाष्य का पारायण किया था, जिसका वर्णन श्री उत्तमविजयजी ने 'श्री जिनविजय निर्वाण रास' में बड़े प्रादरपूर्वक किया है 'खिमाविजय गुरू कहण थी, पाटण मां गुरू पास । स्व. पर समय अवलोकतां, कीधा बहु चौमास ॥ श्री ठाकुरशी कने पढया, शब्द शास्त्र सुखवास । 'ज्ञानविमलसूरि' कने, वांची 'भगवतो' खास ॥ 'महाभाष्य' अमृत लह्यो, 'देवचंद' गणि पास । (जैन रासमाला पृष्ठ १४५ तथा दे० गी० पृ० (२३) . श्री बमविजयजी ने आपके पास अध्ययन किया, उसका वर्णन पद्मविजयजी कृत श्री इसम विजय निर्माण रास में इस भांति है बसर गच्छ मां ही थयारे लोल, नामे श्री देवचंद रे सौभागी जैन सिद्धान्त शिरोमणी रे लोल, धैर्यादिक गुणवृन्द रे सौभागी . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तेनीस ] ते गुरूनी वाणी सुणी हरख्यो चित कुमार । निरधार ॥ ज्ञान अभ्यास करू हवे, तुम पासे इंगित आकारे करी, जारणी ते कीधो तेनो छात्र ॥ सुपात्र । ज्ञान अभ्यास कराववा श्री उत्तम विजयजी ने श्रीमद् के पास भगवती सूत्र का अध्ययन किया तथा सर्व ग्रागमों की अनुज्ञा भो उनमे प्राप्त की थी । देखिये इसे पद्म विजयजी के शब्दों में भावनगर प्रादेशे रह्या, ते डाव्या देवचन्द्रजी ने, भविहित करे मारालाल । हवे श्रादरे मारालाल । वांचे श्री देवचन्द्रजी पासे, भगवती मारा लाल । देवचन्द्रजी मारालाल । सर्व आगमनी प्रज्ञा दीधी, जागी योग्य तथा गुरण गरगना वृन्दजी मारा लाल । (जै. रा. मा. श्री उत्तम विजयजी निर्वाण रास पृ० १६३ । श्रीमद् और उनके विद्यार्थियों के बीच वात्सल्यमूर्ति गुरू और कृपाकांक्षी शिष्य के संबंध थे । विवेकविजय जी ने श्रीमद् के पास अध्ययन किया था, इसका वर्णन करते हुए कवियरण कहते हैं । 'तपगच्छ मांहे विनीत विचक्षण श्री विवेकविजय मुनीद्र । भगवा उद्यम करता विनयी घणु उद्यमे भरावे देवचन्द्र ।। गुरूसदृश मन जाणे 'विवेकजी' खिदमत में निसदिन्न । विनयादिक गुरण श्री गुरू देखीने, विवेकजी उपर मन्न ॥ धन्य है, उन विद्यादाता गुरू को और धन्य है उन भाग्यशाली मुनिवरों को जिन्होंने गच्छ भेद को नगण्यकर श्रुतदेवी के सच्चे उप मक होने का परिचय दिया श्रीमद् का यह अपूर्व विद्यादान यदि इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाये तो मानसमर्पित उन मुनिवरों का नामोल्लेख भी उतने ही ग्रादरपूर्वक होना चाहिये; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौतीस ] जिन्होंने धर्मसागरजी द्वारा फैलाये हुए विद्वेष के वातावरण में भी निर्भय होकर आपके पास अध्ययन किया। इतना ही नहीं उस प्रसंग को अविस्मरणीय बनाने के लिये बड़े आदरपूर्वक अपनी कृतियों में उसका उल्लेखकर एक महान् आदर्श प्रस्तुत किया । आपका ज्ञानदान साधूनों तक ही सीमित नहीं था। वे आत्मार्थी गहस्थों को भी ज्ञानदान देने में सदा तत्पर रहते थे। अहमदाबाद में पूजाशा नामक एक सद्गृहस्थ थे। श्रीमद् उन्हें बड़े प्रेमपूर्वक शास्त्राभ्यास करवाते थे। बाद में इन्हीं पूजाशा ने जिनविजयजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। धन्य हैं, उन निस्पृह शिरोमरिण सन्त को जिन्होंने प्रेम से विद्यादान तो दिया किन्तु कभी भी किसी को अपना शिष्य बनने की प्रेरणा नहीं दी। यह कोई सामान्यबात नहीं है। शिष्य परिवार बढ़ाने के लिये क्या नहीं किया जाता है। किन्तु सच्चे प्रात्मार्थी तो पुत्र-पुत्री की तरह उनका भी मोह त्यागते हैं। सच्चा माग अवश्य दिखा देते हैं । श्रीमद् की निस्पृहता प्राज के लिये महान् प्रादर्शरूप हैं। इसके अलावा लींबड़ी निवासी शाह डोसा बोहरा, शाह धारसी जयचन्दजी को भी आपने अध्ययन करवाया था। इतना ही नहीं ज्ञानाभिलाषियों की सुविधा के लिये तत्वज्ञान की गूढ़बातों को बड़ी सरल भाषा और शैली में रचकर सर्वयोग्य बनाने का प्रयत्न किया था। प्रागमसार, विचाररत्नसार. ध्यानदीपिका चतुष्पदी, अष्टप्रवचनमाता, पंचभावना ग्रादि की सज्झाये इसी का उदाहरण है। उदार एवं समभावो श्रीमद जैन धर्म के अनेकान्त सिद्धान्त के अनुसार आपकी दृष्टि बहुमुखी एवं विशाल थी। सकीर्णता एवं हठाग्रह से आप सदा दूर ही रहे । आप बड़े उदारचेता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पैंतोस ] और गुणग्राही थे। अापने श्वेताम्बर ग्रन्थों के साथ साथ दिगम्बर ग्रंथों का भी अध्ययन किया। विद्वान दिगम्बर प्राचार्यों को स्तुतियाँ की । अन्य गच्छ के प्राचार्यों व मुनियों के भी स्वरचित ग्रंथों में गुणगान गाए, उनकी स्तुतियां बनाई। श्रीमद् खरतरगच्छ के थे। वे खरतर गच्छ की समाचारी की पालना करते थे पर आप सभी गच्छबालों का आदर और सम्मान करते थे। आपने अपने रचित ग्रंथों में कभी भी अन्य गच्छों का निदा या ग्रालोचना नहीं की। यद्यपि उस समय तपगच्छ के मुनि धर्म सागरजो ' द्वारा लिखित ग्रंथ (जिसमें सभी गच्छों की कट मालोचना व निन्दा की गई थी) के कारण सभी गच्छों में रोष व अाक्रोष का उभार १-पाटन में तपगच्छ के महान् प्राचार्य विजयदान सूरिजी व प्राचार्य श्री विजय हीरसूरि सहित सभी गच्छ के प्राचार्यों ने मिल कर मुनि धर्म सागरजी को उनके इस मिथ्या प्रलापी, कलहपूर्गा घासलेटी रचना के कारण संघ से बाहर कर दिया था। साथ ही उनके इस ग्रथ को सर्व सम्मति से जल शरण करने का ठहगव किया और भविष्य में इस ग्रंथ को कोई प्रकाश में न लाए ऐसा स्पष्ट निर्देश दिया। हमें लिखते हए अत्यन्त खेद होता है कि जिन समयज्ञ व गीतार्थ महापुरूषों ने सर्व सम्मति से धर्म सागरजी रचित ग्रन्थ को जल शरण किया था। प्राज उस समय कहीं छिपाकर रखे गये उसी ग्रंथ का महारा लेकर कुछ कलह प्रिय नाम धारी माधु उसके कुछ अंशों का यदा-कदा प्रकाशित करने की कुचेष्टा करते है । निस्संदेह यह उन गीतार्थ पुरूषों का अपमान व अनादर है। साथ ही यह उनके संकुचित व प्रोछे विचारों का परिचायक है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीस ] आया हुआ था, घर घर में विद्वेष पूण एव कटुता युक्त वातावरण छाया हुआ था तथापि इतना सब कुछ होते हुए भी श्रीमद् ने अपने रचित ग्रथों में एक भी शब्द किसी भी गच्छ के विरूद्ध नहीं लिखा और नहीं कुछ बोले जबकि स्वयं तपगच्छ के ही यशोविजयजी उपाध्याय ने धर्म सागराश्रित प्रागम विरूद्ध अष्टोत्तर शत बोल संग्रह, धर्म परीक्षा व उसकी टीका तथा प्रतिमा शतक में धर्म सागरजी की मान्यताओं का खुलकर खंडन किया है। __जहाँ धर्मसागरजी अन्यगच्छों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को अपूज्य ठहराते थे, वहां ये आत्मज्ञानी महापुरुष अन्यगच्छों के प्राचार्यों एवं मुनिवरों की स्तवना करते हुए उनकी रचनात्रों का अनुवाद करते हैं। उपाध्याय यशाविजयजी कृत 'ज्ञानसार ग्रन्थ' पर आपकी 'ज्ञानमंजरी' टीका एवं देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थों पर आपका टब्बा इसका ज्वलन्त उदाहरण है । गच्छवाद तो दूर रहा, किन्तु वे श्वेताम्बर-दिगम्बर के भेदभाव से भी दूर थे। जैसे उन्होंने हरिभद्रसूरिजी एवं यशाविजयजी आदि श्वेताम्बर प्राचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन किया, वैसे गोम्मटसारादि दिगम्बरीय ग्रन्थों का भी आदरपूर्वक अध्ययन किया। इतना ही नहीं आपने दिगम्बरीय शुभचन्द्रजीकृत ज्ञानार्णव के आधार पर 'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी' ग्रन्थ की महत्वपूर्ण रचना की। इस ग्रन्थ में आपने कई दिगम्बराचार्यों की भाव-पूर्वक स्तुतियां की हैं। वस्तुत: इसो उदारदृष्टि के कारण आप सभी गच्छवालों के पूज्य हैं । इन सब बातों से सिद्ध होता है कि श्रीमद् उच्चकोटि के प्राध्यात्मिक महापुरुष थे। 'खरतरगच्छजिनाणारंगी' इत्यादि शब्दों से अपने गच्छ की समाचारी को प्रागमानुसारी कहते हुए भी आपने दूसरों की कभी निन्दा नहीं की। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सैंतीस ] आपके ग्रन्थ समभाव, सम्यकत्व, श्रद्धा को मजबूत करते हुए शुद्ध आत्मदशा का भान कराते हैं । यही कारण है कि श्रीमद् अपने सद् विचारों के कारण सर्वत्र व्याप्त हैं । श्रीमद् की महान् प्राध्यात्मिकता का एक प्रमाण यह भी है कि तथाकथित अध्यात्मवादियों की तरह उन्होंने अमुक क्रिया या मान्यता में ही मुक्ति नहीं मानी । मुक्ति के लिये हमेशा 'समभाव' की आवश्यकता पर बल दिया। ऐसे महात्मा यदि सभी जैनों के प्रिय बनें, तो कोई आश्चर्य नहीं है । उनके ग्रन्थ का एक एक शब्द उनका प्राध्यात्मिकता, उदारता, उच्चप्रात्मदशा एवं योगनिष्ठा का साक्षी है। शुद्ध आत्मज्ञान के विषय में इतने सारे ग्रन्थों के रूप में जैनसमाज को जो अमूल्य भेंट आपने दी, उसके लिये समाज सदा-सर्वदा आपका ऋणी रहेगा । पुण्य प्रभाव धम्मो मंगल मुक्किट्ट, अहिंसा संजमो तवो । देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ।। जिस के हृदय में हिंसा संयम और तप रूप धर्म की वास्तविक प्रतिष्ठा हो जाती है उनके सामने स्वयं देवता झुक जाते हैं । उनकीं वारणो में, उनके वर्त्तन में स्वयं चमत्कार ( Miracles) प्रगट हो जाते हैं । सतत आत्म साधना के फलस्वरूप उनके जीवन में स्वतः कुछ अलौकिक शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं । श्रीमद् के जीवन में भी उनके उत्कृष्ट त्याग, संयम, ब्रह्मचर्य एवं सतत आत्म-साधना के पुण्य प्रभाव से कुछ अलौकिक शक्तियाँ, असाधारण साहस एवं अपूर्व वैराग्यभाव प्रकट हो गया था । साधारण लोगों की भाषा में भले उन्हें चमत्कार मानलें, किन्तु वास्तव में वे उनकी उच्च आत्मदशा के ही पुण्यप्रभाव सूचक हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अड़तीस ] १-संयम लेने के बाद लघुवय में हो अापके उच्च प्राध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ हो गया था। एक दिन का प्रसंग है कि श्रीमद् कायोत्सर्ग-ध्यान में लीन थे और एक साँप आपके शरीर पर चढ़ने लगा। साथी मुनिराज घबराने लगे किन्तु आप जरा भी विचलित नहीं हुए। जब काउस्सग्ग पूर्ण हुआ, सर्प शरीर पर से उतरकर सामने बैठ गया। आपने उसे बड़े मधुर शब्दों में 'समभाव' का उपदेश दिया । साँप ने भी अपने फणों को इस प्रकार हिलाया कि मानो समतारस के पान से झूम उठा हो। यह घटना श्रीमद् की सच्ची निर्भयदशा की सूचक है। २-पाप पंजाब में विचरण कर रहे थे। एक दिन की बात है कि आपको पर्वत के निकटवर्ती रास्ते से गुजरना था। किन्तु उस रास्ते पर सिंह का बड़ा आतंक था, अतः लोगों ने प्रापको उधर जाने से रोका। किन्तु आप कब रुकने वाले थे। आप तो सर्व मैत्री की मंगलभावना को लेकर निर्भयतापूर्वक आगे बढ़ते ही गये। जैसे ही आप सिंह के नजदीक पहुँचे कि वह गुर्रा कर उठा किन्तु श्रीमद् की नजर से नजर मिलते ही एकदम शान्त हो गया। लोगों के समझ में आ गया कि 'अहिं सायां प्रतिष्ठायों तत्सन्निछौ वैरत्यागः यह सत्य है। ३-संवत् १७८८ में राजनगर (अहमदाबाद) में, महामारी का भयंकर उपद्रव हुमा था। प्रतिदिन सैंकड़ों लोग मर रहे थे। सूबेदार रत्नसिंहजी भण्डारी एवं महाजनों से नहीं रहा गया उन्होंने उसे शान्त करने की आपसे वीनती की। आपने भी लाभ जानकर अपनी आत्मिक शक्ति से उस उपद्रव को शान्त किया। ४-संवत् १७६३ में मराठा सरदार दामजी के सेनापति रणकूजी ने विशालसैन्य के साथ अचानक गुजरात पर आक्रमण कर दिया। इससे भण्डारीजी को बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने अपनी चिन्ता श्रीमद् के सामने व्यक्त की। श्रीमद् ने मन्त्रपूत वासक्षेप पूर्वक भण्डारी जी को शुभाशीर्वाद दिया । फलतः अल्पसैन्य होते हुए भी भंडारीजी युद्ध में विजयी बने । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उन्तालीस ] ५ - जामनगर में एक जैन मन्दिर को मुसलमानों ने जबर्दस्ती से मस्जिद बना लिया था । मूर्तियों को अवसरज्ञ श्रावकों ने समयसर भूमिस्थ कर दिया था। मुसलमानों का जोर हटने पर श्रावकों ने राजा से मन्दिर पुनः उन्हें दिलवाने की प्रार्थना की किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला । सौभाग्य से आप वहाँ पधार गये । श्रावकों ने श्रीमद् के सामने यह चर्चा की । श्रीमद् ने वहाँ के राजा से कहा किन्तु बिना चमत्कार कोई नमस्कार नहीं करता। राजा ने शर्त रखी कि मन्दिर के ताला लगा दिया जायगा । जिसके इष्ट के नाम के प्रभाव से ताला खुल जायगा, उसी को यह मिल जायगा । पहिला मौका मुसलमान फकीरों को दिया गया, किन्तु ताला नहीं खुला । अन्त में जब श्रीमद् की बारी आई और उन्होंने ज्यों ही परमात्मा की स्तुति बोली कि ताला झट से टूट कर गिर गया । सर्वत्र जैनधर्म एवं श्रीमद् की महती प्रशंसा हुई । आत्मा की अनंतशक्ति को जागृत करने वाले महापुरुष क्या नहीं कर सकते ? ६ - योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरिजी ने 'श्रीमद् देवचन्द्र भाग - २ की प्रस्तावना में लिखा है कि एकदा राजस्थान में संघ - जीमरण के प्रसंग में, गौतमस्वामी के ध्यान के प्रभाव से प्रापने एक हजार व्यक्तियों की रसोई में प्राठ हजार व्यक्तियों को खाना खिलाया था । वस्तुतः संयमी महात्मा जादूगरों की तरह अपनी शक्तियों का जहाँ तहां प्रदर्शन नहीं करते न उन्हें उन शक्तियों का कोई मोह ही होता है। शुद्धात्मदशा के सिवाय जगत् की सारी वस्तुयें उनके लिये तुच्छ हैं । करुणा भावना से प्रेरित हो संघ शासन के लाभ के लिये कभी कभी वे अपनी शक्तियों का परिचय दे देते हैं । अन्यथा नहीं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चालीस उपाध्यायपद और स्वर्गवास संवत् १८१२ (गुजराती मं० १८१२) में आप राजनगर पधारे। आपकी विद्वता, संयमशीलता एवं प्रभावकता आदि गुणों से आकर्षित हो गच्छनायक श्री जिनलाभसुरिजी ने आपको बहुमानपूर्वक 'उपाध्यायपद' दिया। वस्तुतः श्रीमद् जैसे ज्ञान-समर्पित, ज्ञानरसलीन महापुरुषों के कारण ही उपाध्यायपद की गरिमा अक्षुण्ण है। वहां के श्रावकों ने बड़े ठाट से आपका पद महोत्सव किया। इस वर्ष का आपका चातुर्मास संघ के प्राग्रह से अहमदाबाद में ही हुआ। आप दोसोवाड़ा की पोल में बिराजे थे। आपकी भव्य देशना सुनकर सैंकड़ों लोग धर्मप्रेमी एवं अध्यात्मप्रेमी बने थे। श्रीमद् केवल वाचिक आत्मज्ञानी नहीं थे, किन्तु शास्त्राध्ययन, परमात्मभक्ति, गुरुसेवा एवं उत्कृष्ट संयमपालन द्वारा उनमें आत्मज्ञान की परिणति हुई थी। विषय राग बिल्कुल खत्म ह गया था। फलतः उन्हें साधुदशा के सच्चे आनन्द का अनुभव हुआ था। वे केवल शुष्कज्ञानी ही नहीं थे किन्तु ज्ञान और क्रिया के अद्भुत संगम थे। शुद्धज्ञान और निश्चयानुलक्षी व्यवहार द्वारा अन्तर और बाह्यजीवन दोनों का पूर्ण विकास करते हुए उन्होंने अपने आपको कृतकृत्य बनाया था। उनके जीवन में किसी भी प्रकार का कदाग्रह नहीं था, बस 'सच्चा सो मेरा' यही आपका जीवन-सूत्र था। यही कारण था कि स्वगच्छ और परगच्छ दोनों में आपका असीम आदर और सम्मान था । अाज भी आपके ग्रंथों को अध्यात्मप्रेमी प्रात्मा बड़े आदर और प्रेम से पढ़ते हैं, उनका चिन्तन और मनन करते हैं। ऐसे महापुरुषों की संघ, शासन और समाज को सदा ही आवश्यकता हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इक्तालीस ] एक दिन अचानक आपके शरीर में वायु का प्रकोप हो गया। वमन गैरह होने लगे। धीरे धीरे व्याधि बढ़ती गई। किन्तु शुद्धोपयोग में रमण करने ले उन महापुरुष को मानसिक कोई असमाधि नहीं थी। 'सर्वअनित्यम्' का रन्तर चिन्तन करने वाले उन आत्मज्ञानी सन्त को शरीर का मोह या मृत्यु का य लेशमात्र भी नहीं था। जिसने अपने जीवन के पचपन पचपन वर्ष, ज्ञानोपयोग, त्मिध्यान, चारित्रपालन देव-गुरु की भक्ति एवं आत्मसमाधि में बिताये हों नका समाधिमरण हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। श्रीमद् को अपनी मृत्यु का वाभास हो गया था अतः सर्वं संग-परिग्रह एवं बाह्य प्रवृत्तिों का सर्वथा त्यागकर त्मिध्यान में मग्न हो गये अरिहंते शरणं पवज्जामि............ सिद्धे शरणं पवज्जामि........... साहू शरणं पवज्जामि............ केवलोपन्नत्तं धम्मं शरणं पवज्जामि............ इन चार-शरण को स्वीकार करते हुए जगत् जीवों के साथ भावपूर्वक मा-याचमा करते हुए संवत् १८१२ (गुजराती संवत् १८११) की भादवा वदी ३० की रात में समाधिपूर्वक इस नश्वर शरीर का त्याग कर सद्गति के भागी बने । आपके स्वर्गवास के समाचार सुनकर देशभर की जैन समाज को बड़ा दुख हुआ केन्तु “जन्म के साथ मृत्यु लगी हुई है" यह सोचकर सभी को शान्ति रखनी पड़ी। सभी गच्छ के श्रावकों ने मिलकर बड़े उत्सवपूर्वक किन्तु दुखी हृदय से मापके पवित्र देह का अग्नि संस्कार किया जैसा कि कवियण ने कहा है मोटे आडंबरे मांडवी, चौरासी गच्छ ना हो श्रावक मल्या वृन्द । अगरचंद ने काष्ठेभली, चिता रचिता हो महाजन मुखवंद ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बयालीस ] श्रीमद् के प्रत्यक्ष दर्शन एवं उनके पवित्र चरणों के स्पर्श का सौभाग्य क्रूरकाल ने छीन लिया था अतः श्रावक संघ ने अपनी सान्त्वना एवं गुरुभक्ति के लिये एक स्तूप बनाकर प्रतीकरूप आपकी चरणपादुकाओं की उसमें स्थापना की थी। अभी यह चरण पादुका अहमदाबाद के हरीपुरे के मन्दिर के सामने उपाश्रय के मकान में है। उस पर यह लेख है। 'श्री जिनचन्द्र सूरि शाखायां खरतरगच्छे संवत् १८१२ वर्षे माह वदी ६ दिने उपाध्याय श्री दीपचन्द्रजी शिष्य उपाध्याय श्री देवचन्द्रजीनां पादुके प्रतिष्ठिते ।" श्रीमद् ने अन्तिम समय अपने शिष्यों को जो उपदेश दिया वह मार्मिक होने के साथ ही इस बात का परिचायक है कि- वे निरे अध्यात्मिक ही नहीं थे किन्तु अपने आश्रितों के प्रति उन्हें अपने गुरुपद का पूर्ण कर्त्तव्यबोध भी था। 'पग प्रमाणे सोडि ताणज्यो, श्री संघनी हो धरज्यो तमे प्राण। वहिज्यो सूरिजी नी आज्ञा, सूत्र शास्त्रे हो तुमे धरज्यो ज्ञान । अपने आश्रितों के भावी के प्रति वे कितने जागरूक थे। इन पंक्तियों के चिन्तन और मनन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आप संघ और गुरु दोनों की आज्ञा को बड़ा महत्व देते थे। जहाँ आपने शिष्यों को शास्त्राज्ञा के वफादार रहने की बात कही वहाँ देश, काल और भाव को भी महत्व देने की शिक्षा दी। अपने शिष्य प्रशिष्य परिवार के संयम जीवन के निर्वाह का उत्तरदायित्व अपने बड़े एवं सुयोग्य शिष्य मनरूपजी को सौंपते हुए आपने जो हृदयस्पर्शी वात्सल्यपूर्ण उद्गार निकाले वे अत्यन्त श्लाघनीय हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सैयालीस ] "तुम समरथ छो मुझ पूठे, मुझ चिंता हो नास्ति लवलेश । सपरिवार ए ताहरे खोले छे, हो मूक्या सुविशेष ।। सकल शिष्य भेला करी, गुरुजीये हो सहुने थाप्यो हाथ । प्रयाण अवस्था अम तरणी, वाणी केहवी हो जेहवो गंगापाथ ॥ यदि आज का साधु समुदाय श्रीमद् के अन्तिम उपदेश की ओर जरा भी ध्यान दें तो आज संघ व शासन में अहंभाव और ममत्वभाव का जो विष घुल रहा है, वह घुलना बन्द हो जाय और सर्वत्र समभाव प्रतिष्ठित हो जाय। श्रीमद् का शिष्य-परिवार : ___ आत्मज्ञानी संतों को शिष्यों का भी मोह नहीं होता। उनको दशा के योग्य कोई प्रात्मा मिल जाय तो वे उसकी संयम-साधना में अवश्य सहायक बन जाते हैं। श्रीमद् के मनरूपजी और विजयचन्दजी नामक दो शिष्य थे। दोनों ही सुयोग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य थे। मनरूपजी बड़े ही विद्वान विचक्षण एवं संयमी थे। विजयचन्द्रजो ताकिक एवं वादीविजेता थे। मनरूपजी के वक्तुजा और रामचन्द्रजी तथा विजयचन्द्रजी के रूपचन्द्रजी एवं सभाचन्दजी नामक दो-दो शिष्य थे। मनरूपजी तो श्रीमद् के स्वर्गवास के थोड़े दिन बाद ही स्वर्गवासी हो गये थे। मानो गुरुभक्त शिष्य अपने गुरु के वियोग को अधिक दिन तक सह न पाये हों, और शीघ्र ही गुरु से मिलने चले गये हों। मनरूपजी के पीछे उनके द्वितीय शिष्य रायचन्द्रजी भी अच्छे वक्ता और संयमो थे इससे अधिक आपके शिष्य-परिवार के विषय में कोई वर्णन नहीं मिलता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौवालोस ] हाँ, श्रीमद् के द्वारा प्रतिबोधित श्रावक-शिष्यों की संख्या अवश्य विपुल रही होगी, यह उनके ग्रन्थों के निर्माण, प्रचार, संरक्षण, संघ प्रतिष्ठादि कार्यो से स्पष्ट है। आपके भक्त श्रावकों ने आपके द्वारा रचित 'अध्यात्मगीता' को 'स्वर्णाक्षरों में लिखाया था। आपके भक्त श्रावकों में कई श्रावक सिद्धांतों के ज्ञाता, श्रोता एवं अध्यात्मप्रेमी थे। + + साहित्य-सृजन : श्रीमद् केवल विद्वान ही नहीं थे, किन्तु सफल साहित्य सष्टा भी थे अनेक विषयों का पहिले उन्होंने स्वयं गम्भीर अध्ययन किया, बाद में स्वतंत्रचिन्तन-मनन द्वारा उन विचारों को चिरंजीवी अक्षर-देह देकर सवभोग्य बनाया। आपके द्वारा रचित प्रसिद्ध एवं अप्रसिद्ध कृतियों की संख्या विशाल हैं। आपने गद्य और पद्य दोनों में लिखा। भाषा की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी एवं गुजराती में लिखा। कहीं कहीं व्रजभाषा व मराठी का पुट भी उल्लेखनीय है। गद्य और पद्य विभाजन के अनुसार आपकी कृतियां निम्न हैं । गद्य-कृतियाँ १. प्रागमसार यह ग्रन्थ जैनागमों का दोहन रूप (निचोड़) है। जैन दशन के मुख्य मुख्य तत्वो को चुनकर इस ग्रन्थ में उनका सरल एवं स्पष्टभाषा में रहस्योद्घाटन किया हैं। षड़ द्रव्य, पाठपक्ष, सातनय, चारनिक्षेप, चार प्रमाण, सप्तभंगी, गुगणास्थानक इत्यादि १७ विषयों पर बड़ी गंभीरता से इसमें विचार किया है। यह ग्रन्थ जैन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पैंतालीस ] पाज में अत्यन्त लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध है। इसकी महत्ता को जानने के लिये निा कहना ही पर्याप्त होगा कि-स्वर्गीय योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर रि जी ने दीक्षा लेने से पहिले सौबार इस ग्रन्थ का अध्ययन किया था। ... प्राचीन प्रतियों के अनुसार प्रतिमा-पूजा, पुष्पपूजासिद्धि, गुणस्थानक रूप और पापस्थानकस्वरूप ये चार विषय आगमसार के ही अन्तर्गत हैं। तमापूजा और पुष्पपूजा को आगमों के पाठ देकर सिद्ध किया है । इस ग्रन्थ की रचना संवत १७७६ की फा०सु० ३ के दिन 'मरोट शहर' में थी। • नयचक्रसार: किसी वचन को समझने के लिये प्रथम यह जानना आवश्यक है कि 'वह स अपेक्षा से कहा गया है।' अपेक्षा को जानने के बाद ही हम उस कथन को ही रूप में समझ सकते हैं। यह कार्य नय का है। नयज्ञान के द्वारा षड्दर्शन के रस्पर विरोधी मन्तव्यों को भी अपेक्षाभेद से सत्य समझने की दृष्टि प्राप्त होती हैं। शिनिक भूमिका पर विरोधी विचारों के बीच समन्वय और समभाव रखते हुए त्य की सर्वोच्च भूमिका पर बुद्धि को पहुंचाने का कार्य नयों का है। अतः नयों ज्ञान अत्यावश्यक है। इस ग्रन्थ में श्रीमद् ने नयों के स्वरूप को यथाशक्य रलता से समझाने का प्रयत्न किया है। इस ग्रन्थ की रचना आपने श्रा लवादीकृत 'द्वादशसारनयचक्र' के आधार पर की है। जैसा कि 'नयचक्र सार' । उपसंहार में आपने स्वयं कहा है। "द्वादशसारनयचक्र' छे, मल्लवादीकृत वृद्ध, सप्तशती नयवाचना, कीधी तिहां प्रसिद्ध । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छियालीस ] अल्पमत्तिना वित्त में, नावे ते विस्तार । मुख्य स्थूल नयभेदनो, भाष्यो अल्प विचार ।।" श्रीमद् के ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका ध्येय 'पांडित्य प्रदर्शन' का कभी नहीं रहा, किन्तु साधारण व्यक्ति भी तत्वज्ञानद्वारा अपना आत्म कल्याण कर सके यही एक तमन्ना रही। अतः मल्लवादी कृत 'द्वादशसारनयचक्र' में विस्तारपूर्वक सात सौ नयों का वर्णन होते हुए भी श्रीमद् ने अपने 'नयचक्र' में अल्प बुद्धि वाले भी सरलता से समझ सके इसके लिये नय के मुख्य मुख्य भेदों पर ही विचार किया है। इसके अलावा इस ग्रन्थ में गुणस्थानगत जीवों के भेद, द्रव्यगुण पर्यायलक्षण, पंचास्तिकाय का स्वरूप, सप्तभंगी, सामान्य-विशेष स्वभाव के लक्षण. आदि विषयों का भी अच्छा वर्णन है। ३. विचारसार-टीका:-- 'विचारसार' मूल ग्रंथ प्राकृत गाथा बद्ध है। इस ग्रन्थ के दो भाग हैं(१) गुणस्थानाधिकार और (२) मार्गणाधिकार । (१) गुणस्थानाधिकार--यह एक सौ सात श्लोक में पूर्ण होता है। इस अधिकार में गुणस्थानों के सम्बंध में छियानवे (९६) द्वारों को अवतारणा करते हए, बंधस्थान, उदयस्थान, उदीरणास्थान, मूलबंध, उत्तर-बंध, योग, उपयोग, लेश्या, भाव, समुद्घात ध्यान, जीवयोनि, कुलकोटि, पाश्रव, संवर, निर्जरा आदि का सचोट शास्त्रीय एवं विशद वर्णन किया है। मार्गणाधिकार-यह दौ सौ तेरह श्लोकों में पूर्ण है। इस अधिकार में बासठ मार्गणास्थानों का वर्णन करते हुए उनमें बंध उदय उदीरणा प्रादि द्वारों की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सैंतालीस ] सांगोपांग रचना की है। साथ ही कर्मप्रकृतियों के बंधादि -भागों की विधि एवं भागों का विस्तृत वर्णन है । पूरे ग्रन्थ पर उन्होंने स्वयं संस्कृत में सुन्दर एवं सुबोध टीका लिखी है । यह ग्रन्थ भगवती, प्रज्ञापना, कम्मपयड़ी, भाष्य, जिनवल्लभ सूरि कृत कर्मग्रन्थ एवं देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थ में श्राये हुए तत् तत् संबंधी सभी विषयों का एक स्थानीय संग्रह है । टीका में स्थान स्थान पर दिये गये आगम पाठ एवं भाष्य की गाथाये आपके विशद आगमज्ञान की परिचायक है । व्यावहारिक दृष्टान्त एवं यन्त्रादि देकर इस ग्रन्थ को सरल से सरल बनाने का प्रयत्न किया गया है। मार्गणाधिकार २०६ • श्लोक की टीका में श्रीमद् ने भगवान् महावीर से लेकर अपने गुरू तक की परम्परा का सक्षेप में वर्णन दिया है। इस ग्रन्थ की पूर्णता संवत् १७६६ की कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को जामनगर में हुई। इस ग्रन्थ का निर्माण राधनपुरवामी aaf शांतिदास की प्रार्थना से हुआ । कर्मसाहित्य के अभ्यासियों को सटीक इस ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये। क्योंकि इससे सरलता से विशद बोध हो सकता है जैसा कि श्रीमद् ने स्वयं इसके अन्त में कहा है । जिरण सासरण समयन्नू भवंति गुणगाहिरो य सर्व्वसिं पढति सुगंति अ, लंभंति नारणलद्वीपो ॥२११॥ अन्त में स्वाध्याय से परंपरया मोक्ष फल की सिद्धि बताते हुए 'तत्त्वज्ञान का बार बार अभ्यास करना चाहिये इस प्रेरणा के साथ आपने ग्रन्थ - टीका का समापन किया है। यद्यपि श्रीमद् के सभी ग्रन्थ तत्त्वज्ञान मे भरपूर हैं तथापि आगमसार नयचक्रसार और विचारसार- ये तीन ग्रन्थ तो तत्त्वज्ञान के उत्कृष्ट नमूने हैं । इन ग्रन्थों का गंभीरता से अध्ययन करने वाला सुगमता से आगमों में प्रवेश कर सकता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अड़तालीस है। वैसे तो ज्ञानसागर का कोई पार नहीं है, किन्तु उसमें प्रवेश पाने के लिये ये तीन ग्रन्थ अति उपयोगी हैं। ४. विचाररत्नसार: यह ग्रन्थ “यथानाम तथा गुण" है। इस ग्रन्थ में ३२२ प्रश्नोत्तरों के रूप में अमूल्य विचार-रत्नों का संग्रह है। प्रश्नों के उत्तर यथाशक्य सरल, शास्त्रीय एवं अनुभव ज्ञान से भरपूर हैं। खंडन-मंडन के उस युग में गच्छीय मान्यताओं के विवादग्रस्त प्रश्नोत्तरों से दूर रहकर विशुद्ध आत्मज्ञान और तत्व ज्ञान संबंधी साहित्य की रचना, श्रीमद् की महान् अध्यात्मनिष्ठा एवं उच्च मनोवृति की सूचक है । प्राकृत संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी इस ग्रन्थ की भाषा में रचना, जन साधारण के लिये आपकी हितदृष्टि की परिचायक है। वस्तुत: इस ग्रन्थ का अध्ययन करने वाला तत्वज्ञानी महासागर के अमूल्य रत्नों का कुछ भागी अवश्य बनता है। ५. छटक प्रश्नोत्तर-- विचार रत्नसार में तो श्रीमद् ने स्वयं हो प्रश्न उठाकर उसका उत्तर दिया है । किन्तु इस ग्रन्थ में, राधनपुर, थराद् एवं जामनगर के भंसाली आदि तत्वजिज्ञासु श्रावकों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर हैं। ये प्रश्नोत्तर विस्तृत एवं स्थान स्थान पर शास्त्रीय पाठों और साक्षियों से भरपूर हैं । दोनों ही 'प्रश्नोत्तर' आगम ज्योतिष, परंपरा, एवं विधि, आदि अनेक विषयों से संबंधित हैं। ६. ज्ञान मंजरी-- यह सत्तरहवीं सदी के प्रकाण्ड विद्वान् उपाध्याय श्री यशोविजयजी के सुप्रसिद्ध ग्रन्य पर ज्ञानसार पर श्रीमद् द्वारा रचित संस्कृत भाषामय अपूर्व टीका हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उनचास ) मदि ज्ञानसार उपाध्याय यशोविजयजी के प्रौढ प्राध्यात्मिक ज्ञानरस का अमृतकुण्ड है तो ज्ञानमंजरी उपाध्याय देवचन्द्रजी के परिपक्व आध्यात्मिक जीवनरस की बहती हुई सरिता है । ज्ञानसार और ज्ञानमंजरी का सुमेल वस्तुतः सोने में सुगन्ध जैसा है ज्ञानसार पर टीका रचकर श्रीमद् ने वास्तव में ग्रन्थ की महत्ता एवं उपयोगिता को बढ़ाया है । टीका सर्वत्र उपाध्यायजी के भावों का अनुगमन करती हैं। कहीं कहीं श्रीमद् ने अपने स्वतन्त्र चिन्तन द्वारा उनके भावों को पुष्ट करने का भी प्रयास किया है। जहाँ, तहाँ प्रयुक्त विषयसंबंध सूक्तियाँ एवं दृष्टान्त विषय को और अधिक स्पष्ट कर देते हैं । ज्ञानसार और ज्ञानमंजरी को पढ़ते पढ़ते जो आत्मिक आनन्द का अनुभव होता है वह अवर्णनीय है। शाब्दिक अलंकरण की अपेक्षा इसका भाव बड़ा गंभीर है। अतः ज्ञानसारग्रन्थ की गहराई तक पहुँचने के लिये इसका अभ्यास, अवश्य करना चाहिये । इसका रचना जामनगर में संवत् १७६६ की का० सु० ५ को हुई थी। ७. कर्मग्रन्थ-स्तबक- कर्म के संबंध में जिस सूक्ष्मता से जैन दर्शन में विचार किया गया वैमा अन्य किसी भी दर्शन में नहीं हुमा । श्वेतांबर और दिगम्बर दानों ही परम्परा में इस विषय पर विपुल साहित्य लिखा गया है। साधारण लोग भी कम फिलोसॉफी के विषय में कुछ समझे इसके लिये सरल से सरल तरीके अपनाये गए । श्रीमद् ने भी यह बात ध्यान में रखते हुए श्री देवेन्द्रसूरिकृत पांचों कर्मग्रन्थ (प्राकृत में हैं) पर भाषा में एक सरल टबा लिखा है। 5. गुरूगुरगर्जिशिका स्तबक-- गुरू अर्थात् प्राचार्य, वे सामान्यतया छतोमगुण युक्त होते हैं। इन्हीं खत्तीस गुणों को छत्तीस तरह से इस ग्रन्थ में बताया है । मूलग्रन्थ (प्राकृतगाथाबद्ध) त्रिी वज्रस्वामी के प्रशिष्य एवं वज्रसेनसूरि के शिष्य द्वारा निर्मित है । इस पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पचास ] श्रीमद् ने वर्णनात्मक सुन्दर टबा लिखा है। गुरु के लिये कितनी योग्यता आवश्यक है, इसका पूरा-पूरा खयाल इस छोटे से ग्रन्थ से हो जाता है। अतः गुरुपद लेने से पहिले जिज्ञासु आत्मा को एकबार यह ग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिये। ९. तीनपत्र ये तीनों पत्र सूरत की भाग्यशाली श्राविकायें जानकीबाई तथा हरखबाई को लिखे गये हैं। उस समय की स्त्रियां भी द्रव्यानुयोग जैसे गहन विषय में कितना रस लेती थीं-ये पत्र उसकी साक्षी हैं। आज जैन समाज तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में कितना पिछड़ा है. यह दो सदी पूर्व श्रीमद् द्वारा लिखे गये इन पत्रों को पढ़ने से मालूम होता है। १०. चौबीसी बालावबोध __ श्रीमद् की अपनी चौबीसी पर ही यह बालावबोध है । इसमें स्तनों की मूलभावनाओं को विस्तृत रूप से विवेचित किया है । श्रीमद् ने चौबीसी पर स्वयं बालावबोध लिखकर अनुवादकर्ताओं के लिये सुगमता कर दी है। ११. बाहुजिनस्तवन टबा-- ___विहरमान-जिन स्तवन' में से तृतीय बाहुजिनस्तवन पर श्रीमद् का स्वकृत ब्बा है। वीसी के एक ही स्तवन पर आपने ब्बा लिखा या सब पर लिखा इस विषय की कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है। श्रीमद् के प्रसिद्ध गद्य-ग्रन्थों पर चर्चा करने के पश्चात् अब उनके कुछ मुख्य मुख्य पद्य ग्रन्थों पर भी थोड़ा विचार करलें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इक्यावन ] श्रीमद् को पद्य कृतियाँ-- गद्यकृतियों की अपेक्षा श्रीमद् की पद्य कृतियाँ विशाल संख्या में हैं। आपने पद्य में लम्बे काव्यों से लेकर संख्याबद्ध छोटे-छोटे गीतिकाव्यों तक की रचना भी की है। अध्यात्म गीता 'आत्मा' और 'उसकी मुक्ति'-ये जैन दर्शन के तात्त्विक विवेचन के दो मुख्य मुद्दे हैं। सारा विवेचन इन्ही दो के स्वरूप, साधन, शुद्धता एवं अशुद्धता के इर्द-गिर्द धूमता है। प्रस्तुत 'अध्यात्मगीता' ऐसी ही एक आध्यात्मिक रचना है। इसकी शैली दार्शनिक है। इसमें नय, निक्षेप, और प्रमाणों के द्वारा आत्मस्वरूप की विवेचना की गई है। साथ ही धर्म-अधर्म की चर्चा के साथ सत्संगप्रेरणा कर्मबन्ध क्यों और कैसे होता है का विवेचन है। कर्मबंध से मुक्त होने के क्या उपाय हैं। इत्यादि विषयों पर भी इस ग्रन्थ में सुन्दर विचारणा हुई है। धर्म-अधर्म की व्याख्या करते हुए श्रीमद् ने सचमुच 'गागर में सागर' समा दिया है । 'आत्मगुण-रक्षणा तेह धर्म, स्वगुण विध्वंसणा ते अधर्म' जैनधर्म की साधना आत्मकेन्द्रित है। प्रात्मा के उपयोग के बिना चाहे कितनी भी क्रिया क्यों न की जाय, जन्म-मरण के दुखों से छुटकारा नहीं हो सकता । श्रीमद् के शब्दों में "एम उपयोग वीर्यादि लब्धि, परभावरंगी करे कर्मवृद्धि । परदयादिक यदा सुह विकल्पे, तदा पुण्य कर्म तणो बंध कल्पे ।। 'प्राध्यात्मगीता' के भावों का उपदेशक कौन हो सकता है ? इसका उत्तर हुए तीसरे पद्य में आपने कहा है कि- 'जेणे प्रातमा शुद्धतांइ पिछाण्यो, तिणे लोक प्रलोक नो भाव जाण्यो। । आत्म-रमणी मनि जग विदिता, उपदीसुतेरण अध्यात्म गीता ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बावन ] जगतप्रसिद्ध आत्म-रमणी मुनि ही इसके भावों के उपदेशक है। आपने पैतालोसवें पद्य में जैनधर्म को पहिचानकर प्रात्मानंद को प्राप्त करने की सुन्दर प्रेरणा दी हैं। 'अहो भव्य तुमे पोलखो जैनधर्म, जिणे पामिये शुद्ध अध्यात्म शर्म । अल्पकाले टले दुष्ट कर्म, पामीयें सोय अानन्द मर्म ।।' तीसरे पद्य में श्रीमद् ने इसका नाम 'अध्यात्म-गीता' दिया एवं ४६ वें पद्य में इसका अपरनाम 'प्रात्मगीता' दिया। इसकी रचना का उद्देश्य बतलाते हुए उन्होंने स्वयं कहा है कि "आत्मगुण रमण करवा अभ्यासे, शुद्ध सत्ता रसी ने उलासे । 'देवचंद्रे' रची प्रात्मगीता, आत्मरंगी मुनि सुप्रतीता ।।" आपने इसकी रचना लीबड़ी के चातुर्मास में की थी। 'अध्यात्मगीता' वस्तुतः नय-निक्षेप द्वारा आत्मा को जानने और प्रात्मस्वरूप के साधन बतलाने में बहुत ही मूल्यवान् और प्रेरणादायक रचना है। इसका एक-एक पद्य बड़ा गम्भीर है। यह एक प्रात्मानुभवी सन्त की स्वतः स्फूर्त (Spontonious) सात्त्विक वाणी की अमूल्य प्रसादी है। इस रचना का प्रचार भी खूब हुआ । इसकी बहुतसी हस्तलिखित प्रतियाँ यत्र तत्र भण्डारों में पाई जाती हैं । एक स्वर्णाक्षरी प्रति भी है। इस पर कईयों ने बालावबोध, टबाथ आदि लिखे हैं। इससे स्पष्ट हैं कि इस रचना को कितना लोकादर मिला है। १. ध्यानदीपिका चतुष्पदी यह आपकी सर्व प्रथम कृति है। इसकी रचना सं. १७६६ में मुलतान शहर में, मिमलजी भंसाली आदि तत्वरसिक श्रावकों के आग्रह से की थी। इसकी रचना के समय आपकी उम्र सिर्फ १६ वर्ष की ही था। धन्य है उस जन्मयागी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तिरेपन ] को जिसने १९ वर्ष की लघुवय में, ध्यान जैसे गम्भीर विषय पर बड़ी सफलतापूर्वक लिखनी चलाकर तत्त्वजिज्ञासु श्रावकों की जिज्ञासा पूर्ण की। राजस्थानी-पद्यों में इसकी रचना की गई है। ____ इस ग्रन्थ में छः खण्ड और अठ्ठावन ढालें हैं। इनमें बारह भावनायें, पंचमहाव्रत, धर्म ध्यान, शुक्लध्यान, पिंडस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान के गूढतत्त्वों पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। ध्यान विषयक भाषा जैनग्रन्थों में इस ग्रन्थ का विशिष्ट स्थान है। ६. द्रव्य प्रकाश यह 'ध्यानदीपिका' से परवर्ती रचना है। यह संवत् १७६७ में बीकानेर में पूर्वोक्त मिठूमलजी भंसाली आदि के लिये ही बनाया था। यह व्रजभाषा के दोहे सवैयों में षद्रव्य को निरूपण करने वाली सरल व सरस कृति है। यह सुविदित है कि श्रीमद् की शैली तार्किक व दार्शनिक है। द्रव्यप्रकाश' में प्रापने प्रश्नोत्तर के रूप में व्यावहारिक दृष्टान्त एवं युक्तियों के माध्यम से षड्द्रव्य का सुन्दर स्वरूप बताया है। आत्मनिरूपण में तो आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताओं को रखकर अच्छी दार्शनिक चर्चा प्रस्तुत की है। वस्तुत: श्रीमद् के हृदय में मत-फन्द, प्राग्रह और कदाग्रह की दुर्गन्ध से रहित शुद्ध आत्मस्वरूप ही बसता था। उनकी रग-रग में प्रात्मरस ही बहता था, अतः उनकी वाणी से सदा यही प्रवाहित हुआ । 'द्रव्यप्रकाश' के अन्तिम पद्य से यह स्वतः स्पष्ट है। "परसु प्रतीत नाहि, पुण्य पाप भोति नाहिं, रागदोस रीति नाहिं, आतम् विलास है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चीन ] साधक को सिद्धि है कि बुज्जर्व कु बुद्धि हं की, रंजिवै को रिद्धि ज्ञान-भान को विलास है । सजन सुहाय दुज चन्द ज्युं चढ़ाव है कि, उपसम भाव यामे अधिक उल्लास है । अन्यमत सौ फन्द ऐसे जैन आगम में वन्दत है ' देवचन्द्र', द्रव्य को प्रकाश है । ४. स्नात्र पूजा -- आपकी स्नात्रपूजा अखिल भारत में प्रसिद्ध है । जब ग्राप गर्भ में थे तब आपकी मातुश्री ने स्वप्न में देखा था कि चौसठइन्द्र भेरूपर्वत पर तीर्थंकर भगवान् का जन्माभिषेक कर रहे हैं। मानों उस दृश्य को चिरंजीवी बनाने के लिये ही आपने 'स्नात्रपूजा' की रचना नहीं की हो ? वस्तुतः आपकी 'स्नात्रपूजा' इतनी भावपूर्ण, प्रभावोत्पादक एवं चित्रोपम है कि गाते-गाते एक के बाद एक सारा दृश्य आँखों के सामने सजीव हो उठता है और करनेवालों को लगता है कि वे साक्षात् जन्माभिषेक में सम्मिलित हो रहे हैं । यद्यपि श्रीमद् से पहिले भी कवि 'देपाल' ने स्नात्रपूजा (जिसमें रत्नाकरसूरि कृत आदिनाथ कलश और वच्छभण्डारी कृत पार्श्वनाथकलश सम्मिलित हैं) जयमंगलसूरि ने महावीर जन्माभिषेक कलश आदि बनाये थे, तथापि जो उच्च एवं मधुर भाव प्रवरणता, श्रीमद् की पूजा में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । Jain Educationa International पूरण - कलश शुचि उदकनी धारा, जिनवर अंगे न्हामें । प्रतम - निरमल भाव करता, वधते शुभ परिणामे । For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पचपन ] बोलते-बोलते कर्ता की शुभ परिणाम धारा सचमुच बढ़ने लगती हैं, पुत्र तुम्हारो धणीय हमारो। तारण-तरण जहाज, मात जतन करी राखज्यो एहने । तुम सुत अम आधार, यह कड़ी बोलते तो रोमांच हो जाता है। हृदय ऐसे पवित्र एवं मधुर भावों से भर जाता है जो वाचातीत है । स्नात्रपूजा के अन्त में श्रीमद् ने जो कहा कि 'बोधि-बीज अंकूरो उलस्यो...."अर्थात् इस जन्ममहोत्सव के छन्द को जो भव्यात्मा प्रादरेगा, उसके हृदय में बोधिबीज (समकित) प्रकट होगा। इसकी सत्यता अर्थ के विवेकसहित स्नात्रपूजा करने वाले भक्त प्रतिदिन प्रमाणित कर वस्तुतः श्रीमद् की स्नात्रपूजा अजोड़ और बेजोड़ है। इसमें भक्ति का जो प्रखण्डप्रवाह प्रवाहित हुआ वह इतना सघन है कि इसके बाद आज तक जो स्नात्रपूजाएँ वनी वे आपको पूजा की आनुवादमात्र ही प्रतीत होती हैं। . नवपदपूजा भक्ति के क्षेत्र में यह तीन महापुरुषों की एक मधुर प्रसादी है । उपाध्याय शोविजयजी द्वारा रचित श्रीपालरास के चौथे खण्ड से कुछ ढालें लेकर श्रीमद् ने इन पर उल्लाले लिखे और ज्ञानविमलसरिजी ने काव्य लिखे इस भाँति इसका नर्माण हुआ। इस पूजा को जैन समाज में बड़ा आदर मिला। महोत्सवों आदि मांगलिक प्रसंगों में इस पूजा को प्रथम स्थान दिया जाता है और बड़ी रूचिपूर्वक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छप्पन ] पढ़ाई जाती है। धर्मसागर जो की गलत प्ररूपणाओं के द्वारा श्वेताम्बर समाज में वैमनस्य की जो दरार पड़ गई थी उसे साँधने का यह एक स्तुत्य प्रयत्न था। ६. कर्मसंवेध-- यह ग्रन्थ कर्मग्रन्थ की पूर्तिरूप है। यह मागधी भाषा में है। यह एक सो चुमोत्तर गाथामय ग्रन्थ है। ७. चौबीसी-- मस्तयोगी प्रानन्दघनजी की चौबोसी के बाद, तत्त्वज्ञान और भक्ति रस से पूर्ण आपकी ही चौबीसी मानी जाती है। निसन्देह आपकी चौबीसी में भक्तिरस तो खूब छलका ही है, किन्तु आपकी शंली अन्य कवियों से सर्वथा भिन्न है। मस्तयोगी आनन्दघनजी के स्तवनों मैं सहज भक्ति प्रवाहित हुई है। उपाध्याय यशाविजयजो की कविता में प्रेम-लक्षणा भक्ति का प्राधान्य है। किन्तु आपने अपने स्तवनों में परमात्मा के वीत्तराग भाव को अक्षुण्ण रखते हुए, भक्ति की दार्शनिक मीमांसा की है। जैनदर्शन के अनुसार परमात्मा वीतराग है। तब उनकी भक्ति का क्या औचित्य हो सकता है। इसकी व्याख्या जिस सफलता के साथ श्रीमद् ने अपने स्तवनों में को वह अन्यत्र दुर्लभ है। यही उनकी महान विशेषता एवं मौलिकता है। एक-एक स्तवन एक-एक तीर्थंकर परमात्मा की स्तुतिरूप है। यह श्रीमद् की अत्यन्त लोकप्रिय कृति है। इस पर अनेक विद्वानों ने टीकाएँ लिखी हैं । ८. अतोत चौबीसो यह अतीत-कालीन केवल ज्ञानी आदि इकवीस तीर्थकर भगवन्तों का स्तवना रूप इकवोस-भजनों का संग्रह है। इसमें भी भक्ति रस के साथ-साथ जैनतत्त्वज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सत्तावन ] कूट-कूट कर भरा है। चौबीस में तीन स्तबनों की कमी है। हो सकता है, इसकी पूर्णता के लिये श्रीमद् को समय न मिला हो । :. विहरमान-जिन-वीसी यह सीमन्धर प्रभु आदि विहरमान बीस तीर्थंकर की स्तवना है। यह भी श्रीमद् की अत्यन्त लोकप्रिय कृति है। - श्रीमद् की ये रचनायें श्रद्धा, भक्ति एवं तर्क का अपूर्व त्रिवेणी संगम है। ये स्तवन कल्पना की कोरी उड़ान मात्र ही नहीं हैं, किन्तु स्वानुभव को गहराई से निकले हुए लब्धि वाक्य हैं इसीलिये तो उनका एक एक शब्द हृदय पर सीधा असर करता है। १०. वीर-निर्वाण-स्तवन इस स्तवन के लिये अपनी ओर से कुछ कहने के बजाय नागकुमार जी मकातो के कथन को उद्ध त कर देना ही अधिक उपयुक्त होगा "भव्य करूण रस थी टपकतु वोर विरहनु ब्यान करतु श्री वीरप्रभुनु स्तवन श्रीमद् ना सर्व काव्यों मां प्रथम उभे तेवूछे । एनी स्पर्धा करी शके तेवां बीजां काव्यो साराय गुर्जर-साहित्यमां गण्यां गांठयां ज छे, ए एकज काव्य श्रीमद् ने अमरता बक्षे तेम छ । 'नाथ विहुणु सैन्य ज्यू रे, वीर विहुणो रे संघ । साधे कुण आधारथी रे, परमानन्द अभंग रे ।। वीर प्रभु सिद्ध थया ॥ 'मात विहुणो बाल ज्यूरे, अरहो परहो अथडाय । वीर विहुणा जीवड़ा रे. आकुल-व्याकुल थाय रे॥ वीर प्रभु सिद्ध थया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अट्ठावन ] सुन्दर सरोदोथी गवातु सांभली ने कोनी अांखोमांथी आंसू नहि टपके ? शब्दे-शब्दे कारूण्य छवायु छ। ११. अष्टप्रवचन माता की सज्झाय जैसे माता बड़े प्यार से बच्चे का संरक्षण और संवर्धन करती है। वैसे पांच समिति और तीन गुप्ति के पालन से संयम का संरक्षण और संवर्धन होता है। अतः ये प्रवचन-मातायें कहलाती है। इन सज्झायों में समिति-गुप्ति का स्वरूप बतलाते हुए, साधु जीवन के लिये उनका कितना महत्त्व हैं ? इसका आपने बहुत ही आकर्षक ढंग से वर्णन किया है । वर्णन इतना सटीक है कि इसको पढ़ने से श्रीमद् के आत्मज्ञान एवं चरित्र की परिपक्वता का सच्चा अनुभव हो जाता है। इन सज्झायों के रूप में साधु-धर्म का सांगोपांग निरूपण प्रस्तुत कर दिया। "जननी पुत्र शुभंकरी, तेम ए पवयण माय । चारित्र गुण-गण वर्द्धनी, निर्मल शिवसुग्ख दाय ।" गुप्ति उत्सर्ग मार्ग है और समिति इसका अपवाद है। अपवाद मार्ग का सेवन किस स्थिति में प्रौर कहां तक उचित है, इसका इन सज्झायों में स्पष्ट वर्णन किया है । साधु-जीवन की शुद्धि के लिये इनका निरन्तर स्वाध्याय आवश्यक है। १२. पंचभावना-सज्भाय __ श्रुत, सत्त्व, तप एकत्त्व और तत्त्व-ये पांचों भावनायें संयमभाव की प्रबल आधार भूमि है । श्रीमद् ने इन पांचों भावों पर सज्झाय बनाई है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सुप्त चिंतन को जगाने के लिये इसका एक-एक शब्द इन्जेक्शन क काम करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उनसठ ] श्रत भावना का वर्णन करते हुए सर्व प्रथम "श्रुत अभ्यास करो मुनिवर सदा रे” कहकर निरन्तर ज्ञानाभ्यास की सुन्दर प्रेरणा दी है। "पंचमकाले श्रुतबल पण घटयो रे, तो पण ए आधार । 'देवचन्द्रे' जिनमत नो तत्त्व ए रे, ___ श्रुत सू धरज्यो प्यार ॥" देखिये 'तप-भावना का भावपूर्ण वर्णन "जिण साहू तप तलवारथी, सूडयो छे हो अरि मोह गयंद । तिण साधु नो हूँ दास छु, नित्य वंदु रे तसपय अरविंद।" "धन्य तेह जे धन गृह तजी, तन स्नेह नो करी छेह । निसंग वनवासे वसे, तपधारी हो ते अभिग्रह गेह ॥" महान् साधक भी आपत्ति के समय (सत्त्वहीनता के कारण) धैर्य खो देते हैं। अतः उनके लिये श्रीमद् ने 'सत्त्वभावना' की सज्झाय के रूप में महान् उद्बोधन दिया है। यदि उसका नित्य मनन किया जाय तो रग....रग में सात्त्विक साहस का अवश्य संचार होता है। रे जीव ! साहस आदरो, मत थाओ दीन । सुख-दुख संपद आपदा पूरव कर्म अधीन ॥ स्वजन-परिजन, धन और शरीर के मोह में आत्मा का भान भूलनेवालों के लिये श्रीमद् ने बड़ा मार्मिक उपदेश दिया है 'पंथी जेम सराय मां, नदी नाव नी रीति । तिम ए परियण तो मिल्यो, तिण थी शी प्रीति ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ साठ ] चक्री हरि बल प्रतिहरी, तस विभव अमान । ते पण काले संहर्या, तुज धनेश्ये मान ।। तू अजरामर प्रातमा, अविचल गुण राण । क्षण-भगुर जड़ देहथी, तुज किहां पिछाण ॥ देह-गेह भाड़ा तणो, ए आपणो नाहि । तुज गृह प्रात्तम ज्ञान ए, तिरण माहे समाहि ।। बाह्य-संग-परिग्रह का त्याग कर देने पर भी "एगोऽहं नत्थि में कोई" -मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है।" इस भावना की वास्तविक परिणति हुए बिना आन्तरिक ममत्त्व दूर नहीं होता । 'एकत्त्वभावना' को सज्झाय में उसी ममत्त्व को दूर करने के लिये एक-एक गाथा के रूप में एक-एक इन्जेक्शन लगाया है। "प्राव्यो पण तू एकलो रे, जाइश पण तू एक । तो ए सर्व कुटुम्ब थी रे, प्रीत किसी अविवेक रे।। परसंयोगथी बध छ रे, पर वियोग थी मोख । तेणे तजी पर मेलावड़ो रे, एक पणो निज पोख रे ।। परिजन मरतो देखो ने रे, शोक करे जन मूढ़ । अवसर वारो आपणो रे, सहु जन नी ए रूढ़ रे । अपनी एकता का सच्चा भान हो जाने पर आत्मस्वरूप को निखारने के लिये शुद्ध आत्मतत्त्व का चिन्तन करना आवश्यक है। तत्त्वभावना की सज्झाय में आपने इसी बात पर जोर दिया है । इन भावनाओं का महात्म्य-श्रीमद् के शब्दों में "कर्म कतरणी शिव निसरणी, ध्यान ठाण अनुसरणी जी। चेतनराम तणी ए धरणी, भव-समुद्र दुःख हरणी जी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इकसठ ] १३. गजसुकुमाल - सज्झाय इस सभा की तीन ढालें है। प्रथम ढाल में श्री कृष्ण के छोटे भाई गजसुकुमाल का भगवान् नेमिनाथ का उपदेश सुनकर वैरागी बनने का वर्णन है । दूसरी ढाल में माता देवकी और गजसुकुमाल के राग-विराग का द्वन्द्व और अन्त में, कुमार का विजय होना है। तीसरी ढाल में कुमार की दीक्षा और साधना का वर्णन है । भगवान् का उपदेश सुनकर गजसुकुमाल को वैराग्य हो जाता है, इसका वर्णन श्रीमद् के शब्दों में "नेमि वचन जाग्यो वड़वीर धीर वचन भाषे गम्भीर | देहादिक ए मुजगुरण नांहि, तो केम रहेवु मुज ए मांहि ॥ जेह थी बंधाये निजतत्त्व, तेह थी संग करे कुरण सत्त्व । प्रभुजी रहेवु करी सुपसाय, हुँ प्रावु माता समजाय ॥ गजसुकुमाल जिन शब्दों में माता से अनुमति मांगते हैं वे उनके तीव्र वैराग्य के सूचक है । Jain Educationa International 'माताजी अनुमति आपीये, हवे मुझ एम न रहाय रे । एक खिरण अविरत दोष नी, बातडी वचन न कहाय रे ॥ माता संयम की दुष्करता दिखाकर बालक को रोकना चाहती है, तब गजसुकुमाल ने जो कुछ कहा वह बड़ा मार्मिक है । उसके आगे माता के कुछ कहने का अवकाश ही नहीं रखा। 'मातजी निजघर प्रांगणे, बालक रमे निरबीह रे । तेम भुज प्रातम धर्म में, रमरण करतां किसी बीह रे ।' मथी कोई अधिको हुवे, मानीये तास वचन्न रे । माताजी कांई नवि भाखिये, माहरे संयमे मन्न रे ।। For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासठ ] अन्त में गजसुकुमाल दीक्षा ले लेते हैं और प्रभु से शीघ्र ही मोक्ष मिलने का उपाय पूछते हैं। तब भगवान उन्हें एकरात्रि की प्रतिमा स्वीकारने को कहते हैं। भगवान् की आज्ञानुसार शिवरसिक बालमुनि श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग, में लीन हो जाते हैं। उनके भावी ससुर 'सोमिल' को जब इस बात का पता पड़ा तो वह बड़ा क्रुद्ध होता है और प्रतिशोध की भावना से मुनि को ढूँढ़ता हुआ वहां पहुँच जाता है। क्रोधावेश में सोमिल भान भुला हुआ था अतः वह पास ही तालाब से गोली मिट्टी लाकर बालमुनि के सिर पर सिगड़ीनुमा बनाकर उसमें जलते हुए अंगारे रख देता है। देह धर्म व प्रात्मधर्म को भलो-भाँति पहिचानने वाले महामुनि की उस असह्य पीड़ा में भी भावना देखिये-- दहनधर्म ते दाह जे अगनि थी रे, हुँ तो परम अदाझ अगाह रे। जे दाझे ते तो माहरो धन नथा रे अक्षय चिन्मय तत्त्व प्रवाह रे ।। १४. प्रभंजना-सज्झाय इसमें विद्याधर कुमारी प्रभंजना के अचानक जीवन परिवर्तन का रोचक वर्णन है। प्रभंजना के स्वयंवर की तैयारी हो रही है। वह एक हजार सखियों के साथ घूमने जा रही है। रास्ते में अचानक सुब्रता साध्वीजी सपरिवार उनको मिलती हैं । शिष्टाचार के नाते कन्यायें उन्हें नमस्कार करती हैं। कन्याओं का अपूर्व उल्लास देखकर साध्वीजी उन्हें उसका कारण पूछती हैं। तब कन्या कहती है कि "विनये कन्या वीनवे, वर वरवा इच्छे रे लो।" त्यागी आर्यां को इससे बड़ा आश्चर्य होता है और वे कहती हैं कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ तरेसह 'एश्यो हित जाणो तुमे, एथी नवि मिद्धि रे लो। विषय हलाहल विष जिहां, शो अमृत बुद्धि रे लो।' प्रभंजना की आत्मा आसन्नभावी है। अतः वह साध्वीजी की बातों का मर्म बड़ी गम्भीरता से जानने में लीन है। यही कारण है कि सखी के यह कहने पर कि"अभी तो जो सोचा है, वह करो। बाद में धर्म की बात सोचना।" प्रभंजना झट से कह देती है कि-- 'प्रभंजना कहे हे सखी, ए कायर प्राणी रे लो। धर्म प्रथम करवो सदा, 'देवचन्द्र' नी वाणी रे लो। चतुर साध्वीजी भी अपने कथन का प्रभंजना के दिल में असर होता देखकर उसे संसार की असारता, संबंधों को अनित्यता और प्रात्मा की नित्यता बताती हैं। इससे प्रभंजना की सुप्त चेतना एकदम जाम उठती है। "प्रायो प्रायो रे अनुभव आत्तमचो प्रायो ।" शुद्धि निमित्त अवलंबन भजतां, आत्मालंबन पायो रे ।। ज्ञानधारा में आगे बढ़ते-बढ़ते अन्त में उसे कवल ज्ञान हो जाता है । हजार सखियां भी वहां ही दीक्षित हो जाती हैं। सारा वर्णन तत्त्वज्ञान से भरपूर होने के साथ-साथ बड़ा सजीव है । सज्झाय-पाठक अध्यात्म रस के प्रास्वादन के साथ दृश्य का साक्षात्कार भी करता जाता हैं। १५. साधुपद स्वाध्याय-- इस शीर्षकवाली दो सज्झाये हैं। एक तो 'जगत् में सदा सुखी मुनिराज और दूसरी 'साधक साधज्यो रे' है। इसमें श्रीमद् ने साधु को ऋजुता और समता की साधना से निस्पृह, निर्भय, निर्मम और पवित्र बनकर आत्म साम्राज्य (मोक्ष) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौसठ] प्राप्त करने की सदशिक्षा दी है । दोनों में साधुजीवन के सुखों का अनुभव गम्य वर्णन किया है। उसमें से कुछ उद्गार ये हैं। जगत् मे सदा सुखी मुनिराज ।।टेर।। 'पर विभाव परिणति के त्यागी, जागे आत्म समाज, निजगुण अनुभव के उपयोगी, जोगी ध्यान जहाज । निर्भय, निर्मल, चित्त निराकुल, विलगे ध्यान अभ्यास, देहादिक ममता सवि वारी, विचरे सदा उदास ।। हेय त्यागथी ग्रहण स्वधर्म नो रे, करे भोगवे साध्या, स्वस्वभावरसिया ते अनुभवे रे, निजसुख अव्याबाध । निस्पृह, निर्भय, निर्मम, निरमलारे, करता निज साम्राज्य, देवचन्द्र आणाये विचरता रे, नमिये ते मुनिराज ॥ अन्य-उपलब्धकृतियाँ (१) एकवीशप्रकारी पूजा (२) अष्ट प्रकारो पूजा (इसका खोपज्ञ टब्बा भी है) (३) सहस्त्रकूट जिनस्तवन (४) प्रानन्दघन चौबीसी में 'ध्र वपदगमी हो स्वामी माहरा' से प्रारंभ होनेवाला पार्श्वनाथ प्रभु का स्तवन और (५) वीर जिणेसर चरणे लागु यह महावीर प्रभु का स्तवन ये दोनों ही श्रीमद् के ही बनाये हुए हैं। योगीराज ज्ञानसारजीकृत आनंदधन चौबीसी के बालावबोध से यह स्पष्ट है।' इनके अति रिक्त प्रस्तुत संग्रह' की (......) रचनायें हैं। इस प्रकार श्रीमद् ने श्रुतज्ञान का खूब सेवा की है । कुछ आपकी अमुद्रित कृतियां भी यत्र तत्र भंडारों में उपलब्ध होती हैं। १. देखो नाहटाजीकृत ज्ञानसार ग्रन्थावली का जी० पृ० ६६ से १०२. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पेंसठ ] अमुद्रित कृतियाँ (१) अध्यात्मप्रबोध (हितविजय पं०, घाणेराव), इसकी नकल नाहटा लाइब्रेरी, बीकानेर में है) (२) अध्यात्मशान्तरस वर्णन (३) उदय-स्वामित्त्व पंचाशिका (खरतरगच्छ ज्ञान भंडार, जयपुर) (४) तत्त्वावबोध ('विचारसार' में इसका उल्लेख है) (५) दण्डक बालावबोध (नाहटा भंडार, बीकानेर) (६) कुंभस्थापना भाषा (खरतरगच्छ ज्ञानभंडार, जयपुर) (७) सप्तस्मरण टब्बा (८) देशनासार (8) स्फुट प्रश्नोत्तर । इनके अतिरिक्त श्रीमद् की अन्य कोई कृति किसी को कहीं उपलब्ध हुई हो तो अवश्य सूचित करें। भीमद् की कृतियों पर अन्यकृत बालावबोध विवेचन आदि श्रीमद् की अध्यात्मगीता पर सर्वाधिक कार्य हुआ। इस पर एक भाषा टीका (बालावबोध) श्रीमद् आनंदघनजी की चौबीसी और पदों पर विवेचन लिखने वाले मस्तयोगी ज्ञानसारजी ने सं० १८८० की आषाढ़ सुदी १३ को बीकानेर में बनाई थी। ज्ञानसारजी अध्यात्म-मर्मज्ञ विद्वान् सन्त थे। बालावबोध के प्रारम्भ और अन्त में इस रचना का महत्त्व और गुण वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है खरतर प्राचारज गणे दीपचन्द तसुसीस। देवचन्द्र चन्द्रोदयी संवेगिक तनु सीस ॥ जिन वचनामृत पानकर रचना रची रसाल । क्यों न होंहि जल सींचनां, हरी तरून की डाल ।। अध्यातम-गीताकरी करी विवरण नहीं कीन । आग्रह ते विवरण करू, पं मति तें अति छीन ॥ आशय कवि को अति कठिन, अति गंभीर उदार । वज्र उदधि सुरमणि रमणि, उपमेयोपम धार ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छासठ ] स्थान-स्थान पर ज्ञानसारजी ने अपनी लघुता बताते हुए, स्वतन्त्र समालोचना भी की है। अपनी समालोचना में उन्होंने श्रीमद् को महापण्डित, महाकविराज आदि विशेषणों द्वारा संबोधित किया है और यहाँ तक लिखा है कि'ए वर्तमान विस्सै वरसो ना काल मां एहवा कविराजान अन्य थोड़ा गिरणाय तेहवा थया ने जारणपणो पण अति विशेष हतू नै हूं महामंद बुद्धि शास्त्र नो परिज्ञान किमपि नहि लेहथी छोटे मुहे मोटामोनी बात किम लिखाय पण श्रावक ने अति प्राग्रह में टब्बो करवा मांडयो।" ज्ञानसारजी का यह बालावबोध मर्मस्पर्शी पौर बोधदायक है। ज्ञानसारजी के बाद तपागच्छ के अमी कुंवर जी ने सं० १८८२ की आषाढ़ वदी २ को पाली नगर की श्राविका लाडूबाई के पठनार्थ बालाबवोध की रचना की जो कि 'अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडल' पादरा से सं० १९७८ में श्रीमद् के 'आगममार' के साथ प्रकाशित हो चुका है। तीसरा टब्बा सूरत में श्री मोहनलालजी के ज्ञान भंडार में है । अज्ञातकर्तृक चौथा टब्बा “देवचन्द्र भाग-२" में प्रकाशित है। कुछ ही वर्षों पूर्व इस पर गुजराती विवेचन मुनि श्री कलापूर्ण विजयजी (अभी वागड़ सम्प्रदाय के प्राचाय हैं) ने लिखा जो डा० उमरसी पूनसी देढिया ने अंजार से प्रकाशित किया है । हिन्दी भाषा में इसका सरल और संक्षिप्त विवेचन श्री केशरीचन्दजी धूपिया का सं० २०२६ में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ जिसमें विद्वान् मनीषी श्री अगरचन्दजो नाहटा ने भूमिका लिखी है। श्रीमद् को स्नात्रपूजा पर प्रथम हिन्दी अनुवाद श्री चन्दनमलजी नागौरी ने व दूसरा श्री उमरावचन्दजी जरगड़ ने किया। ये दोनों ही अनुवाद जिनदत्तसूरि सेवा सघ बम्बई से प्रकाशित हो चुके हैं। श्रीमद् की पत्तमान चौबीसी' का भी संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद जरगड़ जी ने ही किया है। वह भी उक्त संस्था से ही प्रकाशित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सड़सठ ] श्रीमद् की प्रतीत चौबीसी पर श्रावकवयं मनसुखलालजी ने सं० १९६५ में दाहोद में गुजराती में बालावबोध बनाया । इसमें श्रीमद् द्वारा रचित २१ ही स्तवन हैं, मनसुखभाई ने तीन स्तवन स्वयं बनाकर चौबीस की पूर्ति की है। वीसी का अनुवाद मनसुखभाई के ही सहयोगी व शिष्य श्री सन्तोकचन्द्रजी ने सं० १९६६ में दाहोद में किया । ये दोनों 'बालावबोध' सं० १९६७ में 'सुमति प्रकाश' ग्रन्थ में प्रकाशित हो चुके हैं। इसके बाद बीकानेर से अलग-अलग रूप में क्रम से सं० २००६ व २००७ में प्रकाशित हुए। श्रीमद् के आगमसार का हिन्दी अनुवाद बहुत वर्षों पूर्व योगीराज श्री चिदानन्दजी महाराज ने किया था, जिसे जमनालालजी कोठारी ने अभयदेवसूरि प्रन्थमाला से प्रकाशित करवाया था। इसके बाद विद्ववर्य प्रानंद सागर सूरीश्वरजी कृत हिन्दी विवेचन के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ सैलाना (म० प्र०) से प्रकाशित हुआ। नयचक्रसार का हिन्दी रूपान्तर फलोदी से प्रकाशित हुआ है। 'साधु पद स्वाध्याय' नामक दोनों सज्झायों पर योगीराज ज्ञानसारजी ने हिन्दी भाषा में विद्वत्तापूर्ण एवं समालोचनात्मक विस्तृत टब्बा लिखा है। इसके प्राधार पर संक्षिप्त हिन्दी भावार्थ केशरीचन्दजी धूपिया ने तैयार किया, जो श्रीमद् देवचन्द्र ग्रन्थमाला कलकत्ता से 'पच भावनादि सज्झायसार्थ में प्रकाशित हुआ हैं। 'भष्टप्रवचनमाता सज्झाय' पर गुजराती अनुवाद एवं 'पंचभावना सज्झाय पर अज्ञातकर्तृक टब्बा है। सं० २०२० में दोनों पर नेमिचन्द्रजी जैनकृत हिन्दी भावार्थ कलकत्ता से प्रकाशित हुआ है। व 'बड़ी साधु-वंदना' का स्थानकवासी समुदाय में बहुत आदर हुआ हैं। वे होग इसके ४-५ संस्करण निकाल चुके है । सं० २००६ में श्री मधुकर मुनिजी के नुवाद व कवि श्री अमरचन्द्रजी की भूमिका सहित एक संस्करण निकाला है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अड़सठ ] श्रीमद् की 'बीपी' के एक स्तवन पर पंडित सुखलालजी ने अनुवाद लिखा है, जो काशी से प्रकाशित हुआ था। - इनके अतिरिक्त यदि किसी को श्रीमद् की किसी कृति पर, अनुवाद या विवेचन उपलब्ध हो तो कृपया, अवश्य सूचित करें। श्रीमद् को भाषा-शैली राजस्थानी तो आपकी मातृ-भाषा हो थी। संस्कृत-प्राकृत में आपने पाण्डित्य हासिल किया था। अन्य भाषाओं का ज्ञान तो जैसे-जैसे आपका भ्रमण क्षेत्र विस्तृत होता गया वैसे-वैसे बढ़ता गया तथा रचनाओं में उन को स्थान मिलता गया । 1. श्रीमद् की र नामों को भाषा की कसौटी पर कसने से पहिले एक बात ध्यान में रखना अत्यावश्यक है, तभी उनके प्रति न्याय किया जा सकता है। श्रीमद् केवल लेखक या कवि ही नहीं थे । वे अध्यात्मज्ञानी सन्त थे। अतः रचना करने का उनका ध्येय पाण्डित्य-प्रदर्शन का या मात्र वाह....वाह लेने का नहीं था किन्तु साधारण लोग भी तत्त्वज्ञान में रस ले सकें, इमलिये उसे सरल से सरल रूप मे प्रस्तुत करने का था। यही कारण है कि संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी आपने कुछ रचनाओं को छोड़कर सभी रचनायें भाषा में की। , आपकी संस्कृत और प्राकृत छोटे-छोटे वाक्यों और प्रायः समास रहित छोटे २ पदों के कारण बड़ी सरल है । अनर्थक अलंकरण और पांडित्य प्रदर्शन के झूठे मोह में भावों की गरिमा कम करने को कहीं भी कोशिश नहीं की गई। ___ भाषा-ग्रन्थों में, आपकी पूर्ववर्ती रचनायें तो राजस्थानी या पुरानी हिन्दी में हैं किन्तु परवर्ती रचनायें गुजरातो में या गुजराती-बहुल है। कारण १७७७ से अन्तिम समय तक अर्थात् ३३-३४ वर्ष के दीर्घकाल तक आप गुजरात में ही विचरते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उन्हत्तर ] हे । अतः रचना में गुजराती का आना स्वाभाविक ही था। भ्रमणशील-जीवन होने के नाते अन्य भाषायें जैसे मराठी, अपभ्रंश, व्रज इत्यादि के शब्दों का भी प्रयोग होना स्वाभाविक ही था। आपकी स्नात्रपूजा स्तवन-एवं सन्झायों में प्रयुक्त तुमचो, अमचो, अम इम मभिसेस 'उच्छम' इत्यादि शब्द मराठी और अपभंश के हैं। 'द्रव्यप्रकाश' तो जभाषा बहुल ही है । देखिये श्रीमद् को ब्रजभाषा पटुता पापको न जाने, परभाव ही को प्रापा माने, गहि के एकांत-पक्ष माच्यो हे गहल में । भरम में पर्यों रहे, पुन्यकर्म ही को चेत वहे अहंबुद्धि भाव थंभ ज्यु महल में । कुगतिसु डरे सद्गति ही की इच्छा करे, करनी में थिर हो के चाहे मोक्ष दिल में, स्याद्वाद भाव बिनु ऐसो जो मिथ्यात्त्व भाव । हेयरूपी कह्यो ज्ञानभाव के अदल में, इस प्रकार श्रीमद् का भाषा-ज्ञान विस्तृत है। कहीं कहीं तो एक ही गाथा में गुजरातो, संस्कृत-तत्सम, प्राकृत एवं राजस्थानी का सफल प्रयोग किया है। खिये श्री तोर्थपतिनो कलस मज्जन, गाइये सुखकार । नर-खित्त मंडण दुह विहंडण, भविक मन प्राधार ।। 'तीर्थपत्ति नो' में गुजराती प्रत्यय है। 'मज्जन संस्कृत तत्सम शब्द है। वित्त' 'दुह' और 'विहंडन' प्राकृत है, शेष सब राजस्थानी है। संस्कृत प्राकृत के काण्ड विद्वान् होते हुए भी हिन्दी, राजस्थानी एवं गुजराती में लिखकर आपने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " [ सत्तर ] भाषा-साहित्य की विपुल सेवा को है तथा भाषा-विज्ञान को दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्र प्रस्तुत की है। जन्मजात राजस्थानी होते हुए भी गुजराती भाषा में प्रापर्क परिपक्वता आश्चर्यजनक हैं। आपके गद्य और पद्य दोनों ही भाषा को क्लिष्टत्ता और कृत्रिमता से दूर सरल और भाववाहो हैं। आपकी शैली सरल, सुबोध टंकसाली सोना हैं। नो कुर कहना है, उसे अल्प और अनुरूप शब्दों में कह दिया है। कहीं भी दिखावे को स्थान नहीं है। गुजरातो गद्य के व्यवस्थित विकास से देढ़ (१५०वर्ष) सदी पूर्व सफलता साथ गद्य लिखकर गुर्जरगिरा पर आपने अनहद उपकार किया है । श्रीमद् का संगीत ज्ञान-- आबाल-गोपाल को संगीत जितना आकर्षित कर सकता है, उतना और कोई शास्त्र नहीं कर सकता। भावों को तन्मय कर देने की जो शक्ति संगीत में है अन्य किसी में नहीं। इसीलिये तो भाषा-साहित्यकारों ने जन साधारण को आकृष्ट करने के लिये अपने भावों को विविध राग-रागिनियों में गूथा है। श्रीमद् ने भी संगीत को प्रभावशालोता को खूब पहिचाना और अपनी भक्ति वैराग्य और उपदेश को उन्मुक्त गंगा-प्रवाह से निर्मल गेय-गीतों के रूप में खूब बहाया है। आपका राग रागिनी विषयक ज्ञान भी अच्छा था। आशावरी, धन्याश्री मारू गोडो, होरो, वेलावल, इत्यादि शास्त्रीय (Classical) राग-रागिनियों के साथ गुजराती, मारवाड़ी. मेवाड़ी आदि देशों में प्रसिद्ध देशियों का भी अच्छा ज्ञान था। राग-रागिनियाँ और देशियों के अलावा संस्कृत-प्राकृत और हिन्दी के दोहा सेवया, कवित्त उल्लाला चौपाई आदि छन्दों के ज्ञान में भी आपने अच्छी निपुणत प्राप्त की थी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इकहत्तर श्रीमद की कवित्त्व-शक्ति-- श्रीमद् की रचनायें द्रव्यानुयोग एवं अध्यात्म-प्रधान होने से उनमें अलंकारिक काव्य कला का दर्शन यद्यपि पदे पदे नहीं होता, तथापि भक्ति-स्तवनों के रूप में जो अमूल्य प्रसादी उन्होंने दी उसमें उनकी कवित्त्व शक्ति का अच्छा दर्शन हो जाता हैं। तथा उनकी कवित्त्व-शक्ति को कुछ मौलिक विशेषतायें सामने आती हैं। सर्वोच्च-दार्शनिक तत्त्वों को भी गीतिका में बाँधकर सहजभाव से सरस बनादेना यह श्रीमद् द्वारा ही संभव हो सका है। आपकी चौबीसी का प्रथम स्तवन 'ऋषभ जिणंदशुप्रीतड़ी' तर्क, पांडित्य और कवित्त्व-शक्ति का बेजोड़ नमूना है। ऋषभ जिणंद शु प्रीतड़ी, केम कीजे हो कहो चतुर विचार । इसके द्वारा, प्रभु वीतराग है, उनसे प्रेम कैसे हो सकता है। इस प्रश्न को उपस्थित कर प्रेम करने की सभी संभावनाओं की उत्त्प्रेक्षा करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। किन्तु जैनदर्शन की रीति नीति सबको अस्वीकृत कर देती हैं। फिर स्वयं ही चतुर-भाषा में समाधान कर देते हैं कि - प्रीति अनंती पर थकी, जे तोड़े होते जोड़े एह । परम पुरूषथी रागता, एकत्त्वता हो दाखी गुणगेह ।। आपकी उपमायें वास्तव में अनुपम हैं । व्यावहारिक-झोत्र से संचित किये गये उपमानों को धर्म और दर्शन की व्याख्या के लिये उपयोगी बना लेना श्रीनद् की निजी विशेषता है। साथ ही वे उपमान कितने सटीक हैं, इसका उदाहरण देखिये प्रभु के स्तवन में 'बीजे वृक्ष अनंततारे लाल, प्रसरे भूजल योगरे वाल्हेसर । तिम मुज प्रातम संपदा रे लाल, प्रगटे जिन संयोग रे ।। वालं सर ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बहत्तर ] जैसे बीज के अंकुरित होने के लिये भू और जल की आवश्यकता है, बसे है आत्म गुणों के विकास के लिये प्रभु के आलंबन की आवश्यकता है। सटीकता य है कि — नान्यः पन्थाः" की प्रतीति बीज, वृक्ष और जल के संबंध की विशेषत से होती है। इसी प्रकार अनन्तनाथ स्तवन में भवदव हो प्रभु भवदव तापित जीव, तेहने हो प्रभु तेहने अमृतघन समीजी। मिथ्या विष हो प्रभु मिथ्या विष नी खीव, हरवा हो प्रभु हरवा जांगुली मन रमीजी ।। यहां अनन्यता की प्रतीति ताप और वृष्टि, विष और जांगुलि (गारूडी) । संबंधों के कारण ही है। आध्यात्मिक पुरजोश (Enthusiasm) से भरपूर आपका दीपावली का रूपकम वर्णन देखिये-- आज मारे दीवाली थई सार, जिनमुख दीठा थी। अनादि विभाव तिमिर रयणी में, प्रभु दर्शन आधार रे।। जिनमुख दीठे ध्यान आरोहण, एह कल्याणक वातरे । प्रातमधर्म प्रकाश चेतना, 'देवचन्द्र' अवदात ।। प्रभु की भक्तिपूर्ण स्तवना के साथ वे वियोग और विछोह के वर्णन को में भूले नहीं हैं। जिस गंभीरता के साथ आपने, राजीमती व गौतम के शब्दों वियोग का वर्णन किया है, वह साहित्य निधि का अनमोल · रत्न है। वीरप्र निर्वाण स्तवन में उनकी विरह - व्यथा देखिये-- मात विहूणो बाल ज्यू रे, अरहो परहो अथड़ाय । वीर विहूणा जीवड़ा रे, प्राकुल-व्याकुल थाय रे वीरप्रभु सिद्ध थया ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तिहत्तर ] वियोग का यह वर्णन कितना स्वाभाविक है-- संशय छेदक बीरनो रे, विरह ते केम खमाय । जे दीठे सुख उपजे रे, ते विण केम रहेवाय रे ॥ - वीरप्रमु सिद्ध थया...........गौतम स्वामी के शब्दों में विरह व्यथा- हे प्रभु मुंज बालक भरणीजी, स्ये न जणायु प्राम । मूकी स्यें मने केगलोजी, ए निपाव्यो काम नाथ जी मोटो तू आधार । वियोगिनी राजुल की, विरह व्यथा देखिये "वालाजी वीनतड़ी एक मारी, धीरू बोले राजुल नारी रे । है दासी छु श्री. प्रभुजीनी, प्रभु छो पर उपकारी रे ॥१॥ प्रभु के वियोग में राहुल की दयनीय दशा देखिये । प्रकृति के सुखद भाव भी, उसके लिये दुखदायी हो गये हैं । मेघघटा, पपीहा का पिउ-पिउ बोलना, जलधारा, विजली, मन्द पवन आदि प्रकृति के कोमल रूप उसके लिये कठोर बन गये हैं। "पायो री घनघोर घटा करके (२) रहत पपीहा पिउ पिउ पिउ पिउ सर धरके ॥१॥ वादर चादर नभ पर छाइ, दामिनी दमतकी झरके । - मेघ गंभीर गुहिर अत्ति गाजे, विरहिनी चित्त थरके ॥ व्यवहारिक दृष्टान्तों के द्वारा अपने भावों को स्पष्ट और पुष्ट करने की आपको क्षमता देखिये अजकुलगत केसरी लेहरे, निजपद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्त भवि लेह रे, आतम शक्ति संभाल ।। अजित जिन तारजो रे............ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौहत्तर] बकरी के टोले में पला हुआ सिंह शावक अपने स्वरूप को भूल जाता है। किन्तु अपने सजातीय सिंह को देखने से उसे पुनः निज रूप का भान हो पाता है। उसी प्रकार प्रभु भक्ति से भव्य जीव भी अपनी विस्मृत आत्म शक्ति को पहिचान कर प्राप्त कर लेता है। यहां प्रात्म शक्ति की स्मृति में, प्रभु भक्ति के औचित्य के साधक भ्रान्त सिंह शावक का दृष्टान्त कितना उपयुक्त है। संवादों के द्वारा रूपक जैसा आनन्द प्रस्तुत करने में श्रीमद् सिद्धहस्त हैं। आपको प्रभंजना, गजसुकुमाल आदि की सज्झायें इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। अनुप्रास का प्रयोग सर्वत्र स्वाभाविक गति से, संगीतात्मकता का वातावरण उत्पन्न करते हैं। कलापक्ष की अपेक्षा आपका भावपक्ष अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तत्वज्ञान के बीच बीच सुन्दर कोमल भाव तरंगों का स्पन्दन हृदय को प्राहलादित कर देता है। आपकी रचनाओं में अर्थगौरव की विशेषता है। वे पाठकों के मानस-पटल पर उन विचारों को अंकित कर देना चाहते थे, जिनसे वह साधारण मानव की तुच्छ-प्रवृत्तियों से परे हो जाय और उसे स्वयं अपने व्यक्तित्व को उदात्त बनाने की प्रेरणा प्राप्त हो। श्रीमद् की कविता गंगाजल की तरह अस्खलित गति से बहती हई कहीं भाव या रस की धारा बहाती है तो कहीं प्रशांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर होकर मानव जीवन की विश्रांति की छाया दिखाती है । सचमुच आपकी कविता में हृदय की सच्ची स्वाभाविक प्रेरणा भरी पड़ी है। आपकी वाणी आपके व्यक्तित्व की गरिमा से ओतप्रोत है। श्रीमद् की भक्त दशा श्रीमद् उच्चकोटि के परमात्मभक्त महात्मा थे। आपने अपने स्तवनों में भक्तिरस को खूब बहाया। किन्तु श्रीमद् की भक्त दशा पर विचार करने से पूर्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पचहत्तर] 'उनकी भक्ति-पद्धति के बारे में कुछ विचार कर लेना ठीक रहेगा। क्योंकि उनकी शैली अन्य कवियों से सर्वथा भिन्न है। उनकी भक्ति पर जैन- तत्वज्ञान का गहरा प्रभाव नजर आता है। फलत: आपकी भक्ति में, दूसरे कवि जैसे भावावेश में जैनत्व को भूला गये हैं, वह बात नजर नहीं आती। - ईश्वर विषयक जैन एवं जनेतर दृष्टिकोण में मूलभेद यही है कि वे ईश्वर को एक सृष्टिकर्ता एवं फलप्रदाता मानते हैं। जब कि जैन मान्यतानुसार इस पद का ठेका किसी एक व्यक्ति का नहीं होता किन्तु कोई भी व्यक्ति साधना द्वारा प्रात्मविकास कर, इस पद को पा सकता है । ईश्वरत्व प्राप्त कर लेने पर फिर कुछ करना शेष नहीं रहता। अतः वे न किसी पर रीझते हैं, न किसी पर खीझते हैं। न किसी को तारते हैं, न किसी को रुलाते हैं। प्रत्येक जीव अपने भले बुरे के लिये स्वतन्त्र है। वह अपने ही कर्मों के फलस्वरूप सुख - दुःख को भोगता है एवं अपने ही प्रयत्नों द्वारा कर्मों से मुक्त हो स्वयं परमात्मा बन जाता है। __ तब प्रश्न होता है कि प्रभु भक्ति क्यों की जाय ? क्योंकि वे वीतराग हैं। वे न किसी को तारते हैं, न कि किसी को डुबाते हैं । ___ इसका समाधान यह है कि-कार्यसिद्धि के दो कारण है-एक उपादान, दूसरा निमित्त । यद्यपि मूल कारण तो उपादान ही है, तथापि निमित्त का स्थान भी कार्यनिष्पत्ति में महत्वपूर्ण है। मुक्ति का उपादान कारण तो स्वयं आत्मा है, अर्थात् घात्मा का प्रयत्न एवं पुरूषार्थ है किन्तु प्रभु भक्ति आदि आत्म शुद्धि में निमित्त होने के नाते अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उपादान की शुद्धता एवं विकास के लिये निमित्त का अवलम्बन आवश्यक है और वहीं भक्ति का अवकाश है। प्रभु से हमें न कुछ लेना है कुछ मांगना । किन्तु उनका दर्शन कर अपने स्वरुप का दर्शन करना है। उनका गुणगान कर अपने गुणों को संवारना है । उनके जीवन व उपदेशों से प्रेरणा ग्रहण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छिहत्तर कर हम अपने आत्म विकास का मार्ग प्रशस्त करना है तथा तदनुरुप जीवन बनाने के लिये प्रयत्नशील होना है। श्रीमद् की भक्ति पर इस मान्यता का गहरा प्रभाव है। वीतरागता के प्रादर्श को अक्षुण्ण रखते हुए उन्होंने भक्ति की है। श्रीमद् ने अपने स्तवनों में इस तत्त्व को पुनः पुनः जिस प्रकार स्पष्ट शब्दों में दुहराया है, वैसा अन्य किसी ने प्रकाशित किया हो, नजर नहीं आता। यही उनको भक्ति की महान विशेषता व मौलि. कता है। जैसा कि उन्होंने गाया है। प्रभुजी ने अवलंबता, निज प्रभुना हो प्रगटे गुणरास । देवचन्द्र नी सेवना, आपे मुज हो अविचल सुखवास ॥ ' प्रभु पालंबन रूप है। उनके निमित्त से अपनी प्रभुता प्रकट होती है। इस गाथा में यही भाव स्पष्ट किया है। . प्रभु के निमित्त से अपने स्वरूप को स्मृति होती है तथा उसे पाने की प्रेरणा मिलती है। इस तत्व को श्रीमद् ने कितनी स्पष्टतापूर्वक व्यक्त किया है। जैसे प्रभु प्रभुता संभारता, गातां करतां गुणग्राम । सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे ।। प्रभु दीठे मुज सांभरे, परमातम पूर्णानन्द । श्रीमद् की भक्ति के आधारभूत मुख्य तीन तत्व है- १. प्रभु की प्रभुता २. अपनी लघुता ३. परमात्मा के प्रति अनन्य समर्पण भाव। उनके स्तवनों में ये भाव पदे पदे मुखरित हुए हैं । श्रीमद् के हृदय में प्रभु को प्रभुता के प्रति अनन्य श्रद्धा है। प्रभु को प्रभुता अनंत हैं। उस अनंत प्रभुता को बताने में भी वे असमर्थ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सित्तहत्तर ] "शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुज थी कहिय न जायजी ॥" क्योंकि सारा विश्व विधान (Cosmic Order) उनकी आज्ञा के आधीन' है। "द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव गुण, राजनीति ए चार जी। त्रास विना जड़-चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कार जी॥" अतः उन्हें पूर्ण विश्वास है कि अनंत प्रभुता सम्पन्न प्रभु को समर्पित होने में ही उनका कल्याण है। एम अनंत प्रभुता सद्दहतां, अर्चे जे प्रभु रूपजी। देवचन्द्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूपजी ।। || शीतल जिन-स्तवन । प्रभु को समर्पित होने में ही सच्चा आनन्द है, यह बतलाते हुए कवि के हृदय की भक्ति धारा फूट पड़ती है। मोटा ने उत्संग, बैठा ने सी चिन्ता । तिम प्रभु चरण पसाय, सेवक थया निश्चिन्ता ॥ अर्थात् बड़ों के गोद में बैठे को क्या चिन्ता है ? वैसे प्रभु के आश्रय में भक्त निश्चिन्त है। प्रभु के प्रति उनके श्रद्धा समर्पण में अन्य किसी को जरा भी अवकाश नहीं है। उनके तो एक ही साहिब है। १- अर्थात् प्रभु की ज्ञान-परिणति से विपरीत संसार का कोई भी पदार्थ चाहे वह जड़ हो, चाहे चेतन हो, कदापि परिणत नहीं होता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अठहत्तर ] "तुज सरिखो साहेब मल्यो, भांजे भव-भ्रम टेव लाल रे । पुष्टालंबन प्रभु लही, कोण करे, पर सेव लाल रे ॥ श्रीमद् में आत्म-लघुत्ता का भाव कूट कूट कर भरा है। वे अपने दोषोंअवगुणों को बिना किसी हिचकिचाहट के प्रभु के सम्मुख स्वीकार करते हैं तथा अपने उद्धार के लिये प्रमु से, बड़े ही मार्मिक शब्दों में विनम्र प्रार्थना करते हैं। तार हो तार प्रभु मुज सेवक भरणी, जगतमां, एटलु सुजस लीजे । दास-अवगुण भर्यो जारणी पोता तो, दयानिधि ! दीन पर दया कीजे ।। 'ताग्जो बापजी विरूद निज , राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो।" ॥ महावीर स्तवन । प्रभु के प्रति भक्त-कवि का प्रेम कितना सहज है-- __ "है इन्द्र चन्द्र नरेन्द्र नो, पद न मांगु तिलमात । मांगु प्रभु मुज मन थकी, न वीसरो क्षणमात्र ॥" प्रभु के प्रति उनका अनन्य प्रेमानुराग कभी-कभी उन्हें दर्शन के लिये उत्कंठित कर देता है, काश ! उनके तन में पांख और चित्त में प्रांख होती ! . . "होवत जो तनु पांखड़ी, आवत नाथ हजूर लाल रे। जो होती चित्त प्रांखड़ी, देखरण नित्य प्रभु नूर लाल रे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उनासी । - भक्त कवि की कोमल-भावनामों का माधुर्य देखिये "प्रभु जीव-जीवन भव्यना, प्रभु मुज जीवन-प्राण । ताहरे दर्शने सुख लहैं, तूं ही ज गति स्थिति जाण ॥ धन्य तेह जे नित प्रह समे, देखे श्री जिनमुख चंद । तुज वाणी अमृत रस लही, पामे ते परमानंद ॥" प्रभु को पाकर उनकी सारी मिथ्या वासना एवं वितृष्णा दूर हो गई है । उन्हें और कुछ भी नहीं चाहिये "दीठो सुविधि जिमंद, समाधिरसे भर्यो हो लाल || स.॥ भास्यो आत्मस्वरूप, अनादिनो बीसों हो लाल ।.।। कवि केवल भगवद् स्वरूप को ही भक्ति का आधार मानकर नहीं चल रहे हैं। अपितु प्रभु के सौन्दर्य-निरूपण को भी भक्ति का अंग मान कर वर्णन करते हैं । "जिनजी तेरा भाल विशाला सित अष्टमी शशी सम सुप्रकाशा, शीतल ने अणियाला । "अति नीके भ्र जिनराज के । अंक रत्न द्युति सब हारी, श्याम सुकोमल नाजुके ।". "है तो प्रभु ! वारी छु तुम मुखनी भ्रमर अर्ध शशी, धनुह कमल दल, कीर हीर पूनम शशी की। शोभा तुच्छ थई प्रभु देखत, कायर हाथ जेम पसिनी ॥" भ्रमर से लेकर पूनम शशि तक के पाठ उपमान एक ही पंक्ति में देकर कवि ने अपने अनूठे रचना कौशल का परिचय दिया है। ये उपमान क्रमशः प्रभु के केश, भाल, 5 , नेत्र, नासिका, दांत एवं मुख के लिये प्रयुक्त हैं। नारी का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अस्सी] सौन्दर्य मदमस्त करता है किन्तु प्रभु का सौन्दर्य "न वधे विषय विराम" का एक अद्वितीय उदाहरण है। श्री सिद्धाचल, गिरनार, सम्मेत शिखर आदि पवित्र तीर्थस्थलों के प्रति आपके हृदय में अनन्य भक्ति थी। अपने इस भक्तिरस को स्तवन-स्तुतियों के द्वारा आपने खूब छलकाया है। वस्तुतः श्रीमद् की भक्त दशा अत्यन्त उच्चकोटि की है । ऊँच्चमात्मदशा, अद्भूत वैराग्य, एवं निजानंद मस्तीः ___ व्यक्ति के उद्गार उसके अन्तरंग भावों के परिचायक होते हैं । हृदय से निसृत उद्गारों में कभी कृत्रिमता नहीं होती। कविता कवि हृदय का दर्पण है । भक्त की स्तवना भक्त का हृदय है। ज्ञानी के ग्रन्थ उसका अन्तरंग जीवन है। अतः श्रीमद् के ग्रन्थों, स्तवनों एवं स्वाध्याय पदों से यह स्पष्ट अनुभव होता है कि श्रीमद् की आत्मदशा अत्यंत उच्चकोटि की थी। शरीर, इन्द्रिय और मन पर उनका गजब का काबू था। उनके विषयराग और कामराग की ज्वालायें शान्त हो गई थीं। वे सतत अप्रमत्तदशा में रमरण करते थे। यही कारण था कि उनका आत्म-जीवन मस्तीपूर्ण एवं आनन्दमय था। उस आनन्द की मस्ती में उनके जो उद्गार निकले वे वैराग्य की खुमारी और अनुभव ज्ञान की लाली से अतिदीप्त हैं। देखिये उनके आत्मदशा के उद्गार "आरोपित सुख भ्रम टल्यो रे भास्यो अव्याबाघ । समर्यों अभिलाषी पणो रे कर्ता साधन साध्य ॥" "इन्द्र चन्द्रादि पद रोग जाणयो, शुद्ध निज शुद्धता धन पिछाण्यो । को आत्म-धन अन्य आपे न चोरे, कोण जग दोन वलि कोण जारे ॥" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इक्यासी] जिन गुण राग-पराग थी, रे वासित मुज परिणाम रे । तजशे दुष्ट विभावता रे, सरशे प्रात्तम काम रे ॥ जिन भक्ति रत चित्तने रे, वेधक रस गुण प्रेम रे ॥ सेवक जिनपद् पामशे रे, रसवेधित अय जेम रे ॥ परमातम गुण स्मृति थकी रे, फरश्यो पातम राम रे ॥ नियमा कंचनता लहे रे लोह ज्यु पारस पाम रे॥ पौद्गलिक संबंधों से उनकी विरक्ति गजब की थी। देहधाारी होते हुए भी वे विदेह थे। वैराग्य की तान में अपने दोषों के लिये प्रात्मा पर उन्होंने जो चाबुक लगाये एवं भविष्य के लिये जो उद्बोधन दिये वे बड़े मार्मिक हैं । "हूं सरूप निज छोड़ी, रम्यों पर पुद्गले । झील्यो उल्लट प्राणो विषय तृष्णा जले । आश्रव बंध विभाव करूं रूचि आपणी, भूल्यो मिथ्यावास दोष द्यु पर भणी ॥ अवगुण ढांकरण काज करूं जिनमत क्रिया, न त अवगुण चाल अनादिनी जे प्रिया ॥ दृष्टिरागनो पोष तेह समकित गणु, स्याद्वादनी रीत न देखु निजपणु ॥ आत्मा को उद्बोधन देते हुए एक पद में कहते हैं, आतम भावे रमो हो चेतन ! आतम भाव रमो । परभावे रमतां ते चेतन ! काल अनंत गमो हो । ... उनके वैराग्य की खुमारी देखिये । मुनि चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बयासी ] "समता सागर में सदा, झील रहे ज्यु मीन । चक्रवर्ती ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥ निस्पृह, निर्भय, निर्मम, निर्मला रे, करता निज साम्राज्य । 'देवचन्द्र' श्रारणाये विचरतां रे, नमिये ते मुनिराज ॥ जहां शान्त-निर्मलवृत्ति, परभाव त्यामवृत्ति एवं स्वानुभव रमणता है, वहाँ आनन्द का अक्षय स्रोत है। कहा है- "परस्पृहा महादुखम्, निः स्पृह्त्त्वम् महासुखम् ।" श्रीमद् का जीवन प्रवधूत योगी का जीवन था । श्राप घण्टों तक ध्यानमग्न एवं शुद्धोपयोग में लीन रहते थे । फलतः आपने जो निजानंदमस्ती 'अलखदशा' एवं 'आत्मसमाधि' का अनुभव किया वह प्रति श्रद्भुत है। उनकी 'निजानंद मस्ती 'अलखदशा' एवं आत्मसमाधि' की झलक देखिये : "प्रभु दरिसरण महामेहतणे प्रवेश में रे I परमानंद सुभिक्ष थयो, मुज देश में रे ॥ Jain Educationa International तीन भुवन नायक शुद्धात्तम, तत्त्वामृतरस वृठुरे ॥ सकल भविक वसुधानी लाणी, मारू मन परण तूठुरे ॥ मनमोहन जिनवरजी मुजने, अनुभव प्यालो दीघोरे ॥ पूरनिन्द अक्षय अविचल रस, भक्ति पवित्र घई पीधीरे ॥ 'ज्ञानसुधा' लालीनी ल्हेरे, अनादि विभाव विसार्यो रे ।। सम्यगज्ञान सहज अनुभव रस, शुचि निजबोध समार्यो रे ।। श्रीमद् जैनशासन के मर्मज्ञ विद्वान एवं पापभीरु महात्मा थे। उनका जोवन पूर्णरुपेण जिमाज्ञा समर्पित था । आपके विचारों में अनेकान्त प्रतिष्टित था । आपके जीवन में निश्चय और व्यवहार, ज्ञान और क्रिया का विवेकपूर्ण सन्तुलन था । क्यों For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तिरासी ] कि उनका शास्त्रज्ञान, आत्मज्ञान के रुप में परिणित हुआ था । यही कारण है कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ साधलिया था' । शुष्कज्ञान या जड़ क्रिया कभी भी आत्म साधक नहीं बन सकती इसे बात का सटीक प्रतिपादन करने के साथ आपने अपने जीवन में ज्ञान और क्रिया को उचित अवकाश दिया । उनकी पूर्ण विश्वास था कि क्रिया के सम्यक् प्रवर्तन के लिए ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञान की परिपक्वता के लिए सम्यक् क्रिया की श्रावश्यकता है । श्रीमद् ने अपने शास्त्रज्ञान को देव गुरू की सेवा और भक्ति, शुद्ध संयम का पालन, उपदेशप्रवृत्ति, संघ और शासन की सुरक्षा एवं ग्रन्थ रचना श्रादि शुभ कार्यो के द्वारा आत्मज्ञान के रूप में परिणत किया था । प्रापने गांव गांव में विचरणकर तीर्थयात्रा, धर्मं प्रभावना यादि के साथ चतुविध श्रीसंघ को तत्व ज्ञान का उदारहृदय से दान देकर प्रात्म कल्याण की सच्ची राह बताई थी। इस प्रकार वे विश्वय की तरफ पूर्ण लक्ष्य रखते हुए। सच्चे ज्ञानयोगी एवं सच्चे कर्मयोगी महात्मा थे। श्रीमद् श्रात्मसाधने के साथ अपने समय के संघ व शासन के सजग ग्रहसे थे। आपने तत्कालीन संघ की हीन दशा को सुधारने का अपना उत्तरवि यथाशक्य निभाया था । श्रीमंद के समय में समाज में तत्वज्ञान की रूचि कम थी। साधुओं को स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी । श्रात्म ज्ञानी और - आचार्यं बुद्धिसागर सूरी जी ने 'श्रीमद् देवचन्द्र भाग दो की प्रस्तावना में तथा करजी ने 'देवचन्द्र जी का जीवन' पृ० ८८ में इस बात की सही माना कि श्रीमद् एकावतारी हैं और अभी केवल ज्ञानी के रूप में महाविदेह में विचरण रहे हैं ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौरासी ] संवेगी मुनि भगवन्त बहुत अल्प संख्या में थे। ज्ञान बिना सम्यक् क्रिया का प्रवर्तन नहीं हो सकता, यही कारण था कि जैन समाज क्रियाजड़ता में आबद्ध हो गया था । क्रिया के क्षेत्र में भेड़ चाल थी। उपदेशक भी ऐसे ही थे । ज्ञानशून्य क्रिया के पालन में ही गुरू और भक्तसच्चे धर्मात्मा, संयमी और समकितधारी होने का संतोष मनालेते थे। ज्ञानियों का आदर भाव कम था। श्रीमद् को संघ की इस दशापर बड़ा दुख था। इस अन्तपीड़ा को उन्होंने प्रभु के सम्मुख मार्मिक शब्दों में प्रकट को है। 'द्रव्य क्रिया रूचि जीवड़ा रे, भाव धर्म रूचि हीन । उपदेशक पण तेहवा रे, शु करे जीव नवीन रे ।। चन्द्रानन जिन. तत्त्वागम जाणग तजी रे, बहु जन सम्मत जेह । मूढ़ हठी जन आदर्यों रे, सुगुरू कहावे तेह रे ॥ चन्द्रानन जिन आणा साध्य विना क्रिया रे, लोके माग्यो रे धर्म। . दसणनाण चरित्तनो रे, मूल न जाण्यो मर्म ३ ॥ चन्द्रानन जिन .... जब तक सम्यकज्ञान की भूमिका पर क्रिया की प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक अहं, ममत्व एवं भूठा अभिमान नष्ट नहीं होता। अनेकान्त दृष्टि नहीं पाती । शास्त्रज्ञान, राग-द्वेष को शांत नहीं कर सकता। फलतः साधु जीवन में भी अपनी झूठी मान-मर्यादा और महत्त्व को टिकाये रखने के लिये निरर्थक कलेश की उदीरणा कर लेते हैं । तथा गच्छ कदाग्रह में पड़कर अपनी अपनी मान्यताओं का पोषण और दूसरों की मान्यताओं का खण्डन कर समाज में द्वेष और क्लेश का वातावरण उत्पन्न करते हैं। श्रीमद् अपने गच्छ और परम्परा के प्रति श्रद्धालु होते हुए भी प्रात्मा को कलुषित करने वाले झूठे ममत्त्व में कभी नहीं पड़े। समर्थ विद्वान होते हुए भी कभी किसी के प्रति क्लेशपूर्ण उद्गार नहीं निकाले । सच्चे स्यावादी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पचासी] के लिए यही शोभनीय होता है । म्याद्वादी सदी परमत सहिष्णु होता है । क्रिया जन्य मतभेदों के अन्दर रहे हुए पात्मज्ञान का दर्शक होता है । श्रीमद् ने अपने प्रभु स्तवनों में स्याद्वाददशा की प्राप्ति की सुन्दर याचना की है। "वीनती मानजो, शक्ति ए प्रापजो भाव स्याद वादता शुद्ध भासे" महात्मा आनन्दघन जी की तरह श्रीमद् ने उन तथाकथित अध्यात्म शानियों को, पू. उपाध्यायजी यशोविजय जो की तरह कसकर चाबुक तो नहीं लगाई किन्तु विनम्र शब्दों में असर कारक शिक्षा अवश्य दी है। 'गच्छ कदाग्रह साचवें, माने धर्म प्रसिद्ध। असम गुण अकषायता, धर्म न जाणे शुद्ध ।। . तत्वरसिके जर्ने थोड़ला रे; बहलो जन सम्वाद। जारणी छो जिनराजे जी रे, संघलों एह विवाद रें।। . चन्द्रानन जिन. श्रीमद् का सर्वगच्छं समभाव केवलं वाचिक ही नहीं था किन्तु व्यावहारिक था। उन्होंने तत्कालीन शिथिलाचार के विरुद्ध संवेगी साधुजनों को संगठित होने का आव्हान किया था। जैन मंध में एकता स्थापित करने का यथाशक्य प्रयत्न किया था। धर्मसागर जी द्वारा समाज में जो कटुता पैदा की गई थी उसे आपने यथाशक्य धो डालने का प्रयास किया था । यही कारण है कि तत्कालीन सभी संवेगी मुनिभगवन्त ज्ञानविमलसूरिजी, क्षमाविजयजी आदि के साथ आपका अच्छा स्नेह संबंध था । जिनविजयजी, उत्तमविजयजी एवं विवेकविजयजी के जीवन को तेजस्वी बनाने में प्रापका पूरा पूरा सहयोग रहा । अतः सभी गच्छवालों के लिए आप श्रद्धापात्र थे और आज भी हैं । श्रीमद् की एक ही इच्छा रहती थी की सभी प्रात्मा तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर प्रभु के सच्चे अनुयायी बनें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छियासी] श्रीमद् के समय की अपेक्षा आज की स्थिति भी कोई अधिक सन्तोष जनक नहीं है । अतः श्रीमद् का ज्ञान क्रिया से सुवासित व्यक्तित्व और कृतित्त्व आज भी वही महत्व रखता है। -उपसंहारश्रीमद् १८ वीं शताब्दी को उज्ज्वल करनेवाले युग प्रवर्तक, महान् आध्यात्मिक नेता थे। विद्वत्ता के साथ साधुता के सुमेल के कारण आपका व्यक्तित्व निर्दोष, निष्कलक एवं सर्वातिशाही था। यद्यपि श्रीमद् प्राचार्य न बने, ऐसे त्यागी, निस्पृही महात्मानों के लिए पदवी भी उपाधि ही है-तथापि अपने अनन्य दुर्लभ अनेक सद्गुणों के कारगा सभी गच्छ में उनके प्रति जो आदर, भक्ति, श्रद्धा और बहुमान था और आज भी है वह किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। उन्होंने ज्ञानयोगी और कर्मयोगी का समन्वित जीवन जीकर स्वार्थ और परार्थ की जो साधना की, धर्म और समाज की जो मेवा की वह अपूर्व है। आज उनकी अविद्यमानता में भी उनके अनमोल ग्रन्थ मोक्षार्थियों के लिये मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं और भविष्य मे करते रहेंगे। इस दृष्टि से यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं हैं कि वे प्राचार्यों के भी प्राचार्य थे उस युग के प्रधान पुरुष व महान् आगमधर थे। उनके हृदय में प्रभु के प्रति सच्चा समर्पण, विचारों में अनेकान्त, वाणी में विवेक एवं आचरण में कठोर संयम साधना थी । यही कारण है कि तत्कालीन साधु-समाज एवं संघ में आपका अद्वितीय प्रभाव था। धर्म सागर जी को गलत प्ररुपणानों के कारण १७ वीं शताब्दी में जैन संघ को एकता छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। ऐसे कदाग्रह के बाद पू. जिनविजय जी पृ. उत्तमविजयजी एव पू. विवेकविजयजी जमे तपागच्छ के स्तंभभूत मुनियों का गुरुभक्त शिष्यों की तरह आप से शास्त्राध्ययन करना, इतना ही नहीं इस प्रसंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सतासी] को चिरजीवी बनाने के लिए अपने अपने ग्रन्थों में आदर पूर्वक इसका उल्लेख करना एवं श्रीमद् की स्तवना करना, कोई सामान्य बात नहीं है । पन्यास पद्मविजय जी जो कि ४५ हजार गाथाओं के रचयिता, 'पद्मद्रह' के नाम से प्रसिद्ध है, उन्होंने उत्तमविजय जी 'निर्वाणरास' में आपके लिए क्या ही भव्य उद्गार निकाले हैं। "खरतरगच्छमाही थया रे लोल, नामे श्री देवचन्द्र रे सोभागो, जंन सिद्धान्त शिरोमणी रे लोल । धैर्यादिक गुणवन्द रे सौभागी। देशना जास स्वरुपनी रे लोल....... पन्यासजी श्रीमद् के लिए जैन सिद्धान्त शिरोमणी एवं "धर्यादिक गुण वृन्द" जसे विशेषण देते हैं तथा उनकी देशना को आत्म स्वरुप का प्रकाशन करने वाला कहा है। पन्यासजी ने जो कुछ कहा उसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं हैं, क्योंकि वे गृहस्थी में और साधु बनने के बाद भी श्रीमद् के निकट परिचय में रहे थे। उन्होंने जो कुछ कहा वह श्रीमद् के जीवन का साक्षात् अनुभव करके कहा है। मस्तयोगी ज्ञानसारजी ने भी 'साधुपद् सज्झाय' के टब्बे में श्रीमद् को महान् पात्मज्ञानी, वक्ता महापण्डित, महाकविराज आदि विशेषणों द्वारा संबोधित किया है। उन्होंने कहा है कि श्रीमद् को एक पूर्व का ज्ञान था। ऐसे ऐसे महान् विद्धान् एवं ख्याति प्राप्त मुनिभगवन्तों ने जिनकी महत्ता, विद्धत्ता और साधुता की स्तुति की ऐसे श्रीमद को युग प्रवत्तक कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं हैं। ___ इस बीसवीं सदी में भी आपके सद्गुणों को समर्पित गुणानुरागी आत्माओं को कमी नहीं हैं । आज भी सभी गच्छों में आपकी प्रतिष्ठा है। महाविद्धान् अनेक ग्रन्थों के रचयिता, योगनिष्ठ आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरिजी तो आपके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [अंठासी] अनन्य अनुरागी थे। श्रीमद् के साहित्य से तो वे इतने प्रभावित थे कि जनसाधारण के लाभ के लिये श्रीमद् की कृतियों को भारी श्रम पूवक संग्रह कर श्रीमद् देवचन्द्र नामक दो भागों में प्रकाशित करवाई। तथा भाग दो की प्रस्तावना में 'श्रीमद् के व्यक्तित्व और कृतित्व' के बारे में जो भव्य उद्गार निकाले वे यथार्थ होने के साथ साथ उनकी साधुता एवं गुणानुराग के प्रतीक हैं . धन्य है, उन महात्मा बुद्धिसागरसूरिजी को जिन्होंने गच्छ कंदाग्रह से दूर रहकर 'सच्चा सो मेरा' का अनूठा आदर्श प्रस्तुत किया । इसी तरह अध्यात्मयोग साधक, संतहृदय स्वामी जी श्री ऋषभदासजी भी आपको सात्त्विकत्ता पूर्ण तात्त्विक्ता के अत्यन्त अनुरागी थे। श्रीमद् की रचनाओं का अध्ययन कर उन्होंने जो प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त किया वह उनके ही शब्दों में पढ़िये-- "वे बड़े आगम-व्यवहारी, सच्चे अध्यात्म पुरुष थे और ग्रहत दर्शन को मान्यतानुसार वे बड़े आत्मयोगी पुरुष थे, इसमें कोई शक नहीं।" "श्रीमद् ‘देवचन्द्र' जी को साहित्य-रचना से प्रभु की प्रभुता, समर्पणभाव, प्राशयं विशुद्धि का आधार लेकर, ही मैं आत्मयोग सरोवर में चंचुपात कर रहा हूं। समुद्र के प्रवास में जैसे प्रवहण ही आधार रूप हैं, इसी तरह से इनके प्रवचन रूपी प्रवहण, मेरी प्रात्मयोग साधना में मेरे लिये पुष्टावलंबनरूप है । अगर यह आधार न मिला होता तो इस भयानक भवसागर को पार करने का साहस भी नहीं होता।" - इस तरह आपके ग्रन्थों का रसास्वादन कर कई अध्यात्मप्रेमी, आत्माओं ने आपके चरणों में भावात्मक श्रद्धा-सुमन अर्पित किये हैं और कई हृदय मूकरुपेरण प्रतिदिन अर्पित कर रहे हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ नधासी] - 'सहुस्थापे अहमेव' के युग में आपने तत्त्वज्ञानपूर्ण ग्रन्थों, भक्ति से भरे स्तवनों एवं वैराग्यपूर्ण सम्झायों आदि के रूप में जो भेंट दी वह समाज की अनमोलनिधि है। न मालूम कितने भाग्यशाली आत्मा उनके ज्ञानसुधासिन्धुर में अवगाहन कर अजर, अमर, अविनाशो बनेंगे। वस्तुतः उनके ग्रन्थों का चिन्तन, मनन और अनुशीलन प्रात्मस्वरूप का भान कराने में परम सहायक हैं । - श्रीमद् का जीवन इन्द्र-धनुष की तरह बहुरंगी एवं विराट है। इतना कुछ लिखने पर भी उनके जीवन के कई पहलू अछूते रह जाते हैं। अतः उनके व्यक्तित्व का साक्षात्कार करने के लिये उनके ज्ञानसमुद्र में डुबकियां लगाना ही आवश्यक है । इसलिये, मुमुक्षु आत्माओं से मेरा नम्र अनुरोध है कि दृष्टिराग का स्यागकर श्रीमद् के ग्रन्थों का अध्ययन-मनन करें और आत्मदशा का भान कर शिव सुख का वरण करें। श्रीमद् का जीवन-चरित्र लिखते लिखने कई बार मुझे कालिदास का वह कायम याद आता रहा कि क्व सूर्य प्रभवो वंश, क्व चाप विषयाः मतिः । त्तितीर्ष दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ।। कहां उनके व्यक्तित्व की भव्यता ! और कहां मेरी प्रशता ! कहां उनके कृतित्व की महानता ! और कहां मेरे शब्दों की तुच्छता ! उनके 'सागरगंभीर' व्यक्तित्व की मेरो अल्पमति से थाह पाने का प्रयत्न करना मेरा दुस्साहस ही होगा, किन्तु वाचकवर्य 'उमास्वातिजी' ने जो कहा है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस क्षमायाचना के स्वर में स्वर मिलाकर मैं भी कहती हूं कि - 'श्रीमद् के जीवनवृत्त का प्रलेखन करने में त्रुटियां रहना स्वाभाविक है, किन्तु मैं उन वात्सल्यमूत्ति, अध्यात्मयोगी, महान् सन्त के परम पावन चरणारविन्दों में श्रद्धावनत हो इस अनधिकार चेष्टा के लिये पुनः पुनः क्षमायाचना कर लेती हूं । वे भी मुझे क्षमा करें । [ नब्बे ] " यच्चासमंजस मिह, छन्द शब्दार्थतो मयाऽभिहित्तम् पुत्रापराधवन्मम मर्षयितव्यं बुधैः सर्वम् ||" श्रीमद् की कीर्ति सर्वभक्षी काल का उपहास करती हुई, दो सदियों से प्रखण्ड रूप से चली रही है और भविष्य में भी चलती रहेगी, यह निर्विवाद है । श्रीमद् जैसे समभावी, गच्छ कदाग्रह से दूर, जिनाज्ञा समर्पित, आगमधर, ज्ञानयोगी एवं कर्मयोगी जगत् में श्रात्मप्रेम के पूर बहानेवाले, जगत् में मंत्री भाव का प्रसारकर श्रात्मसौन्दर्य की झांकी करने वाले महापुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व, अज्ञानांधकार में भटकती हुई श्रात्माओं के लिए प्रकाश स्तंभ ( Search Light) बनकर सदा-सदा के लिए दिशानिर्देश करते रहें, यही मंगल कामना है । वन्दना के इन स्वरों में. अन्त में श्रीमद् के अनन्य अनुरागी प्राचार्य प्रवर श्री बुद्धिसागरसूरिजी के शब्दों द्वारा श्रीमद् के पावन चरणों में श्रद्धा-सुमन अर्पित करती हुई यह इतिवृत समाप्त करती हूं । X Jain Educationa International "ज्ञान दर्शन चारित्र, व्यक्तरूपाय योगिने । श्रीमते देवचन्द्राय संयताय नमो नमः ॥ X X For Personal and Private Use Only X Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [इक्यानवे] "संभूत अन्तरात्मा य, आत्मानुभववेदकः। अप्रमत्तदशायोगी, जिनेन्द्राणां प्रसेवकः ।। श्रुतागम प्रलीनाय, भक्ताय ब्रह्मरागिणे । चिदानन्दस्वरूपाय, सर्वसंघस्यरागिणे ॥ ध्यानसमाधिरक्ताय, विश्ववन्धाय साधते । श्रीमते देवचन्द्राय, पूर्णप्रित्या नमो नमः ।। (देवचन्द्र-स्तुति) और कहती हूं किवन्दना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो............. खरतरगच्छीय जैन धर्मशाला • । पाली (राज.) १० २०३४, वैशाखी पूर्णिमा सन्त-चरण-रज साध्वी हेमप्रभा श्री Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र प्रशुद्ध .. शुद्ध २४ ता ५६ ५६ तो सहुणी साहुणी मुमता सुमता कृननीतीर्थ कृतनीतीर्थ दीर्घकाजी दीर्घकाली ए खत ऐर वत पयत्ला - पयना महंता महंत मीना मानो अनहार अनुहार फूट नोट ४ में १ लाख के स्थान पर ६१ लाख समझना प्रातार प्राचार द्रढय द्रव्य र्सयम संयम उपयाग उपयोग धर ने धर जे जाव जीव शुल्क शुक्ल मंडार भंडार mew< .. - Ka १०६ ال م م १३६ १३८ ه م १४४ १४५ १५८ १६२ م سه س Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा प्रशुद्ध उम्माद उन्माद सर्व ११ स्यारथवंत स्वारथवंत १७६ १८६ सख १७४ फुट नोट में शब्दार्थ के अर्थ इस प्रकार समझे १ को ३ का अर्थ २ को ४ का , ३ को ५ का , ४ को ६ का ५ को ७ का , ६ को १ का , ७ को २ का , तेईस पृष्ठ फुट नोट संख्या २ को चौबीस पृष्ठ का फुट नोट २ का समझे। पच्चीस पृष्ठ का फुट नोट १ को चौवीस पृष्ठ के फुट नोट का समझें । TE TEE Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अागामी प्राकर्षण श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज को प्रथम कृति -: ध्यान दीपिका चतुष्पदी : जिसमें ध्यान जैसे गूढ़, गहन एवं गंभीर विषय का सरल विवेचन है। इसमें छः खंड, अट्ठावन ढालें, बारह भावनाएँ, पंच महाव्रत, धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान, पिंडस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान के गूढ़ तत्वों का सुन्दर निरूपण किया गया है। यह अपने विषय की राजस्थानी पद्यों में सरल व सुगम अद्वितीय कृति है। इसे शीघ्र ही प्रकाशित किया जा रहा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड मंगल धरम उछव समै जैन पद कारण उत्तम मंगल प्राचर ए। भाव मंगल तिहां देव अरिहंत प्रभु जेहथी परम मंगल वरै ए ॥ तेहना नाम नै जाउ हूं भामणे' खिण खिण हरख समरण करै ए। पंच कल्याणके जेम सुरपति करै तेम जिन भगति भवि आदरै ए ॥१॥ भाव मंगल तणी पुष्टता' कारण द्रव्य मंगल भला कीजिये ए। तिहां गुण पूर्णता ईछता भविक जन कुभ थिर पूरण लीजिये ए॥ पदम आसन ठव्यो पदम पौ व्यौ मंत्र पवित्र थी जापीय ए। जिनवर जिमण दिसि हरख भर हीय पूरण कलश नै थापिय ए ॥२॥ माहरा नाथ नै परम मंगल हुज्यो मंगल संघ चोविह मणी ए। मंगल तीर्थ ने मंगल चैत्य ने मंगल तेह करता भरणी ए॥ मंगल सिद्धाचले मंगल गिरनार मंगल तेह करता मणी ए। जैन शासन तणो हरखि मंगल करै तेण पाणंद अति ऊपजै ए॥ च्यवन (अवन)अवसर सभै मोत न। गर्भ में इन्द्र नै हरख जे संपजै ए ॥३॥ सेम प्रासाद नी थापना अवसरै कूभ थापन समै हरखीय ए। जेम संसार नाकारज कारण लोक संसार मंगल कर ए ॥ सेम जिन धर्स ना वृद्धि नै कारण श्राविकासु विधि मंगल धरै ए। परम आनंद भरि धन्यता मानतां गीत मंगल धुनि ऊचर ए॥ देवना देवने मंगल कीजतां देवचन्द्र पद अनुसरे ए ॥४॥ ॥ इति मंगलम् ॥ -पुष्टि नै २-जमणी दिसे ३-हियडले ४-कारण बलिहारी, न्यौछावर २-प्रभु के दांई और कलश रखना। - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष नमस्कार त्रिभुवन जन आनन्द कंद चंदन जिम सीतल ज्ञान भानु भासन समस्त जीवन जगती तल उत्कृष्टे जिनराज देव सत्तरिसो' लहीयै नव कोडी केवलि मुनीस सहस नव कोड़ी कहियै ।।१।। वर्तमान जिन ईस वीस दो कोड़ी केवलि महस कोडि दुग साधु संत वंदो नित वलि वलि । प्रणमी गणधर सिद्ध सर्व खामि सवि जीव आलोई पातक अढार मिथ्यात्व अतीव ॥२॥ सुकृत क्रिया अनुमोदि जीव भावो इम भावना तजि स्यूहु कर्म सवि विभाव परभाव कुवासन तत्त्व रमण रस रंग राचि रत्नत्रय लीनो सुद्ध साधन रसी निज अनुभव भीनो ॥३॥ करी कर्म चकचूरि भूरि केवल पद पामी अव्याबाध अनंत शान्ति लहस्यु हुं स्वामी ए रुचि ए साधन सदीव' करतां सुख लहीयै देवचंद सिद्धान्त तत्त्व अनुभव रस गहीये ॥४॥ व इति नमस्कार ..:.१- १७० . २- सदैव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वज्रधर जिन स्तवन ( नदी यमुना के तीर । ऐ देशी) विहरमान भगवान सुणो मुझ वीनति । जगतारक जगनाथ, अछो त्रिभुवन पति ।। भासक लोका लोक, तिणे जाणो छती । तो पण वीतक वात, कहूं छू तुझ प्रति ॥१॥ हूं सरूप निज छोडि, रम्यो पर पुद्गले । झील्यो उल्लट प्राणी, विषय तृष्णाजले ॥ पाश्रव बंध विभाव, करुं रुचि आपणी । भूल्यो मिथ्यावास, दोष द्यु परभणी ॥२॥ अवगुण ढांकण काज. करू जिनमत क्रिया । न तजु अवगुण चाल, अनादिनी जे प्रिया ॥ दृष्टिरागनो पोष, तेह समकित गणु । स्याद्वादनी रीति, न देखु निजपणु ॥३॥ मन तनु चपल स्वभाव, वचन एकान्तता । वस्तु अनन्त स्वभाव, न भासे जे छता ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष जे लोकोत्तर देव, नमूं लौकिकथी । दुर्लभ सिद्ध स्वभाव, प्रभो तहकीकथी ।।४।। महाविदेह मझार के, तारक जिन वरु । श्रीवज्रधर परिहन्त, अनन्त गुणाकरु ॥ ते निर्यामक श्रेष्ठ, सही मुझ तारसे । महावैद्य गुणयोग, रोग भव वारशे ॥५॥ प्रभु मुख भव्य स्वभाव, सुणू जो माहरो । तो पामे प्रमोद, एह चेतन खरो ॥ थाय शिव पद आश राशि सुखवृन्दनी । सहज स्वतन्त्र स्वरुप, .. खाण पाणंदनी ॥६॥ . वलग्या जे प्रभु नाम, धाम तेगुणतणा । धारो चेतनराम एह थिरवासना ।। देवचन्द्र जिनचन्द्र, हृदय स्थिर थापजो । जिन आणायुत भक्ति, शक्ति मुझ प्रापजो ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड पार्थ जिन चैत्य बंदन जय जिणवर जय जगनाह, जय परम निरंजण । जय परमेश्वर पास नाह, दुख दोहग · भंजण ।। वामा उरवर हंसलो ए, मुनिवर मन अाधार । समरंता सेवक भगी, तु तारे संसार ।। १ ।। च्यवन चैत्र वदि चोथ (दिन),नमीया सुर(नर) इंद । दशम पोष वदी (शुभ समे), जन्म थयां जिनचंद ।। मरु शिखर नवरावीयो ए, मली चौसठ सुरिद । पाप पंक निज धोयवा, लेवा परमानंद ।। २ ।। पोषह वदी इग्यारसे, प्रभु संजम लीधो । धीर वीर खंति' पमुह, गुण गणह समिद्धो । लोका लोक प्रकाशकर, पाम्या केवल नाण । चैत्रह वदि च उथी दिवस, अतिशय गुणह पहाण ।। ३ ।। श्रावण सुदि आठम दिवस, जिण शिवपुर पत्तो । श्री सम्मेते अड़ अनंत, अविचल गुण रत्तो ।। कल्याणक जिनवर तणा ए, आपे परम कल्याण । देवचंद्र गणि संथुवे, पास नाह जग' भाण ।। ४ ।। १-वामा माता के हृदय-सरोवर के हंस २-क्षमा आदि ३-जगत् में सूर्य समान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष प्रभु स्मरण पद (तर्ज......... ..... .... बेर बेर नहिं आवे) प्रभु समरण की हेवा' रे हमकु प्रभु० प्रभु समरण सुख अनुभव तोले, नांवे अमृत कलेवा रे.....हम कु.१ एक' प्रदेश अनंत गुणालय, पर्यय अनंत कहेवा रे.....हम कु.२ पर्यय पर्यय धर्म अनंता, अस्ति नास्ति दुग भेवा रे.....हम कु.३ प्रभु जाने सो सब कु जाने, शुचि भासन प्रभु सेवा रे.....हम कु.४ देवचंद सम तम सत्ता, धरो ध्यान नित मेवा रे.....हम .५ पद (राग--जय जय वंती) ज्ञान अनंतमयी, दान अनंत लई; वीर्य अनंतकरी, भोग अनंत है १ क्षमा अनंत संत, मद्दव अज्जव वंत; निष्पृहता अनंत भये, परम प्रसंत है २ स्थिरता अनंत विभु, रमण अनंत प्रभु; चरण अनंत भये, नाथ जी महंत है ३ देवचन्द को है इंद, परम आनंद कंदः अक्षय समाधि वृद, समता को कंत है ४ १-पादत २-प्रभु-स्मरण से जो सुख होता है, उसके तुल्य सुख अमृत का कलेवा' नहीं दे सकता है। ३-प्रभु का एक एक प्रदेश अनंत गुणों का प्राश्रय है और एक गुण की अनंत २ पर्याय है तधारक २ पर्याय में अनंत २६र्म है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मखण्ड श्री ऋषभ जिन स्तवन राग-प्रभाती आज आणंद वधामरणा, आज हर्ष सवाइ । ऋषभ जिनेश्वर वंदीये, अनुपम सुखदाइ ॥आज.।।१॥ सारथवाह भवे लही, शुचि' रुचि हितकारी । आनंद वैद्य भवे करी, मुनि सेवा सारी ।।प्राज.।।२।। चक्री भव संजम लही, थानक' (वीस) पाराधी। सर्वार्थ सिद्धथी चवी, जिन' पदवी लाधी ।।आज.।।३।। काल' असंख्य जिन धर्म नो, प्रभु विरह मिटायो । गणधर मुनि संघ थापना, करी सुख प्रगटायो ।प्राज।।४।। मरु देवा सुत देखतां, अनुभव रस पायो । देवचंद्र जिन सेवना, करि सुजस उपायो ।आज.।।५।। - सम्यग्दर्शन-समकित २-वीसस्थानक तप ३-तीर्थकर पद ४-ऋषभदेव भगवान ने १८ कोड़ा कोड़ी सागर तक लुप्त हुए धर्म का पुनः प्रवर्तन किया, इस तरह भव्य जीवों के लिये इतने दिन का जो धर्म का वियोग था, उस वियोग को मिटाया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ 1 रत्नाकर पच्चीसी भावनुवाद रूप बीनती स्तवन श्रेय' श्री रति गेह छो जी, नर सुर पति नत पाय । सर्व जण अतिसय निधीजी, जय उपयोगि प्राय || १ || 3 जगत गुरु वीनतड़ी अवधार | जग ग्राधार कृपामयी जी, शव विकार* गद टालवा जी, जागा भरणी जे भाखवु जी, पिरणं अशुद्धता आपरणी जी, श्रीमद देवचन्द्र पद्य पीयूष निष्कारण जग बंधु । वैध अछो गुगा सिंधु || २ || || ते तो भोलिम भाव । वीनवियै लहि दाव ||३|| ज. ॥ मावीत्र आगल बालके जी, स्युं लीलै न कहाय । साधु पश्चाताप थी जी, निज आशय कहिवाय ||४|| ज || दान शील तप भावना जी, जिन प्राणायै न की । वृथा भम्यो भव सायरें जी, प्रतम हित नवि लीध ।। ५ ।। ज ।। को अनि दाधो घरणुजी, लोभ महोरग' दष्ट | मान ग्रस्यो माया कल्योजी, किम सेवुं परमेष्टि || ६ || ज. ॥ हित न कर्यों मैं परभवे जी, इह परण नवि सुख चूप । हे प्रभु अम शत भव कथाजी, केवल पूरण रूप ||७||ज ।। Jain Educationa International २- नरेन्द्रों, देवेन्द्रों से पूजित है पैर जिनके १- मुक्ति मंगल और क्रीड़ा के घर हो ३ - सर्वज्ञ ४ - विपुल ज्ञान सम्पदा के भण्डार ५-संसार रूपी रोग ६-समय पाकर ७- प्रभु को प्राज्ञा ८ - जलमा ह-अजगर For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड [ . प्रभु' मुख चन्द्र संयोग थी जी, महानन्द रस जोर । नवि प्रगट्यो तिण वन्न थी जी, मुझ मन अतिहि कठोर ॥८॥ज।। भव भमिवै दुर्लभ लही जी, रत्नत्रयी तुम साथ । ते हारी निज़ पालसै जी, किहां पुकारू नाथ ॥६॥ज।। मोह विजय वैराग्य जे जी, ते पर रंजन काम । निज पर तारन देशना जी, ते जन रंजन ठाम ।।१०।।ज।। विद्या तत्व परिखवा जी, ते पर जीपण ढाल । परम दयाल किती कहूँ जी, मुझ हासा नी चाल ॥११॥ज।। पर निंदा मुख दुखव्यो जी, पर दुख चित्यो रे मन्न । पर स्त्री जोगे आँखड़ी जी, किम थांस्युहूँ धन्न ।।१२।।ज।। काम वसै विषपि पण जी, भोग विडंबन वात । ते स्यु कहीइ लाजताजी, जाणो छो जग तात ।।१३।।ज॥ परमातम पद नीपजे जी, श्री नवकार प्रभाव । तेहा कुमंत्रि ध्वंसियोजी, इंद्री सुख नै दाव ।।१४।।ज.।। श्री जिन आगम दूखव्यो जी, करी कुशास्त्र नो रंग । अनाचार अति प्राचरया जी, भूलि कुदेवं नै संग ।।१५।।ज.।। दृष्टि प्राप्य प्रभु मुख तजी जी, ध्यावु नारी रूप । गहन-विर्ष-विष-धूम थी जी, न रहुं आत्म स्वरूप ॥१६॥ज.।। १-प्रभु के मुखरूपी चन्द्र के दर्शनकरते हुए भी मेरे हृदय में आनन्द रुपी रस प्रकट नहीं हुअा, मेरा हृदय वच की तरह कठोर है। २-सांसारिक सुखों के लिये मैंने नवकार मन्त्र का दुरुपयोग किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष मृग नयणी मुख निरखतां जी, जे लागो भन राग । न गयौ श्रुत जल धोवतां जी, कुण कारण महाभाग ।।१७।।ज.।। अंग १ चंग गुणनवि कला जी, नविवर प्रभुता रे काय । तो पणि माचु लोक में जी, मान विडंबित काय ।।१८।।ज.।। प्रति क्षण-क्षण आउखो घटेजी, न घटे पातक बुद्धि । योवन वय यातां वधै जी, विषयाभिलाष प्रवृद्धि ।।१६।।ज.।। प्रोषध तन रख वालवा जी, सेव्या आश्रव कोडि । पिण जिन धर्म न सेवीयो जी, ऐ ऐ मोह मरोड़ि ॥२०॥ज.।। जीव कर्म भव शिव नहीं जी, विट मुख वाणी रे पीध । तुझ केवल रवि जगम्यै जी, आप संभाल न कीध ।।२१।।ज.।। पात्र भक्ति जिन पूजना जी, नवि मुनि श्रावक धर्म । रत्न विलाप परै करयौ जी, मुझ माणस नौ जन्म ॥२२॥ज.।। जैन धर्म सुखकर छते जी, सेव्यु विषय विभाव । सुरमरिणः सुरधट3 ईहना जी, ऐ ऐ मूढ स्वभाव ।।२३।।ज.।। भोग लीलते रोग छै जी, धन ते निधन समान । दारा कारा नरक ना जी, नवि चारूए निदान ॥२४॥ज.॥ साधु आचार न पालीयो जी, न करयो पर उपगार। तीर्थ उद्धार न नीपनो जी, ते गयो जमारो हार ॥२५॥ज.।। दुर्जन वचन खमै नहीं जी, श्रुत योगे नवि राग। लेश अध्यातम नवि रम्यो जो, किम लहस्यु भाव ताग ॥२६।।ज.।। १- शारीरिक-स्वास्थ्य। २-चिन्तामणि । ३- कामघट। ४- चाहना। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड ११ ] न करयो धर्म गयै भवै जी, करवउं पिरण अति कष्ट । वर्तमान भव रंगता जी, तिण तीने भव नष्ट ।।२७॥जग ।। प्रभु पागल स्यु दाखवउजी, मुझ पाश्रव पर चार । तीन काल जाणग अछोजी, तरीये तुझ आधार ॥२८॥जग.।। भद्रक र मुनि बुद्धइ नमै जी, तेमां हरखुरे आप । मुनि पद हँस करू नहीं जी, ए सबलो संताप ॥२६॥जग.॥ जिन मत वितया' प्ररूपणाजो, करतां न गणी रे भांति । जस इद्री सुख लालचे जी, कोधू काल व्यतीत ॥३०॥जग.॥ तत्व अतत्व गवेषणा जी, करवी पिण अति दूर । तत्व प्ररूपक मान थी जी, विस्तारू भव भूरि ॥३१॥ जग.।। तुम सम दीन दयालुप्रो जी, नवि बीजो जिन राज । दया ठाम मुझ सारिखो जी, छे बीजो कुग आज ।।३२।।जग.।। श्री सिद्धाचल मंडणो जी, ऋषभदेव जिन राज । रत्नाकर सूरें स्तव्यो जी, निर्मल समकित काज ॥३३॥जग.।। कलश निज नाण सण चरण वीरज परम सुख रयणो यरौ। जिनचंद्र नाभि नरेंद नंदन त्रिजग जीवन भायरो । उवझाय वर श्री दीपचंदह सीस गणि देवचंद ए। संथव्यो भगतें भविक जन ने करो मंगल वृ'द ए॥३४॥ इति स्तवनं संपूर्णम् .. ... 1- क्या बताऊ ? २- भोले व्यक्ति मुनि बुद्धि से मुझे नमस्कार करते हैं। ३- उत्सूत्र-प्ररूपणा ४- तत्त्व क्या है ? अतत्त्व क्या है ? इसका कोई विवेक नहीं है, फिर भी अपने आपको तत्त्व-प्ररूपक मानता हुप्रा. संसार वृद्धि करता हूं ५. रत्नाकर-समुद्र ६-भ्राता ७- स्तुति की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष ध्यान चतुष्क विचार गर्भित श्री शीतल जिन स्तवन दुहा- प्रणमी शीतलनाथ पय, सुख सम्पतिः दातार ।। विधन विडारन भय हरणं, धरि मनि भाव अपार ॥॥ श्री सद्गरू ना पय नमी, मन सुकरीय विचार। ध्यान' भेद संखेप सु, कहिसु मति अनुसार ॥२॥ ढाल १ रामचंद कइ वाग, एहनी। चार ध्यान विसतार, सुणिज्यो भाव धरी री। कहिस्यु श्रुत अतुसार, अहि मनि टेक खरी री ॥१॥ आर्त रौद्र वलि धर्म, चउथउ शुकल थुण्यउ री।" कहिस्यु मति इक चित्त, जिम गुरू पास सुण्यउ री ॥३॥ संका मोह प्रमाद, कलह विज्ञ भय कारी । । भ्रम उन्माद विशेष, धन संग्रह अधिकारी ॥३॥ काम भोग नी चींत जे जन मन. मई रांखइ। . . आर्त ध्यान तिण मांहि, लहीयइ इम श्रुत साथइ. ॥४॥ प्रथम ध्यान ना पाय, च्शार कह्या श्रत संगइ। प्रथम अनिष्ट संयोग, बीजउ इष्ट वियोगइ ॥५॥ १- ध्यान के भेदों को बताते हुए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड तीजउ रोग निमित्त, मन मई चित्त धरइ री। चउथउ सुख नइ काजि, जीव नियाण करइ री ।।६।। यक्ष दैत्य विष साप, जल थल जीव सहू री । सायण डायण भूत, गाजै सींह बहू री ॥७॥ नयडइ ' आव्यइ दुःख, जे मन क्रोध करइ री। टालु दूरइ एह, मन मई एम धरइ री ।।८।। एहवउ दुष्ट स्वभाव, जिण रइ चित्त रहइ री। आर्त अनिष्ट संयोग, जिनवर तेथि कहइ री ।।६।। भोग सुहाग' विशेष, चित्त वंछित सुह दाता । बांधव मित्र कलत्र, ऋद्धि पितृ वली माता ॥१०॥ हुयइ इष्ट वियोग, एहवउ ध्यान भिलइ री। करूं कोइ उपाय, जिण सुइष्ट मिलइ री ॥११॥ इष्ट मिलेवा काज, मन संकल्प वहइ री । ध्यान ए इष्ट वियोग, बीजउ आर्त कहइ री ।।१२।। कास श्वास ज्वर दाह, जरा भगंदर रोगा । पित्त श्लेश्म अतिसार, कोष्टा दिक ना योगा ॥१३॥ एहवइ उपनइ रोग, मन मइं चिंत करइ री । औषध करइ अपार, सुख कारण विचरइ री ॥१४॥ - किसी भी तरह का दु.ख नजदीक आने पर २-सौभाग्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयू क्रोध मोह मद लुद्ध, मन मई दुष्ट धरइ री । रोग चित्त इण नाम, तीजउ आर्त कहइ री १५।। राज रिद्धि सुख पूर, काम भोग नित चाहइ । धन संतान निमित्त, देह कष्ट बहु साहइ' ॥१६॥ वासुदेव चक्रवर्ति सुर किन्नर पद काजइ । इह लोक नइ परलोक, सूख वांछा मन छाजइ ॥१७॥ करइ तपस्या नित्त, मन मइं जे पद चाहइ ।। भण्यउ नियायो नाम, प्रात अत्य अवगाहइ ।।१८।। इति आर्तध्यान दूहा-सदा त्रिशूलउ' शिर रहै, अांखे क्रोध अपार । बोलइ इम कडा वचन, मुखइ मकार चकार ।।१।। दुष्ट परिणामी खल सदा, विनयहीन वाचा (ल)। ...............॥२॥ ...................................-.---.-... ----.... . . . . . . . नवि करइ, प्रथम पायो तिण जाण रे ॥३॥ए.।। एह मुझ जीव अनादि नो, कर्म जंजीर संयुक्त रे। पाडुग्रा' कर्म व लंक थी, कोज स्यर किरण दिन मुक्त रे ॥४॥ए.॥ आत्म गुण परगट कदि हुस्यै, छोडि पर पुदगल संग रे। एह विचार अहनिशि कर, एह वीजौ धूम अंग रे ॥५॥ए.॥ १-सन्तानादिक के लिये बहुत से कष्ट उठाना २-हमेंशा नाक भों चढ़ी रहना. ३-दुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड [ १५ जीव उदय . शुभ कर्म रइ, पामइ छइ सुख अपार रे । अशुभ उदय दुक्ख ऊपजइ, एह निश्चै करी धार रे ॥६॥ए।। नरक भई दुक्ख जे तई' सहया, तेह आगइ किसू एह रे । पाय तीजइ इसउ चीतवइ, इम करइ भव' तणउ छेह रे ॥७॥ए.।। शब्द आकार रस फरस सब, गंध संस्थान संघयण रे । रुप ध्यावइ वली आपणउ, तजीय मोहादि वलि मयण' रे ॥ाए.॥ जीव जग तीन मइ छइ किना, जीव मइ तीन जगसार रे । जीव वडउ जगत्रय वडउ जीव जग तीन सिणगार रेहए.॥ ए सरूप जगत्रय तणउ, चीतवइ चित्त मई नित्य रे । तेथि संस्थान विचय भवउ, पाय चउथउ धूम कित्त रे ॥१०॥ए.।। दूहा-धरम ध्यान ध्याया पछी, सुख शिव पद दातार। . शुक्ल ध्यान ध्यावे भविक, प्रातम रूप उदार ॥१॥ च्यार पाय तिण शुक्ल ना, पृथक्त वितर्क विचार । बीजउ शुक्ल सुहामणउ, एक तर्क अविचार ॥२॥ तीजउ शुक्ल श्रुतइ कह्यउ, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति । चउथउ शुक्ल ध्यावइ सदा, छिन्न क्रिया प्रतिपाति ॥३॥ ढाल-मालीय केरे वाग मइ एहनी एक द्रव्य परयाय सु, शुकलइ मन लावउ लो । अहो शु० । उतपति थिति इम अंग सु, तिण मांहि मिलावइ लो । अहो ति० ॥२॥ १-जूने २-भवरूपी तृष्णा का छेद करना ३-काम-विकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष साते नय दो नय थकी, जगरूप विचारइ लो । अहो जग । तीन योग इक योग सु, मन मांहि उचारइ लो। अहो मन० ॥३॥ पृथक्त्व वितवर्क विचारते, शुक्ल ध्यान कहावइ लो । अहो शु० । निश्चय मत ध्यावइ सदा, ते चढतइ दावइ लो । अहो ते० ॥४॥ एक वस्तु नय सात सु, मांहो मांहि मिलावइ लो । अहो मां० । एह मिलइ दो नय थकी, ए च्यार मिलावइ लो । अहो ए० ।।६।। केवल तदि पामी करी, ते ध्यान ज ध्यावइ लो । अहो ते० । एक तर्क अविचार ते, शुवल बीजउ पावइ लो । अहो शु० ॥७॥ अंत महुरत आयुष थकइ, ध्यान तीजइ ध्यावइ लो । अहो ध्या० । निज गुण मोक्ष प्रावी रह्या, दोय योग रुधावइ लो । अहो दो० ॥८॥ एक योग वादर अछइ, तेहिज पिण रोकइ लो । अहो ते० । । सूक्ष्म उसास नीसास सु, निज रूप विलोकइ लो । अहो नि० ॥६॥ सूक्ष्म उछ्वास लेतउ थकउ, निश्चय पद धारइ लो । अहो नि । सूक्ष्म क्रिया प्रति पातीयउ, तीय शुक्ल संभारइ लो । अहो ती० ॥१०॥ शैलेसी करतां थकां, सब जोग खपावइ लो । अहो स० । पांच अक्षर परिमाण में, अद्भुत पद ध्यावइ लो । अहो अ० ॥११॥ परबत जिम देह छोडि नइ, ते मोक्षइ जावइ लो । अहों ते० । हृस्व वर्ण इम पांच मइ, चउथउ शुक्ल प्रावइ लो । अहो च० ॥१२॥ दोय ध्यान सब जीव तउ, निश्चय करि ध्यावइ लो । अहो नि । धर्म ध्यान भवि जीव जे, ते हिज ध्रव पावइ लो । अहो ते १३ शुक्र ध्यान पंचम अरइ, निश्चय करि नावइ लो । अहो नि ।' पहिलो संघयण नो धणी, शुक्ल ध्यान ज पावइ लो । अहो शु० ॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड श्री शीतल जिन वंदता, दोय ध्यान न राखइ लो । ग्रहो दो० । धर्म ध्यान मन भावीयइ, देबचंद इम भाख इ लो । ग्रहो दे० ।।१५।। ___ढाल--पास जिणंद जुहारीयइ, एहनी ध्यान च्यार मइ वर्णव्या, श्री प्रागम नइ अनुसारइ रे । आर्त रोद्र नइ परिहरी, भविक धरम चित्त धारइ रे ॥१॥ श्री शीतल जिन वंदना, हं करून सदा वार वारइ रे । भवियण प्राणी जेहुवइ, ते तीजउ ध्यान संभारइ रे ॥२॥ श्री०॥ शुक्ल ध्यान हिवणां नहीं, इण पंचम दूषम आरइ रे । धरम शुकल दोइ ध्यान सु, तिण प्रीति घणी मन माहरइ रे ॥३।। श्री०॥ युगप्रधान जिरणचंद ना, शिष्य पाठक गुणे सवाया रे। पुण्य प्रधान शिष्य गुण निला, श्री सुमति सागर उवझाया रे ॥४॥श्री०।। साधुरंग वाचक वरू, तसुसीस पण्डित विख्याता रे । राजसार पाठक अछइ, जे जिनमत सु अति राता रे ।।५।।श्री०।। ज्ञान धर्म शिष्य तेहना, वाचक पद ना धारी रे । तासु शीश राज हंस नउ, मुनि राज विमल सुविचारी रे ।।६।।श्री०॥ तिण ए ध्यान' तणउ रच्यउ, तवन शीतल जिन केरउ रे । भरणतां गुणतां संपदा, दिन दिन उच्छव अधिकेरउ रे ॥७॥श्री०।। इति श्री ध्यान चतुष्क स्तवन । पं० देवचंद्रकृतम् ।। लिखितं पं० दुर्गदास मुनिना पत्रांक २ नहीं है (पत्र ४ पं. ११ अ. ३६-४० आचार्य गच्छ भंडार १-चार ध्यान के वर्णन से युक्त स्तवन की रचना की। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयू श्री धर्मनाथ स्तवन राग- सारंग हम इश्की' जिन गुण गान के (२) पुद्गत्न' रुचिसु विरसी रसीले, अनुभव अमृत पान के हम.।।१।। के इश्की वनिता' ममता के, के इश्की धन - धान के । हमतो लायक समता नायक, प्रभु गुण अनंत 'खजान के ।हम.।।२।। केइक रागी हैं. निज तन, के, के प्रशनादिक खान के। के चिंतामणि सुरतरू इच्छक, केइ पारस पाहान के हम ।।३।। चिदानंद धन परम अरूपी, अविनाशी अम्लान के । हम लयलीन पीन हैं ग्रहनिशि, तत्त्व रसिक के तान के हम.।।४।। धर्मनाथ प्रभु धर्म धुरंधर, केवल ज्ञान निधान के । चरण शरण ते जगत शरण है, परमातम जग भान के ।हम.।।५।। भीति गई प्रगटी सब संपत्ति, अभिलाषी जिन आण के। देवचंद्र प्रभु नाथ कियो, अब, तारण तरण पिछान के हम.॥६॥ १-प्रेमी............२-पुद्गल के प्रेम से विरक्त होकर ३-स्त्री ४-पारस पत्थर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड -- - . . . श्री शांतिनाथ स्तवन (ढाल- वाल्हा सुमति जिनेसर सविये ए देशी) शांति जिनेश्वर भेटीये रे, शांत सुधारस रेल ; जयो जिन शासने रे। पुष्करावर्त्त जलधर समो रे, सींचवा समकित वेल; जयो. ।।१।। मात अचिरा उर हंसलो रे, विश्वसेन राय मल्हार; जयो. । लाख वरस सवि पाउखो रे, धनुष चालीस तनु धार; जयो. ॥२॥ कुमर मंडलिक चक्री पणे रे, जिनपरणे सहस पचीस; जयो. । वर्ष लगी भोगी संपदा रे, निपजी सिद्धि जगीस; जयो. ॥३॥ हामथी विघ्न सवि उपशमे रे, सेवतां परमानंद ; जयो. । उपशम मंगल लील ना रे, स्वामी छो कल्पतरू कंद; जयो. ।।४।। देव गुरू शुद्ध सत्ता थकी रे, निर्मल सुख सुविशाल ; जयो. । विचंद्र शांति सेवा करो रे, नितवधे मंगल माल; जयो. ॥५॥ इतिश्री शांति जिन स्तवनम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री नेमिनाथ स्तवन राग- सारंग अायो री घन घोर घटा कर के (२) रटत पपीहा पिउ पिउ पिउ पिउ पिउ पिउ सर धरि के ।।प्रायो.।।१।। वादर' चादर नभपर छाइ, दामिनी' दमकति झर के । मेघ गंभीर3 गुहिर अति गाजत विरहनी चित्त थर के ॥प्रायो.।।२।। नीर छटा विकटा सी लागत, मंद पवन फरके । नेमिनाथ प्रभु विरह व्यथा तव, अंग अंग करके ।।प्रायो.।।३॥ दादुर मोर शोर भर सालत, राजुल दिल धर के। देवचंद्र संयम सुख देतां, विरह गयो टरि के ।।प्रायो.।।४।। १-बादल रूपी चादर प्राकाश में छाई है। २-बिजली चमकती है। ३-गंभीर। ४-वियोगिनी स्त्री का चित्त डोलता है। Media Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड श्री नेमिनाथ स्तवन राग-केदारो (सुविधि जिनेश्वर पाय नमीने, ए देशी) बालाजी रे वीनतड़ी एक माहरी धारो, बोले राजुलनारी। हुं दासी छु श्री प्रभुजी नी, प्रभु छो पर उपगारी रे ॥वा.।।१।। प्रेमधरी - मुझ मंदिर प्रावो, पूरव नेह संभारी रे । सज्जन' प्रीति मधुरता स्वादे, अमृत दीघ उवारी रे ॥वा.।।२।। एकवार जो वचन निवाही, देता जो करताली रे। तोरण थी चाल्या रथ वाली, एशी प्रीति संभाली रे ।।वा.॥३।। लोक कहे जे प्रीत न पाली, ए साची प्रीत निहाली रे। मोह विभाव उपाधि थी टाली, आत्म समाधि देखाली रे ।।वा.।।४।। अष्ट भवोलगी नेह निवाह्यो, नवमे भव पलटायो रे। गुण रागे हो वेराग उपायो, परम तत्त्व निपजायो रे ।।वा.।।५।। रसकू पी' रस लोहने वेधे, कंचनता प्रगटावे रे । नेम प्रेम रस वेधी राजुल, भव भय व्याधि मिटावे रे ।।वा.।।६।। साची प्रीत राजीमती राखी, अविहड़ रंग सदाई रे। देवचंद्र आणा तप संयम, करतां सिद्धि निपाई रे ।।वा.॥७॥ -सज्जन पुरुष के प्रेम की मधुरता के सामने अमृत भी फीका है। २-लोहे और वर्ण रस का समिश्रण होने से, लोहा सोना बन जाता है, वैसे नेमनाथ के प्रेमरस से जुल का भव-भय मिट गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री गौड़ी पार्श्व जिन स्तवन जग जीवन वीसमा, गिरुया' गोड़ी पास लाल रे । दरिसण देखण देवनो, अछे अधिक उल्लास लाल रे ॥जग०।।१।। सुण सुण सुण सुण साहिबा, दास तणी अरदास लाल रे । पास करे जे प्रापनी, पूरजो तस पास लाल रे ॥जग०॥२।। सन मन विकसे हो माहरो, दीठे तुझ दीदार लाल रे। मोहन मूत्ति मन वसी, सहज सलूणी सार लाल रे ॥जग।।३।। नाम सुणतां जेहनो, विकसे साते धात लाल रे । ते जो सन्मुख भेटीये, तो कहो केहवी वात लाल रे ।।जग०॥४॥ जे दिन प्रभु पाय पूजसू, ते दिन धन्य वरणीश लाल रे । तुझ, दर्शन विण दीहड़ा, लेखे में न गरणीस लाल रे ।।जग०॥५॥ महिर नजर करी मुझ परे, अवगुण गुण करी लेह लाल रे । सेवक जाणी दया करी, अवसर दरिसरण देह लाल रे ।।जग०॥६॥ आठ पहोर समरण करे, धरी खरी एक तार लाल रे। ते चाकर नी स्वामी जी, कीजे अवश्य संभार लाल रे ॥जग०॥७॥ १-महान् २-दिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड प्रथम खण्ड..... [ २३ दूर थका पण गुण ग्रहे, पाले अविहड़ प्रीत लाल रे । पास जिनेश्वर ! तेहनी, कीजे हर विध चिंत लाल रे ॥जग०॥८।। अलगा पण ते टूकड़ा, जेह वसे मन मांय लाल रे । पास थका पण टालीये, जे दीठा न सुहाय लाल रे ।।जग०॥६॥ दीठां दुख दोहग टले, भेटयां भावठ' जाय लाल रे । पाप पणासे पूजतां, सेवंतां सुख थाय लाल रे ॥जग०॥१०॥ तु जगवल्लभ जग गुरू, तू हीज दीन दयाल लाल रे । तुहीज सेवक जन तणा, टाले सकल जंजाल लाल रे ।।जग०॥११॥ दूर थकां पण माहरो, त्हीज जीवन प्राण लाल रे । नजर तले प्रावे नहीं, वीजो देव अजाण लाल रे ।।जग०॥१२॥ तुझ समरण मन में करू नाम जपू तुम जीह लाल रे । तुझ दरिसणनी प्राश थी, बोले छे मुझ दीह लाल रे ॥जग०॥१३॥ दीपचंद्र सद् गुरू तणो, शिष्य कहे जिनराज लाल रे । देवचंद्र नी मन रली, पूरजो महाराज लाल रे ॥जग०॥१४॥ -भूख २-जिह्वा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ स्तवन जगवल्लभ जिनराज जो, अरज एक अवधारो जी । कृपा करी भवजलधि थी, मुझ ने पार उतारो जी ॥जग०॥१॥ जगतारक जगनाथ तु, बिन स्वारथ जगभ्राता जी। . सारथवाह निर्याम को, जग वच्छल जग त्राता जी ॥जग०॥२॥ एहवा जाणी पाश्रयो, निज शिव सुख हेते जी। गुण अनंतता स्वामि नी, ऊरण' न थावे देते जी ॥जग०॥३॥ प्रभु भाखे संवर पणे, शुद्धातम भावो जी। स्याद्वाद एकत्त्वता, तो मुझ सरिखा थावोजी ॥जग०॥४॥ वल्लभता तेथी अछे, जिन प्रवचन उपगारे जी। पण आदरतां दोहिलो, छते मोह परिवारे जी ॥जग॥५॥ तेणे प्रभु तेहवु करो, नाशे मोह अज्ञानो जी। मोटा नी सुनिजर' थकी, थाये सहु आसानो जी ॥जग०॥६॥ १-कमी नहीं होती २-बड़ों की कृपा से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड । २५ कृपा सिन्धु जिनजी कह्यो, छए द्रव्य निज भावे जी। निज यथार्थता सद्दहो, अनेकान्तता दावे जी ।।जग०॥७॥ ग्रहगा' ग्रहगा परीक्षणी, कारण कारज जोगे जी । भेदा भेद अनंतता, जारणो निज उपयोगे जी ॥जग०।८।। स्व स्वरूप निज प्राचरो. निमित्त अने उपादाने जी। योग अवंचकता करी, निर्मल वधते ध्याने जी ।।जग०॥६॥ एह्वा गुण जेहना अछे, सकल शुद्धता भासे जी। तर्या तरे छे जेहथी, तरशे तास अभ्यासे जी ॥जग०।१०।। प्रभुजी ने अग्रेसरी, अागम अगम प्रभावी जी। जिनजी परम कृपा करी, तेहथी भेंट करावी जी ॥जग०॥११॥ परम प्रमोद थयो हवे, जे मिल्यो श्रुत सद्भावे जी । स्याद्वाद अनुभव करी, साधो सिद्ध स्वभावे जी ॥जग०॥१२॥ तेवीसमो जिनराज जी, सुप्रसादे पाराधे जी । देवचंद्र पद ते लहे, परम हर्ष तमु वाधे जी । जग०॥१३॥ ग्राह्य-अग्राह्य की परीक्षा करने वाली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] श्री पार्श्वनाथ स्तवन (शी कहुं कथनी मारी "राज ए चाल) मुझने दास गणीजे राज पार्श्वजी ! अरज सुणीजे । अवसर' आज पूरीजे राज, पार्श्वजी अरज सुणीजे ॥ प्रकरणी || वामानंदन तु आनंदन, चन्दन शीतल भावे / दुःख निकंदन गुणे अनिंदन, कीजे वंदन भावे राज | पार्श्वजी० ॥ १ ॥ तु हीज स्वामी अन्तरजामी, मुझ मन नो विसरामी । शिव गतिगामी तु निक्कामी, बीजा देव विरामी राज । पार्श्वजी० ॥ २ मूरति तारी मोहनगारी, प्राण थकी पण प्यारी । हुं बलिहारी वार हजारी, मुभने प्राश तुम्हारी राज | पार्श्वजी ॥ ३ ॥ जे एकतारी करे तारी ( ? ), प्रीति विचारी सेवक सारी, दीजे श्रीमद्देवचन्द्र पद्य पीयू लीजे. तेहने तारी । केमं विसारी राज । पार्श्वजी ॥ ४ ॥ विघन विडारी स्वामी संभारी, प्रीति खरी में धारी । शंक निवारी भाव वधारी, वारी तुझ चरणां री राज | पार्श्वजी || शा Jain Educationa International मिलि नर नारी बहु परिवारी, पूज रचे तुझ सारी ।. देवचंद्र साहिब सुखदाई, पूरो प्राण हमारी राज | पार्श्वजी० ॥ ६ ॥ १ - प्राज समय है अतः प्रभो मेरी आशा पूरण करो । For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड वीर निर्वाण राग -- प्रासाउरो प्रत्शान्ति कान्ति समता निशान्तं दुष्टाष्ट कर्म क्षयकं नितान्तम् । निर्मोह मानं परमं प्रशान्तं वन्दे जिनेशं चरमं महान्तम् || १॥ स्याम्बिका श्री त्रिशलाभिधाना, सिद्धार्थ राजा जनक: प्रसिद्धः । विश्वोपकृत दुस्सह दुःसमेपि, तंवीरनाथं प्रणतोस्मि भत्ता ||२|| (१) ढाल - तीजे भव वर थानक तप करि " ार वरस तप साधन कीनौ, तीस वरस श्रुत वरस्यो । नुपम ज्ञान प्रकाशी जिनवर, मुनिवर तुझ रस फरस्यौ || १ || तू ० ॥ । प्रभुजी ! तूं साहिब सुख दाई, त् जगनाथ कहाई हो साहिब जिनवर तू सुखदाई | | २७ पद सेवत श्र ेणीक सम पदवी तुरत निपाई, तो अलख अनंत अमोही, निज पर आतम सोही । गत विछोही कोही लोही, हुं तुझ दरसन मोहि हो जि० ||२|| तू ॥ देव अहिंसा तें वरताई, निज गुण संपति पाई । लोक त्राई गत माई, भवि कू शिवपद दाई हो प्र० ।। ३ ।। त्० ॥ महसेन में तीरथ ठाई, चौविह संघ सवाई । गणधर कु समता सिखलाई, चंदना समता पाई हो प्र० ||४|| || भाई, सुलसा रेवई बाई । सांची भगति सहाई हो प्र० ॥ ५ ॥ ० ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष (२) ढाल-श्री सुपास जिनराज-ए देशी वर गणधर इग्यार, चउद सहस अरणगार, अरणगारी हो सहस छत्तीस सुहामणी जी। श्रमणोपासक सार, इगलख अधिक हजार, गुणसठ्ठी हो सोभंता देश विरति धरणी जी ।।१।। तिग लख श्राविका चारु, ऊपरी सहस अढार, सम्यग् दृष्टि हो दरसन युत शिव मारग रसी जी । चउदस पुची, धन्य सव्वक्रवर संपन्न, अजिग्गा जिरण संकासा तिगसय उल्लसी जी ॥२॥ वादी चउदसय धीर, परमत भंजक वीर, पंचसया वाचंयम मरण नाणी खरा जी । निज दीक्षित मुनिराज, समता ध्यान समाज, सात सया केवल नाणी सिद्धि वरधाजी ॥३॥ बैंक्रिय धर सय सात, षट जीवन पित मात, राजे हो आज तेरस प्रोही जिण सया जी। अगुत्तर वाई मुनीस, गई ठई श्रेय ईस, अनुभव अभ्यासी यतिवर अडसयाजी ।।४।। इत्यादिक परिवार, जिणवर पागाधार, वृदे हो परिवरिया विचरै भूतले जी । दुरित डमर भय सोग, ईति भीति ना थोक, नासें ही जिन पद रज फरसन ने बलें जी ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड [ २६ (३) ढाल-- गउड़ी, धन-धन सुरनरपति तती ए देशी वीर विहारें विचरता, करता जग कु साता जी। चरण सोवन कज' थापता, जगवच्छल जगत्राता जी । – टक- त्राता अनादि विभाव दुख के, अावीया पावापुरी जिनराज आगम हरख पाम्या, भव्य केकी-हित धरी धन्य पुहवी धन्य वन सो, धन्य जनपद पूरसही श्री वीर नायक चरण फरसन, भई पावन या मही ।।१।। इन्द्रादिक ग्रागलिं चलें, भगतें जय जय कहतें जी। छात्र सिंहासन चमरस्यों, इंद्रध्वजलेई बहते जी ।। बटक- वहती जे अागलि देव कोड़ी धर्म चक्र देखावती नर तिरिय व्यंतर असुर किन्नर अपछरा गुण गावती। निज कार्यकरणी श्रमगा श्रमगणी ग्रातम तत्व निपावती। द्रुम श्रेणी ऊभी उभय पासे नाथ पद शिर नामती ।।२।। गगन पंखी गण उडता, करता प्रदक्षिणा रंगें जी पूठि पवन अनुकूलता, हरतां ईति प्रसंगे जी टक- सहजें सुगंधित नीर वरसें पूष्प वृष्टि चिह दिसे कंटक अधोमुख कहें जिनतें भाव कंटक सवि नसें जय जय कहती सुरि नचंती देव दुदुभि रणझगणे देवाधिदेवा करौ सेवा तत्त्वरुचि जननें भणें ।।३।। -कमल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्यापीयूष पावन करता : भूतले, मिश्यातिमिरा - हरंता (जी) विषय विर्षे मूर्छित भणी, देसना अमृत झरंता जी त्र टक- तारता “जनकू भंवोदधि थी परम पूरण गुण निहीं गजराज गति जिनराज पावापरसरें आव्या वहीं थई । वधाई नगर सगले सुजन बहु साम्हें वहें वर पुष्प मुगताफल वधावी सकल मंगल सुख त्नहैं ।।४।। ढाल-- ग्रायाजी मुनिपति नरपति हस्तिपाल घर पाया . पायाजी सुरमणि सुरतरू अधिक महोदय पाया बंद्याजी अति प्रमुदित भूपत्ति त्रिभुवन तारक राया । ठायाजी तसू, दर्शित वसिते दारण सभा सुखदाया ।।१॥ धन धन ते थानक जसु भीतर वीर परम गुरु ठाया । छत्र त्रय चामर तति सोभित सिंहासन - सूथपाया . व टक- मंदार कुस में प्रभुवधाया मन रमाया सनि गणें ... चिरकाल जीवो जगत दीवो तरण तारण इम . थुगौं ।।२।। चौमासी जी वर्द्ध मान. जिन तिहां रह्या .... विधि सेती जी नव . नव अभिग्रह मुनि. ग्रह्या परदेशी जी. श्रोता, जन ग्राव्या वही , प्रभु वचनें जी तत्त्व = ग्रहैं - ते गहगही ... वटक- गह गही थतरस...अमृत पीता यातम समता भावता परभाव परणति दूर वमता सुमति रमणी रमावता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड वीयराय बंदनः भव निकंदन गुण प्रानंदन पावता परमात्म • सेवन. अहव सिद्धी एह ईहा ल्यावेता ॥३।। श्री वीरेंजी गौतम गमगाधर मोकल्या । प्राणाकरजी देवशरमा · 'बोधन चल्या ।। जिण पारसजी हित, मुख. मंगल कार..ए । इम जागीिजी गमधर करै विहार एः।। छूटक-नव राय लच्छी तवे मल्ली वीर वचनर से रस्या निज, देखा चिता तजी जिन पद सेवना; करवा वस्या मुर राय चौसठि तिहां अाव्या सिद्धि अवसर जाणता श्री वीर दर्शन नमन कीर्तन परम सुख मन प्राणता ॥४॥ ॥हा॥ फासी वदि चबंदिशा दिने प्रातसमें जिनराय ।। सिंहासन बैठा जिसे। तब रेभा': गुण गाय ।।६।। (४) ढाल-जीरियानी अथ सोहलानी देशी वाल्हेस.रः । त्रिसला. देवी : नंदा । दीठो हो । दीठो अमृत घन समौ ।। सोभागी स्थामि सोभागी सिद्धिवधू भरतार। मोहन हे मोहन मूरति नित नमौ । उपगारिस्वाभि । १॥ तुम्हे गावो हे तुम्हे मावो गुरण धरि मन प्रेम, -जेमनहे . जेमेन , जावो : दुरगते : उप० । चिरजीवो हे चिरजीवो गतिम गुरू राय, - नित प्रति हो नित प्रति पूज्यो सुरत ते उप०. ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष अतुली बल हे अतुली बल याचौ जगनाथ, जिरण जीतो हे जिण जीतो मोह सुभट जरू ।उप०। बूठो हे बूठो आज अमीय मय मेह, सफलो हे सफल फल्यो घरि सूरतरू उप० ॥३॥ जय जय हे जय जय जगजीवन जगबंध, सिद्धारथ हे सिद्धारथ नृपकुल तिलउ ।उप० । तुठा हे तुठा ग्राज सवि कर्या पुण्य भेटयो, हे भेटयो जिनवर गुण निलउ ॥उप०॥४॥ बलिहारी हे बलिहारी वार हजार तू, ज्ञानी हे तू ज्ञानी गुगा सेहरो ।उप०। जंगम हे जंगम तीरथ शिव सुखकंद, निश्चय हे निश्चय शिव सख देहरो उप०।५।। इंद्रादिक हे इंद्रादिक ना प्राणाधार, जीवो हे जीवो कोड़ि जुगां लगे ।उप०। जसु दीठे हे दीठे नासे दुःख अंधार, भामंडल हे भामंडल दिनकर झिगमगे ॥६॥ उ०।। त्रिभुवन पति हे त्रिभुवनपति तुझ, वचन सवाद मोह्या हे मोह्या सुरपति नरपति जी ।उप० । तूही हे तू हि भव भवनाथ दयाल, करीये हे करीमे इण विधि वीनती जी ॥उ०॥७॥ तरीये हे तरीये भव सागर दुख भूरि, ..... हरीये हे हरीय कर्म महा अरी उप०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम खण्ड वरीये हे देवरीयें वचंद्र पद · सार, . करीये हे करीयें भगति सदा खरी ॥उप०॥८॥ (५) ढाल--यतिनी देशी इम गाती रंभा गीत, प्रभु' आव्या जग सुविहीत । ग्यान दरसण चरणानंदी, हरख्या सविप्रभु पय वंदी ।।१।। प्रभु देशना अति सुखकार, भाख्या निश्चय विवहार । कारण कारज विवि भाखी, शिव साधन शिक्षा दाखी ।।२।। सर्व जीव अछे सम एष, संग्रह सत्ता नै लेष । जे पर परणति रागी, तस् कर्मनी भावठि लागी ॥३।। जसु तत्व रुचि थयो ज्ञान, ते साधे साध्य अमान । . निज व्यक्ति शक्ति निजरंगी, साधै गुण शक्ति अनंगी ॥४॥ शुचि श्रद्धा भासन रमणे, कारक निज कार्य ने गमणे । भागे पर परणति रीत, एकत्त्वे तत्व प्रतीत ।।५।। परभाव अरोचक दृष्टे, निज ज्ञान सुधा नी वृष्टं । परभोगी भाव अभावें, करतादि च्या निज भावें ॥६।। जारणी निज परणति स्वामी, कुरण थायें पर परणामी। ए भावे निजगुण पो, ते सुद्ध समाधि संतोषे ।।७।। दुख पोषक पर परसंग, न भजै हेज धरि रंग । निज तत्व रमौ भवि प्राणी, देवचंद्र वदै इम वाणी ॥८॥ मनधर्गश्रद्धासुविनीत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष (६) ढाल--बहिनी रहि न सकी तिसें जी-ऐ देशी सुरनर तिरिय समूह मैं जी, बैठा श्री वर्द्धमान । जगत दयाल उपदिसेजी, शुद्ध धरम सुख थान ॥१॥ जिणेसर तुम्ह मुझ प्राणाधार'... . . . . . . . . भवभय पीडित जीवन जी, त्राण शरण सुखकार ।।जिणे०।। सोल पौहर नी देसना जी, वीर कही तिणवार क्षीरा श्रव वचने कह्या जी, प्रश्न छत्तीस उदार ॥२॥जि०॥ पंचावन अध्ययन मांजी, सुख विपाक स्वरूप । वलि तेता अध्ययन मांजी, दूख विपाक विरूप ।।३।।जि०।। छट तपै निशि पाछली जी, करि प्रांजजी वीर्य । योग रोध बादर करीजी, शेध्या सुख्म वीर्य ।। ४ाजि०॥ सकल' प्रदेश धनी करीजी, चरम विभागावगाह । प्रकृति बहत्तर खेरवो जो, कृत तेरस प्रकृति नो दाह ।।५।।जि०।। पर्यकासन शिंवलह्यांजी, स्वाति नक्षत्रो स्वामि । गाग करण दर्श' वरयुजो, पूर्णानंदी धाम ॥जि०।६।। अपुसमाग गति थी लह्यांजी, एक समय लोगंत । पूर्व प्रयोग अबन्धने जी, ऊरध गति ने तंत ॥जि०।।७।। अवगाहन कर च्यार नी जी, सोलह अंगुल मांय । सर्व प्रदेश गुरग पज्जवा जी, तुल्य प्रमाण समाय ।।जि०॥८॥ १ सकल प्रदेश घनी का० रन्ध्र छिद्र पूर विभाग ऊरणत एतने प्रदेश घन कहिबाइ ---दर्श-अमावश्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड सर्व शक्ति निज कार्य में जी, करती वर नि प्रयास । सादि अनंत करू जो, ग्रातम शक्ति विलास ||जि०|| तीस वरस गृह वास में जी, बार वरस मुनि भाव 1. तेर पक्ष अधिक तप्या जी, तप शिव साधन दाव || जि०||१०|| विचरय । परमेश्वर पदेजी, तीस वरस किंचरण । भाव यथारथ उपदिश्याजी, नयनिक्षपे पूर्ण जि॥११॥ पर परसंग सहू तजी जी, अनहारी ग्रशरीर 1 चल अक्षय मूर्त्तता जी, व्यक्ति शक्ति धर धीर ॥ जि०||१२|| वीर प्रभु निज पद लह ु जो परमानंद प्रबाध । अवनाशी संपूर्णताजी, पररणति भाव अगाध ॥ ज० ॥ १३ ॥ (७) ढाल -- प्रभु तू स्वयंबुद्ध सिद्धो अलुद्धो, ए देशी प्रभु तु ग्रनतो महंतो प्रसंतो, त् प्रभु कर्म भासन कृतंतो पूर्ण आनंद प्रास्वाद वंतो, प्रभु तूं थयो सिद्धि लच्छी सुक्रतो || १ ॥ प्र० । गंधे फासे रूबी, प्रभु तू थयो अरस संठागा हीनो । I मोही कर्त्ता भोगी प्रयोगी, प्रवेदी प्रखेदी' गुग्णानंद पीनो ॥२॥ ॥ प्रभु जाणतो ज्ञान थी तू सर्व छतीं वस्तुनी देखतो सर्व सामान्य भावो आत्मगुण रमण अनुभव रमे घूमतो, तें लह्यो पूर्ण शुद्धात्म भावो ॥ ३॥ ॥ श्रात्म गुग्गा दान लाभे बनते, वर्यो भोग उपभोग निज धर्म लीना । सकल गुरण कार्य सहकार वीर्येवर्या, चपल वीरज गयै थिर प्रदीनो ॥०॥४॥ -प्रछेटी Jain Educationa International | ३५. For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयू तू क्षमी तू दमी तू हिं माईव मयी आर्यवी मुत्ति समता अनंती। तूं असंगी अभंगी प्रभू सर्व (A) प्रदेश गुण शक्तिवंती ॥प्र०।।५। प्रमाणी प्रमेयी अमेयी अगेही, अकंपात्मदेशी अलेशी अवेसो । स्वयं ध्यान मुक्तो सदा ध्येय रूपो, मुनी मानसे जेहनो वास देशो ॥प्र०।६। सिद्ध थया जिण जांणि ने, इंद्रादिक सुर व्यूह । शोकातुर अातुर रडे, चोविह संघ समूह ॥१॥ है है नाथ वियोग थी, ए जीवन निक्काम । मोक्ष मार्ग साधन भरणी, किम् पुहचेंसी हाम ॥२॥ वीर वियोगें जीववो, तेह निठुर परिणाम । धन तन, वनिता संपदा, स्यू कीजि सुरधाम ।।३।। जग उपगारी वीछडच, स्य लेखै सुर शक्ति । .. प्रबल मनै करस्यु किहां, बहु विस्तारी भक्ति ॥४॥ (८) ढाल-मेरे नंदना-ए देशी.. . इतला दिन लगि जाणता रे हां, प्रभु सनमुख बहुवार मेरे साहिबा, वंदन विधि नाटक करी रे हां, लहस्यु लाभ अपार मेरे० ।।१॥ बोलो नाथ दयाल, किरपांनिधि करुणाल, तुझ वयणां गुण माल, थाए सर्व निहाल, तत्त्व रमण संभाल, थाये ज्ञान विशाल ।।मे।।२।। - A-निज प्रात्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड [ ३७ एक वचन श्री वीरनो रे हां, का भवनी कोड़ि मे०, अविनाशी सुख प्रापवारे हां, कोण करें तुझ होडि मे० ॥३॥ तुझ सरिखा साहिब छतेरे हां, करता मोटी हूस मे०, मोह महारिपु जीप ने रे हां, करस्यां कर्म नो ध्वंस मे० ।।४।। मोहाधीन जे जीबड़ा रे हां, तृसना ता तप्त मे०, पुद्गल पास्या बंधीया रे हां, विषया रस संलिप्त मे० ।।५।। तनु विभाग रंगी दुखी रे हां, श्रावृत आतम शक्ति मे०, तेहवा ने कुण तारिस्य रे हां, देखाड़ी गुण व्यक्ति मे० ॥६॥ बहु परचित परभावना रे हां, चपल एकत्त्व ऊपाय । मे० । करतां कहि कुण वारस्य रे हां, ते देखाड़ो वाय'।मे०॥७॥ विषयादिक आसेवतां रे हां, था तो अम्ह संकोच । मे० । तुझ उपगारे ते हिवें रे हां, थास्य किमते सोच ।।मे०॥८॥ वीर चरण जावो अछेरे हां, सुणदा अमृत वाणि । मे० । ते मात्रै सुर भोगतो रे हां, करता नवि मंडारण ।मे।।६।। कृपा करो इक वचन नी रे हां, यद्यपि छौ वीतराग । मे० । महा मोहना कष्ट थी रे हां, छोडावौ महाभाग ।।मे०।१०।। भरत खेत्र ना जीव ने रे हां, तुझ विण कुण रखवाल । मे० । दूषम काल कृतांत मां रे हां, एहनो कवरण हवाल ॥मे०।।११।। प्राय, ठाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] श्रीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष मेघ मुनी ने राखीयो रे हां, राख्यो सोमल वृद । मे० । खंदक शिव पमुहा तरथा रे हां, तार्यो चरम सुरिंद ।।मे०।१२।। हुँ सोहमपति वीनवु रे हां, दया करो मुझ देव । मे० । सदा हजूरी दासनी रे हां, मानो विनति सेव ॥मे०।।१३।। नित्य मनोरथ नव नवा रे हां, करता प्रभु अवलंब । मे० । ते दिशि दाखो सर्व ने रे हां, प्रभुजी ज्ञान कदंब ।।मे० ।।१४।। एह श्रमरण श्रमणी भणी रे हां, निज पाराधक भाव । मे० । केहनें पूछि पालोयस्य रे हां, अंतरगत परभाव -।।मे०॥१५।। भव्य अभव्य निर्धारिता रे हां, पूछीस्यै कौण पास । मे० । आश्रव पीड़ित जीवनी रे हां, कुरण सुरणस्यै अरदास ॥मे०॥१६॥ ते सवि मन माहे रही रे हां, चाल्यो तारक सिद्धि । मे० । प्राणा प्रालंबन करी रे हां, करवी कार्य समृद्धि ॥मे०।।१७।। तो पिण एहना नामनी रे हां, राखौ मोटी आस । मे० । देवचंद नी सेवना रे हां, शिव सुख कारण खास ॥मे०॥१८॥ ॥हा॥ इम दुख भरि इंद्रादिके, विमन चित्त मुख दीन । कलस विधे नव राविया, चित्त भक्ति लय लीन ॥१॥ करी विलेपन अति सुरभि, बहु विध फूल नी माल । भाभरणादि अलंकरया, श्री जिन जगत दयाल ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड [ ३९. सहसथंभ सिक्का रची, छत्र त्रय अभिराम । सिंहासन पादपीठ विधि, चामर ध्वज अभिराम ।।३।। प्रभु बेसारया पालखी, उपाडे सुर वृद।। वैमानिक भुवनाधिपत्ति, व्यंतर सुरज चंद ॥४॥ चामर वीजै भक्ति स्यू, शक वली ईशान । . हिव आपण में धर्म नो, कुण द्य सिख्या दान ।।५।। ॥गाहा ॥ दुलहो जिणंद जोगो, दुलहं च धम्म सवरण निद्धारं । दुलहा मुक्ख पवित्ती, सामग्गी संगमो दुलहो ॥६॥ हा हा इय किं जायं, अरहो सिद्धो महोदयं पत्तो।। अम्हारा पुट्ठ साहण, हेउ विजोग भवं दुक्खं ॥७॥ वीर विरहम्मि धम्मा-धारेण असरणया दुहीया ।... - तेसि दूसम काले, को दाही' एरिसं धम्मं ॥८॥ (E) ढाल-मेघ मुनि काई डम डोलें, रे-ए देशो गीत गान नाटक करी जी, करुणा रसमय सर्व । हा नायक हा तारकू जी, कहता वदन सुपर्व ॥१॥ नाथजी मोटो तुझ आधार, तू त्रिभूवन निस्तार । तुझ प्रभु ज्ञान आधार, तुझ सरिखों दातार, दुलहो एणीवार ॥नाथजी मोटोपाकणी।।३।। - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] चंदन काष्टे जिन तनु जी, दाहे अग्निकुमार । दुख भरि सजल नयों करी जी, वायु ते पवन कुमार ना० २ ॥ उदधिकुमार जलें करी जी, सीतल कीधी वांग । जिन दाढा लें भक्ति थी जी, सुरपति दक्षिण वाम ॥ ना० ॥ ३॥ अस्थि भस्म माटी ग्रहें जी, सुरनर अवर अनेक । वंदें पूजें भक्ति थी जी, धरता चित्त विवेक ॥०॥४॥ देव सरमा प्रतिबोधियो जी, वलीया गौतम स्वामि । सांभ वन में मुनि वस्या जी, पाम्या श्रुति विश्राम ॥ ना०||५|| पावा परसर गरणधरू जी, राति वस्या जिहि ठाय । वीर विरह गौतम सुरण जी. हीयड़ें दुक्ख न माय हे प्रभु मुझ बालक भरणी जी, मूकी सिंसु ने वेगलो जी, ए नीपाव्यों ॥ स्यै न हिव कुरण संसय मेटस्यें जी, कौनें वांदी भगति स्युंजी, करस्यु १- भोग श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष Jain Educationa International जरणाव्यू कांम कहस्ये सूक्ष्म विनय स्वभाव For Personal and Private Use Only ना० ॥ ६ ॥ आम । ॥ ना० ॥७॥ वीर विना किम थायस्यै वीर आधारे घेतला जी, इम चितवतां उपनो जी, वस्तु धरम करता सह निज कार्य ना जी, प्रभु नैमित्तिक योग || ना०||१०|| भाव । ना०||८|| जी, मोनें प्रतम सिद्धि । पाम्या पूर्ण समृद्धि ना०|||| उपयोग । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड ध्यानालंबन नाथ नो जी, ते तो सदा अभंग । तिगण प्रभु गुण ने जोइवै जी, जोइ तू अात्म अंग ॥ना० ॥११॥ प्रातमा भासन रमणथी जी, भेदे ध्यान पृथक्त्व । तेह अभेदे परगाभ्यो जी, पाम्ये तत्व एकत्त्व ॥ना०।।१२।। ध्यान लीन गौतम प्रभु जी, क्षपक रिण प्रारोह । घन घाती सवि चूरिया जी, कीनो पात्म अमोह ।।ना०॥१३॥ लोका लोक नी अस्तिता जी, सर्व स्व पर पर्याय । तीन काल ना जारणीया जी, केवल ज्ञान पसाय ॥१४ाना०॥ प्रभु प्रभु करतां प्रभु थया जी, श्री गौतम गुरुराय । ततखिरण इंद्रादिक भगी जी, एह वधाई थाय ।।१५॥ना०।। संघ सकल हरषित थयो जी, जाणी गौतम ज्ञान । कारण तूटि पडि नहीं जी, ए अम्ह पुण्य' अमान ॥१६॥ना०।। सुरपति नरपति जन सहूजो, चोविह संघ महंत । पाव्या गौतम पद कजे जी, जय जय शब्द कहंत ।।१७।।ना०॥ करि उच्छब पद थापीया जी, जग गुरू पाटे त्यार । इंद्रादिक वंदन करे जी, बैठा सभा मझार ॥१८। ना०॥ तीन भुवन हरषित थया जी, वीर `पटोधर देख । हर गुगण गावै घणा जी, चौविह संघ विशेष ॥१६॥ना०॥ वीर प्रभु पाटै थया जी, गौतम ज्ञान निधान । देवचंद्र वंदै सदा जी, समता अमृत थान ॥२०॥ना०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री गौतम गुरू देशना, सांभलि उभ्या सर्व । सुर वर सहु नंदीसरें, पुहता भक्ति अखर्व ॥१॥ बार वरस केवलि पणे, विचरया गौतम स्वामि । अाठ वरस केवल निधी, श्री सुधर्म अभिराम ॥२॥ वरस चौमालीस केवली, श्री जंबू सुखकार । तास पछी श्रुत ज्ञान बल, चालें सासन सार ।।३।। इकवीस सहस वरस लगि, रहस्य वीर वचन्न । तसु आलंबन जे रमै, तेहिज जीव सुधन्य ॥४॥ (१०) ढालधन धन शासन श्री जिनवर नो, जिहां वर वाचक वंस रे। दुसम कालें जास प्रसादें, लहीय . धरम प्रसंस रे ॥१॥ध.॥ आर्य प्रभव सज्जभवसूरि, सूरि यशोभद्र स्वामी रे । श्री संभूति विजय श्रु त सागर, भद्र बाहु. वर नाम रे । २॥ध.॥ दश नियुक्ति छंद वर पागम, ऊधरया वन्तु स्वरूप रे । संपूरण द्वादश आगमधर, ज्ञान क्रिया विध रूप रे ॥३॥ध ।। थूलभद्र कोस्या प्रति बोधक, महागिरि सूरि सुहस्ति रे । बयर स्वामि लगि पूरब दशधर, युगप्रधान सुप्रशस्त रे ॥४॥ध.।। भाष्योद्धार कारक उपगारी, श्री जिनभद्र मुरिंणद रे । चूरण कर्ता श्रुत उद्धर्ता, श्री देवड्डि मुरिंगद रे ॥५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रथम खण्ड [ ४३ पुस्तकारूढ कर्या जिन आगम, राख्यो शासन शुद्ध रे। टीकाकार शैलांगसूरिवर, श्री अभयदेव प्रबुद्ध रे ॥६।।ध.।। श्री हरिभद्र मलयगिरि पंडित, हेमसूरि मलहार रे । नंद महत्तर सूरि जिनेश्वर, जिनवल्लभ सुखकार रे ॥७॥ध ।। श्री देवेन्द्र हेम आचारिज, कुमार पाल जसु भक्त रे । श्री खेमेंद्र प्रमुख श्रुत रसीया, दूसम काले व्यक्त रे ॥८॥ध ।। दुपसह सूरि छेहला गणिधर, पाराधक जिन पारण रे । चौविह संघ शुद्ध श्रद्धाधर,' पंचांगी परमाण रे ॥६॥ध।। द्रव्य छक नव तत्त्व नी श्रद्धा, ज्ञान क्रिया शिव सार रे । उत्सर्ग ने अपवाद साधना, निश्चय नय विवहार रे ।।१०॥ध.।। निमित्त वली उपादान कारण युग साधन तीन प्रकार रे । प्रवृति १ विकल्प २ तथा परगति शुचि करतां भव निस्तार रे ।। ११॥धः।। पुष्ट निमित्त सेवन थी पातम, परणति थाय शुद्ध रे । तत्त्वालंबी तत्व प्रगटता, साधै पूर्ण समृद्ध रे ॥१२॥ध.। देवचंद्र श्री वीर चरण युग, सेवो भक्ति अखण्ड रे । शासन संगी. पारगारंगी, ते थाये गत दंड रे ॥१३॥ध.।। (११) ढाल-कुमत इम सकल दूरे करी--ए देशी भगति इम चित्त साची धरी, धारीये सासन रीति रे। वारीये दुष्ट दुरवासना, चूरीये' भव तणी भीति रे ॥१॥भि०॥ aikaransition - - १-श्रुतीर-ध्वंसिय विधि (अच-लोह) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] ॥ ५॥ भ० ॥ वीर जिनराज सम प्रभु लही, गह गही बुद्धि गुण ग्राम रे । कोरण पर देव नें आदरें, कल्पतरू सम प्रभु पामि रे ॥ २ ॥ भ० ॥ एक आधार छें ताहरों, माहरे दीन दयाल रे । सार कीजें हिवें दासनी, नाथ जगजीव प्रति पाल रे || ३ ॥ भ० ॥ वीनति दास नी धारियें, तारियै कर उपगार रे । दोष अनादि निवारियें, प्रापीयें अनुभव सार रे ॥ ४ ॥ भ० ॥ मोह जंजाल वसि जीवड़ा, रड़वड़े पुग्दल राग रे । तेहनें शुद्ध रत्नत्रयी, दाखवी तें महाभाग रे एक प्रालंबन स्वामि नो, दास ना चित्त ने नाह रे । असरण शरण भव अडवितो, तू हिज परम सत्यवाह रे | ६ || भ० il तुझ गुरण राग भर हृदय में, किम वस दुष्ट कषाय रे । निर्मल तत्त्व ना ध्यान थी, ध्यायक निर्मल ज्ञान थाय रे || ७॥ भ० ॥ ध्येयनी शुद्धता रस थकी विद्ध प्रय कंचन धाय रे । निम अमोही रसी चेतना, पूर्णानन्द उपाय रे ||८||भ० ॥ माहरा परणति दोष नी, तीव्रता वाररण कार रे । ताहरा शासन श्रुत तरगो, राग छे एक आधार रे ॥ भ० ॥ खिर खिरण नाम तुम चो जपु, तुझ गुरण स्तवन उल्लास रे । चींतवी रूप प्रभुजी तरणो कीजियें ग्रात्म प्रकाश रे ॥ १० ॥ भ० ॥ वलि वलि वीनवु स्वामि जी, शुद्ध प्रासय पर मुझ हज्यो, वीर मरणा प्रविहड़ पर, ताहरी साख थी सत्य ने, Jain Educationa International श्रीमद् देवचन्द्र पर पीयूष नित प्रति तु हिज देव रे । भव भव ताहरी सेव रे ॥ ११ ॥ भ० ॥ प्रादरू साधन जेह रे । सीझस्यै माहरै तेह रे ॥ १२ ॥ भ० ॥ For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड - - भद्रक भाव रागी पधौ, वीनति एम कराय रे । देवचंद्रह पद नीपजे, नाथजी भगति सुपसाय रे ॥१३॥भ०॥ (१२) ढाल-धन्यासरी गावो गावो रे जिनराज तणा गुण गावो । सम्यग् दर्शन ज्ञान चरण नी, निर्मल थिरता पावो रेजि०॥१॥ पंच कल्याणक स्तवना स्तवता, प्रातम तत्त्व निपावो । . मोह महा रिपु दोष अनादी, खिरण में तेह गमावो रे ॥जि०॥२॥ आतम तत्त्व ध्यान एकता, साचो शिव सुख दावो। ईश्वर भक्ति तेहनो कारण, आगम माँहि कहाव्यो रे ॥जि०॥३॥ प्रभु गुण ध्यान स्व जाती रमणे, निरमल परणति थावो। तेहथी सिद्धि तिणें प्रभु सेवन, आतम शक्ति वधावो रे ॥जि०॥४॥ सुविहित खरतर गच्छ परंपरा, राजसार उवझायो । तास सीस पाठक सम दम धर, ज्ञान धरम सुख दायो रेजि०॥५॥ दीपचंद पाठक उपगारी, सासन राग सवायो । तास सीस सुचि भगति प्रसंगें, देवचंद जिन गायो रे ॥जि०॥६॥ भावनगर श्री ऋषभ प्रसाद, दीवाली दिन ध्यायो। संघ सकल श्रु त सासन रागी, परम प्रमोद उपायो रे ॥जि०॥७॥ शासन नायक वीर जिनेसर, गुण गातां जयमालो । देवचंद प्रभु सेवन करतां, मंगल माल विशालो रे ॥जि०॥८॥ इति श्री वीर निर्वाण पं० श्री देवचंद गणी विरचितायां समाप्त: 'ग्रंथानं २१८॥ गाथा १४३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] मुख दीठें सुख ऊपजें, समरंता सुख थाय । सुख ने माथे शल्य पड़ो, पीरहृदय थी जाय ॥ १ ॥ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयू परमातम परमेसरू, अकल ग्ररूपी अमाय । वीर नाम मुख थी वदें, जीहा पावन थाय ॥२॥ असंख्यात प्रदेश मां, जहां दिल मां वीर । ते नर भवसागर तरी, पामे वहेलो तीर ॥३॥ वीर विरह घड़ी एकलो, जेह थी खम्यो न जाय । तेहने मोक्ष नजीक छे, दुरगति दूर पलाय ॥४॥ जावो हीरो परखीयो नग मां श्री महावीर । ते माटे तुमे भविजना, वंदो जगगुरू धीर ||५|| वीर जिरणेसर गुण घरगा, कहेतां नावे पार । तेणें कारणें श्री वीरनें, वंदो वारंवार ||६|| निः कामी प्रभु पूजना, करसें जे धरी नेह । शिव सुंदरी निश्चयलही, स्वयंवर बरसेंतेह ||७|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड [ ४७ श्री वीर जिननिर्वाण स्तवन ( वैरागी थयो-ए देशी) मारग देसक मोक्ष नो रे, केवल ज्ञान निधान । भाव दया सागर प्रभू रे, पर उपगारी प्रधान रे ।।१।।वी०।। वीर ते सिद्धि थया, संघ सकल आधारो रे । हिव इण भरत मै, कुण करस्यै उपगारो रे ॥२॥वी०।। नाथ विहगतो सैन्य जू रे, वीर विहरणो संघ । साथै कुरण अाधार थी रे, परमानंद अभंगो रे ।।३।। वी०।। मात विहूणो बाल ज्यू रे, अरहा परो अथड़ाय। . वीर विहूणा, जीवड़ा रे, आकुल व्याकुल थाय रे ॥४॥वी०।। संसय छेदक वीर नो रे, विरह ते केम खमाय । जे दीठे सुख ऊपजै रे, ते विणुकिम रहवायो रे ॥५॥वीoll निरजामक भव समुद्र नो रे, भव अडवी सथवाह । ते परमेश्वर विणु मिल्यै रे, केम वधै उच्छाहो रे ॥६॥वी०।। वीर थकां पिण श्रुत तणो रे, हतो परम प्राधार । हिवणां श्रुत आधार छे रै, अह जिन मुद्रा सारो रे ॥७/वी०॥ तीनकाल सवि जीव नै रे, प्रागम थी आनंद । जिन पडिमा अागम विधैरे, सेव्यां परमाणदो रे ॥८॥वी०॥ गणधर प्राचारिज मुनी रे, सह नै इण विधि सिद्धि । भव भव आगम संघ थी रे, देवचंद्र पद सिद्धी रे ।।६।।वी०॥ For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] भीमद् देवचन पच पी अनागत पद्मनाभ जिन स्तवन वाटड़ी' विलोकु रे भावि जिन तणी रे, पदमनाभ जसु नाम । दूसम' दूषित भरत कृपा करो, उपसम अमृत धाम ।।१॥वा०॥ वीर निमते रे श्रेणक नै भवरे, तुमे बांधु जिन भाव । कल्याणक अतिसें उपगारता रे, वीर समान स्वभाव ॥२॥वा०।। सुदि असाढे छट्ठी नै दिन रे, उपजस्यो जगनाथ । चैत्र धवल लेरस प्रभु जनमस्यो रे, थासै मेरू सनाथ ॥३।।वा०॥ मागसिर बदि दसमी दिक्षा ग्रही रे, वरस्यो चरण उदार । सुदि वैसाखै दसमी केवली रे, चौविह संघ आधार ॥४॥वा०॥ समवशरण सिंघासण बैसिनै रे, प्रभु करस्यो वाख्यान । . प्रातम धरम सुणु तिण अवसरे रे, धरती प्रभु गुण ध्यान ।।५।।वा०॥ सैमुख त्रिपदी पामी गणधरा रे, रचस्यै द्वादस अंग । ते वेला हुं प्रभु चरणे रहुँ रे, जिनधरमै द्रढ रंग ॥६।।वा०॥ दीवाली दिन सिवपद पामस्यो रे, शुद्धातम मकरंद । देवचंद साहिब नी सेवना रे, करतां परम आनंद ।।७।।वा०॥ इति, अनागत पद्मनाभ जिन स्तवनम् १-प्रतीक्षा करना २-पंचमकाल के प्रभाव से दूषित बने, इस भरतक्षेत्र पर ३-ज्ञानादि धर्मों का श्रवण ४-आपके श्रीमुख से गणधर भगवान, त्रिपदी को प्रा कर १२ अंगों की रचना करेंगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मनाभ जिन स्तवन . (मारग देशक मोक्ष नो रे--ए देशी) श्री वीर प्रभु उपगार थी रे, श्री रिणक गुण धाम । क्षायक श्रद्धा गुण वसे रे, नीपायो जिन नाम रे ॥१॥ प्रथम जिनेसरू, भावी भरत मझारो मुझनें तारस्यें, भवि आस्या आधारो रे प्र० ॥ांकरणी।। वस्तु स्वरूप प्रकासता रे, ज्ञान चरण गुण खाण । वांदु प्रभुता ओलखी रे, तेहि जम्मु' सुविहाणो रे प्र०२ पद्मनाभ प्रभु देशना रे, साधन साधक सिद्ध । गौण मुख्यता वचन मे रे, ज्ञान तेसकल समृधो रे प्र०३ वस्तु अनंत स्वभाव छ रे, अनंत कथक तसु नाम । ग्राहक अवसर बोधथी रे, कहवे अर्पित कामो रे प्र०४ शेष अनर्पित धर्म में रे, सापेक्ष श्रद्धा बोध । उभय रहित भासन हवे रे, प्रगटें केवल बोधो रे प्र०५ छति परणति गुण वर्तना रे, भासन भोग आणंद । समकाले प्रभु ताहरें रे, रम्य रमण गुण वृदो रे प्र०६ वही मेरा जन्म सफल होगा। - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पर पीयू निज भावे सी अस्तिता रे, पर नास्ति अस्वभाव । अस्ति पणे ते नास्तिता रे, सिय ते उभय सभावो रे प्र०७ अस्ति सभाव ते आपणो रे, रुचि वैराग्य समेत । प्रभु सनमुख वंदन करी रे, मांगिस आतम हेतो रे प्र०८ करुणा निधि मुझ तारीये रे, दाखी शुद्ध स्वभाव । मुझ पातम सुख स्वादनो रे, बीजो कोण उपावो रे प्र०६ काल अनादि नो वीसरयो रे . माहरो आत्मानंद । प्रभु विरण कुरण मुझ सीखवं रे, त्रिभुवन करुणा कंदो रे प्र०१० मुझ में तुझ. शासन तणी रे, छे मोटी ऊमेद । निरमल पात्म संपदा रे, थास्ये प्रगट अभेदो रे प्र० १.१ दीपचंद्र गुरु सेवतां रे, पाम्यो देव अभंग । देवचंद्र ने नित होज्यो रे, जिन शासन दृढ रंगों रे प्र०१२ .... इति श्री पद्मनाभ स्तवन प्रति नं० २१०८ पत्र १ नित्य वि० म० जीवन जैन लायब्ररी, कलकत्ता । इस स्तवन की गां० ४ से ८ तक चौबीसी के कुन्थुनाथ स्तवन के गा० ५ से १ वाली ही हैं तीसरी गाथा में कुन्थुनाथ के स्थान मैं इसमें पद्मनाभ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-खण्ड श्री सीमंधर जिन स्तवन (श्री श्री सीमंधरस्वामिजी-ए देशी) प्रभुनाथ तुं तीय लोक नो, प्रत्यक्ष त्रिभुवन भाण । सर्वज्ञ सर्व दर्शी तुम्हे, तुम्हे शुद्ध सुख नी खाणि ॥१॥ जिनजी वीनती छ एह ।।प्रांकणी।। प्रभु जीव जीवन भव्यना, प्रभु मुझ जीवन प्राण । ताहरे दरसन सुख लहुँ, तुं ही जगति थिति त्राण ॥२॥जि०॥ तुझ बिना हुं चउगति भम्यो, धरयां वेष अनेक । निज भाव में परभाव नौ, जाण्यौ नहीं सुविवेक ।।३।।जि०॥ धन तेह जे तितु प्रह समै, देखै ज जिन मुख चंद । तुझ वाणि अमृत रस लही, पामैं ते परमाणंद ॥४॥जि०॥ इक वचन श्री जिनराजनो, नय गमा भंग प्रधान । जे सुण रुचि थी ते लहै, निज तत्व सिद्ध अमान ॥५॥जि०॥ जे खेत्र विचरो नाथजी, ते खेत्र अति सुपसत्थ' । तुझ विरह जे क्षण जाय छे, ते मानीय अकयस्थ ॥६॥जि०॥ श्री वीतराग 'दसणं बिना, वीवोज काल अतीत । ते प्रफल मिच्छा दुक्कडं, तिविहं तिविह नी रीति ॥७॥जि०॥ जिस क्षेत्र में आप विचरते हो, वह क्षेत्र ही सपल हैं। ...२-अकृता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] बीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष प्रभु बात मुझ मननी सहू, जाणो अछी जगनाथ । थिर भाव जो तुमचो लहुँ, तो मिलें शिवपुर साथ ।।८।।जि०।। प्रभु मिल्यै हुँ थिरता लहूं, तुझ विरह चंचल भाव । इक वार जो तन्मय रमू, तो करू अकल स्वभाव ॥६॥जि०॥ प्रभु अछो क्षेत्र विदेह में, हं रहुं भरत मझार । तो पण प्रभुना गुण विर्षे, राखू स्व चेतना' सार ॥१०॥जि०॥ जो क्षेत्र भेद टले प्रभु, तो सरै सगलां काज । सनमुखे भाव अभेदता, करि वरू' प्रातम राज | ११|जि०॥ पर पूष्टि ईहा जेहनी, एवड़ो छई स्वाम । हाजर हजूरी ते मिल्य, नीपजे कितलो काम ॥१२॥जि०।। इन्द्र चंद्र नरिंद नौ, पद न मांगू तिल मात्र । मांगू प्रभु मुझ मन थकी, नवि विसरो खिरण मात्र ।।१३।।जि०॥ जां' पूर्ण सिद्ध स्वभावनी, नविकरि सकू निज ऋद्धि । तां' चरण सरण तुम्हारडां, एहीज मुझ नव निद्धि ।। १४॥जि०॥ माहरी पूर्व विराधना, योगे पडयो ए भेद । पिण वस्युं धरम विचारतां, तुझ नहीं छे भेद ॥१५॥जि०।। १-यद्यपि मैं दूर हूं, फिर भी प्रभु के गुणों के प्रति मेरी सतत् दृष्टि है। २-जबतक ३-जबतक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड - - प्रभु ध्यान रंग अभेद थी, करि अात्म भाव अभेद । छेदी विभाव अनादि नो, अनुभवू स्वसंवेद्य ॥१६॥जि०।। वीनवू' अनुभव मीत ने, तूं न करि पर रस चाह । शुद्धात्म रस रंगी थयी, करि पूर्ण शक्ति प्रबाह ।।१७।।जि०॥ जिनराज' सीमंधर प्रभु, तें लह्यो कारण शुद्ध । हिव आत्म सिद्धि निपायवा, सी ढील करीये बुद्ध ॥१८॥जि०॥ कारणे कारज सिद्ध नो, करवो घटे न विलंब । साधवी पूर्णानंदता, निज कर्तृता अवलंबि ॥१९॥जि०॥ निज शक्ति प्रभु गुण मैं रमै, ते कर पूर्णानंद । गुण गुणी भाव अभेद थी, पीजिये सम मकरंद ॥२०॥जि०॥ प्रभु सिद्ध बुद्ध महोदयो, ध्याने थई लयलीन । निज देवचंद्र पद आदरै, नित्यात्म रस सुख पीन ॥२१॥जि०॥ इति जिनस्तुति श्री सीमंधर स्वामिनी देवचंदेन कृतं ॥ में अपने अनुभवरुपी मित्र को विनती करता हूँ कि तूं पर विषय की इच्छा न है। २-सीमंधर भगवान, आत्म सिद्धि का अद्भुत कारण है। ३-कारण पर कार्य सिद्धि करने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहिये । अपनी कर्तृत्य का अवलंबन कर पूर्णनन्द स्वरूप को सिद्ध करना चाहिये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीमत् देवचन्द्र पर पीयूष श्री सहस्त्रकूट जिन स्तवनम् सहस्रकूट' जिन प्रतिमा वंदिय, मन धरि अधिक जगीस विवेकी। सुंदर मूरति अतिः सोहामणी, एक सहस चौवीस वि० ॥१॥स०।। अतीत अनागत नै वर्तमानजी, तीन चौबीसी हो सार वि० । बिहुत्तर जिनवर एके क्षेत्र में प्रणमीजे वारं वार वि० ॥२॥स०।। पांच भरत वलि ऐस्वन, पांच में सरथ्वी रीति समाज वि० । दस खेत्रे करि थाये, सात से वीस अधिक जिनराज वि० ।।३।।स०।। पंच विदेहे जिनवर साढिसो, उत्कृष्टी एहिज टेव वि० । जिन समान जिन प्रतिमा, प्रोलखी भगत कीजे हो सेव वि० ॥४॥स०।। पंच कल्याणक जिन चौवीसना, वीसासो तेहज थाय वि० । ते कल्याणक विधि सु साचव्यां, लाभअनंतो थाय वि० ॥शास०।। पंच विदेहे हिवणां विहरता, वीस अछ अरिहंत । सास्वत प्रभु रिषभानन आदि दे, च्यार अनादि अनंत वि० ॥६॥स०।। एक सहस चोवीस जिणेसनी, प्रतिमा एकण ठामि वि० ।। पूजा करतां जनम सफल होवै, सीझै वंछित काम वि० ॥७॥स०।। १-एक हजार प्रतिमाओं का शिखर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वण्ड तीन काल अढाई द्वीप में, केवल नाण पहाण वि० । कल्याणक करी प्रभु इहां सामठा, लाभ गुण मरिण खाणि वि०॥८॥स०॥ सहस्त्रकूट सिद्धाचल ऊपर, तिमहिज धरण विहार। तिणथी अद्भुत छै ए थापना, पाटण नगर मझार वि०॥६॥०॥ तीर्थ सकल वलि तीर्थकर सहू, इण पूज्यां तेह पूजाय वि० । एक जीह' थी महिमा एहनी, किरण भांत कहवाय वि० ॥१०॥स०।। श्रीमाली कुलदीपक जेतसी, सेठ सुगुरण भंडार वि० । तसु सुत सेठ सिरोमणि, तेजसी पाटण में सिरदार वि०।।११।।स०॥ तिण ए बिंब भराव्या भाव सुं, सहस अधिक चौबीस वि० । कीध प्रतिष्ठा पूनम गछधरू भावप्रभसूरी स वि० ।१२।।स०।। सहस जिरणेसर विधिस्यु पूजस्य, द्रव भाव शुचि होय वि० । इह भव परभव परम सुखी होस्यै, लहस्यै नवनिधि सोय वि०।।१३।।स०।। जिनवर भगति करै मन रंग तूं, भविजन नी छ ए रीति वि० । दीपचंद्र सम जिनराजथी, देवचंद्र नी हो प्रीति वि० ॥१४॥स०॥ इति श्री सहस्त्रकूट जिन स्तवनम् १-एक जोभ से . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पच पीयूष प्राभातिक छंद (चौपाई) ऋषभादिक जिनवर चोबीस, प्रह उठी प्रणमु सुजगीस । चौदहसय' बावन गणधार, प्रणमु परभाते सुखकार ॥१॥ लाख अठ्ठावीस' सहस अडयाल, मुनिवर संख्या चित संभाल । लाख चुम्मालीस सहस छेयाल, चउदंसय छ सहुरगी विशाल ॥२॥ श्रावक संघ तणो परिवार, लाख पंचावन समकित धार । अडतीस सहस नवतत्त्व ना जारण, दृढ धर्मी प्रिय धर्म वखाण ॥३॥ एक क्राड़ ने तेरे लाख, सहत्तर हजार सुभाख । श्रावकणी जिन शासन नी जारण, शीलवंत ने विनय प्रधान ॥४॥ चौविह संघ चोवीसी माह, नित नित प्रए मुं धरी उच्छाह । तीन भुवन जिन प्रतिमा जेह, प्रह सम प्रणमुपाणी नेह ॥५॥ विहरमान जिनवर छे वीस, कोड दोय केवली जगीस । कोड़ि सहस दो मुनिवर सार, चरण कमल वंदू सुखकार ॥६॥ जिनवर आणा वरते जेह, दर्शन ज्ञान प्रमुख गुण गेह । देवचंद्र वंदे सुविहाण, धन धन जीवित जन्म प्रमाण ॥७॥ १-चौदह सौ बावन। -मुनि २०४८००० ३-साध्वियां ४४४६६४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अष्टापद तीर्थ स्तवन भेटो भेटो शिव सुख काज, भविजन ! ए तीरथ ने मेटो मेटो मोह अनादि, भव भवना संकट ने (ए टेक) श्री अष्टापद गिरिवर उपर, जिनवर चैत्य जुहारो। भरत भूप कृत चौमुख सुन्दर, शिवसुख कारणधारो । भेटो० ॥१॥ बहु भव संतति कर्म सहित पण, जे भेटे ए ठाम । ...२ क्षेत्र' निमित्त शुचि परिणामे, पामे निज गुण धाम । भेटो०॥२।। ऋषभ जिनेश्वर परमर महोदय, पाम्या इण गिरीशृंगे। .. चिदानंदघन संपति पूरण, सिद्धा बहु मुनि संगे । भेटो० ।।३।। भरत मुनीश्वर प्रातम सत्ता, प्रगट पणे इहां कीध । इण पर पाट असंख्य संजमी, सर्व' संवर पद् लीध । भेटो० ॥४॥ जे निज सत्ता तत्व स्वरूपे, ध्यान एकत्वे ध्यावे । अनेकान्त गुण धर्म अनंता, थावे निर्मल भावे । भेटो० ।।५।। तेहD कारण प्रातम गुणत्रय, तसु कारण जिनराज । तसु बहुमान भान हेतु ए, तिम ए भवोदधि पाज । भेटो० ॥६॥ मिथ्या मोह विषय रति धीठी, नाशे तीरथ दीठी। तत्वरमण प्रगटे गुण श्रेणे, सकल कर्मदल' नीठी। भेटो० ॥७।। ३-मोक्ष ४-ज्ञान-दर्शन-चारित्र १-क्षेत्र के निमित्त से, भावशुद्धि द्वारा २-मोक्ष "-कर्मसमूह का नाश होने पर । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष ठवणा भाव निक्षेप गुणी ना, समतालंबन जाणी। ठवणा अष्टापद तीरथ वर, सेवो साधक प्राणी । भेटो० ।।८।। भव जल पार उतारण कारण, दुख वारण ए शृंग। .. मुक्त रमणी नो दायक लायक, तेम वंदो मन रंग। भेटो ।।६।। तीरथ' सेवन शुचि पद कारण, धारी आगम साखे । शाह प्रानंदजी भक्ति विशेषे, थाप्यो गुण अभिलाखे । भेटो० ॥१०॥ साध्य दृष्टि साधन नी दृष्ठे, स्याद्वाद गुणवृद । देवचंद्र सेवे ते पामे, अक्षय परमानन्द । भेटो० ॥११॥ श्री ऋषभजिन शत्रुजय स्तवन (राग-जोधपुरा नी देशी) कंचन करणा हो प्रादि जिणंदा, मारा लाल हो आदि जिणंदा । त्रिभुवन तारक हो ज्ञान दिणंदा, मा. ला. हो ज्ञान दिगंदा । सूगुण सोभागी हो भोगीधर ना, मा. ला. हो. भो. ।। निजगुण रमता हो त्यागी परना, मा० ला० हो त्यागी ।।१।। तुझ विण दीठे हो हुँ भव भमीप्रो, मा० ला० हो हुभव । काल अनंते हो परवश गमीग्रो, मा० ला० हो पर० ॥ - १-तीर्थ की सेवना मोक्ष का हेतु है, ऐसा जानकर। २-सोना। ३--सूर्य । ४-कर्मवश खोया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड । ५६ हवे प्रभु मलीयो हो तो दुख टलीप्रो, मा० ला० हो तो० । निश्चे मारग हो मैं अटकलीयो,' मा० ला० हो मैं ॥२॥ जिनगुण श्रद्धा हो भासन तुमचो, मा० ला० हो भा० । प्रभु गुण रमणे हो अनुभव अमचो, मा० ला० हो अनु० ॥ शुद्ध स्वरूपी हो जिनवर ध्याने, मा० ला० हो जिन० । पातम ध्याने हो थई एक ताने, मा० ला० हो थई० ॥३॥ पुष्ट निमित्ते हो एकता रंगे, मा० ला० हो एकता० । सहज समाधि हो शक्ति' उमंगे, मा० ला० हो शक्ति० ॥ कारण जोगे हो कारज थाये, मा० ला० हो कारज० । कारज सिद्ध हो कारणं ठाये, मा० ला० हो कारण० ॥४॥ तेणे थिर चित्ते हो अरिहा भजीये, मा० ला० हो अरिहा । पर परिणति नी हो चाल ते तजीये, मा० ला० हो चाल ।। अतिशय रागे हो भवस्थिति पाके, मा० ला० हो भव० । साधन शक्त हो विगते थाके, मा० ला० हो विगते० ।।५।। नाभिनंदन हो शत्रुजय सो हे, मा० ला० हो शत्रु० । जसु पय वंदी हो गुण आरोहे, मा० ला० हो गुण० ।। मुनिवर कोड़ी हो तिहां सवि पहोता, मा० ला० हो तिहा० । परम प्रभुता हो ध्यान ने धरता, मा० ला° सा० हो ध्या० ॥६॥ १–प्राप्तकिया । हो जाता है। २-बीर्योल्लास से ३-कार्य सिद्ध होनेपर कारण बेकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य की जिन गुण गावा हो जे अति हर्षे, मा० ला• हो जे० । पूर्णानंद हो ते आकर्षे, मा० ला. हो ते० ॥ आतम सत्ता हो जिन सम परखे, मा. ला• हो जिन । शान्त सुधारस हो ते नित वरषं, मा° ला हो ते० ॥७॥ एम निज कारज हो साधन रसीया, मा. ला° हो साधन । जिन पद सेवा हो भक्त उल्लसीया, मा० ला° हो भक्त ० ।। शक्ति अनंती हो विगते' साधे, मा० ला° हो विगते । देवचंद्र नो हो पद आराधे, मा० ला हो पद० ।।८।। श्री सिद्धाचल ऋषभ जिन स्तवन ... . (राग-धन्याश्री) आनंद रंग मिले रे आज म्हारे, प्रांनंद रंग मिले (२) समिति गुपति अंतर सुप्रगटी, मुमता सहज ढले ।आज०।। १॥ ज्ञान निध्यान प्रधान प्रकाशी, प्रातम शक्ति मिले। तत्त्व रमण निज सुख संपति के, अनुभव रस उछले ।अाज ॥२॥ पर' परिणति गहन धूम सु, मोह पिशाच छले । शुद्ध स्वरुप एकता लीने, संब ही दोष दले ।अाज०॥३॥ प्रत्याहार' धारणा धारी, ध्यान समाधि बले । संयोगी निज गुण के रोधक, कर्म प्रसंग टले ।पाज॥४॥ १-प्रकट होने से २-पौर गलिक-राग रूपीए क्षेवा, मोहरूपी राक्षस हमार प्रात्मा को रल रहा है, भटका रहा है। ३-विषयों से मन को खेंचना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड सिद्धाचल मंडन प्रभु दीठे, हम देवचंद्र परमातम, देखत, वंछित श्री सिद्धाचल स्तवन (राग - सिद्धाचल गिरि भेटयारे ! होये सबले सकल फले । आज १५|| आज अम घर हरख उमाहो, सकल मनोरथ फलीमा । श्रीसिद्धाचल तीरथ भेटे, भव भवना दुख टलीमा रे || श्रा ॥१॥ श्री परमातम प्रभु पुरुषोत्तम, जगत दिवाकर दीठा । तन मन लोचन प्रमृतनी परि, लाग्या प्रति ही मीठारे ॥ प्रा० ॥ २ ॥ ऋषभ जिनेश्वर पूज्या भक्त मिथ्या' तिमिर हरवा । शिव सुख संपति सकल वरवा, नर भव सफल करवा रे || || ३॥ रायण तले प्रभु पगला वॉधा, दुत्तर भव जल तरवा । सकल जिनेश्वर ठवरणा अरची, आरणा मस्तक धरवा रे || प्रा०|| ४ || शिवा सोमजी चौमुख चैत्ये, आदिनाथ जिनराजा । वंदी पूजी लाहो, लीधो, सार्या श्रातम काजा रे || || ५ || १- मिथ्यात्व रूपी अन्धकार Jain Educationa International एक शत आठ देहरी जिनवर, थापन महोत्सव कीधुं । सुरत लघु शाखा ओसवाले, शाह कर्मे यश लीधु रे || २ || ६ || जीवा शाहे सहथ जिनवर, बिंब प्रतिष्ठा धारी । शाह कपूर भार्या मीठी ए मोटी लाज वधारी रे || आ ||७|| | ६१ २- अपने हाथों For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष संवत सतर ब्यासी वर्षे, जिन शासन शोभाये ।। जिनवर बिंब स्थापना हर्षे, लाभ विशेष उपाये रे ॥०॥६॥ माह मास सुदि पांचम दिवसे, खरतर गच्छ सुखकारी। पाठक दीपचंद गरिण कीधी, एह प्रतिष्ठा सारी रे ।।पा।।६।। श्री शत्रुजय उपर जिनवर, जे थापे विधि युक्त । देवचंद्र कहे धन धन ते नर, जे लीना जिन भक्त रे ॥प्रा०॥१०।। श्री सिद्धाचल ऋषभ जिन स्तवन (ढाल-पंथडो निहालु रे, बीजा जिन तणो रे-ए राग) चालो मोरी सहियां ! श्री विमला चले रे, तिहां श्री ऋषभ जिणंद । पुरव निवाणु वार समोसर्या रे, केवलनाण दिणंद ।।चालो०॥१॥ शुद्ध तत्त्व रसीया बहु मुनिवरु रे, कीध अजोगी भाव । . तेह संभारी नमतां नीपजे रे, निर्मल आत्म स्वभाव ॥चालो०॥२॥ पांच कोडी थी मासी अणसरणे रे, श्री पुंडरीक मुनिराय । चैत्री पूनम सिद्ध थया तिणे रे, पुडर गिरि कहेवाय ॥चालो ।।३।। विधि सुजे सिद्धाचल भेटशे रे, करी उत्तम परिणाम । नियमा भव्य कह्यो ते. जिनवरे रे, ए तीरथ अभिराम ॥चालो ॥४॥ सुरनर किन्नर गुण गावे मुदा रे, प्रणमे प्रहसम रीझ । देवचंद्र ए- तीरथ सेवतां रे, सकल मनोरथ सोझ चालो०॥५॥ . . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - - - - - W श्री शत्रुजय स्तवन (मोरा प्रातम राम नी देसी) चालो चालो ने राज श्री सिद्धाचल जईई ।। श्री विमलाचल तीरथ फरसी, प्रातम' पावन करीइं ।।चा०॥१॥ इण गिरवर पर मुनिवर कोड़ी, आतम तत्व निपायो। पूर्णानंद सहज अनुभव रस, महानंद पदपायो ।चा०॥२॥ पुंडरीक पमुहा मुनि कोडी, सकल विभाय गमायो। भेदा भेद तत्त्व परिणित थी, ध्यान अभेद उपायो ।चा०॥३।। जिनवर' गणधर मुनिवर कोडी, ए. तीरथ रंग राता । सुध सक्ती व्यक्त गुण सीद्धी, त्रिभुवन जन ना त्राता चिा०॥४॥ ये गिर फरस्य भव्य परीक्षा, दुरगति नो उच्छेद । सम्यग्दर्शनः निर्मल कारण, निज आनंद अभेद ।।चा०॥५॥ संवत अढार चिडोत्तरा (१८०४)वरस्य, सित मसिर तेरसीइ ।। श्री सूरत थी भक्ति हरष थी, संघ सहीत उल्लसीइं ।।चा०॥६॥ कचरा कोका जिनवर भक्ती, रूपचंद जी इंद्र । श्री संघ में प्रभुजी भेटाव्या, जगपति प्रथम जिणंद ॥चा०॥७॥ ज्ञानानंदिते त्रिभुवन वंद्रीत, परमेश्वर गुण भीना । देवचंद पद पाम अद्भुत, परम मंगल लयलीना ॥चा॥८॥ .... - इति श्री शत्रुजय स्तवन -अपने स्वरूप को प्रकट किया . . २-मोक्षपद. ३-सिद्धाचलतीर्थ ४-शुक्लपक्ष की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री शत्रुजय स्तवन (माज गई थी हुं समवशरण में-दाल) चालो सखी जिन वंदन जईइ, श्री विमलाचल' शृंगे रे । अनंत सिद्ध ध्याने सिद्धाचल, फरसीजें मन रंगे रे ॥०॥॥१॥ गुरु प्राचारी संगें सुविहीत, पोते पायविहारी रे । एकमहारी भूमि संथारी, सकल सचित परिहारी रे ॥चा०॥२॥ श्रावक श्राविका जिन गुण गाती, प्रभु भक्त अति राती रे । तीरथ फरसन मति ऊ जाती, गज गति चतुर सुहाती रे ॥चा०॥३॥ मुनिवर कोड़ी सिवगति पोहोती, निज' अनुभव रस लसती रे। विषय कषाय दोष उपसमती, रत्नत्रयी मां रमती रे ॥चा०॥४॥ ऋषभादिक जिन फरसित थानक* ; फरस्यां पाप पुलाई रे । शुद्ध गुणी समरण गुण प्रगटें, ध्यान लहेर लीलाई रे ॥चा०॥५॥ प्रतीत अनागति में वर्तमानें, एतीरथ सहक टीको रे । श्री शत्रुजय भक्तई पामें, देवचंद पद नीको रे ॥चा०॥६॥ इति श्री शत्रुजय स्तवनम् पाठान्तर-x जिहांमुनि + लहती * अंगे क्क सिर कीको १-विमलाचला के शिखर पर २-प्रात्मानुभव में रमण करते हुए ३-विषय-कषाय जन्य दोषों को शान्त करते हुए ४-उत्तर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वण्ड ..... ६५ - - - श्री सिद्धाचल ऋषभ जिन स्तवन (ढाल--मोरा प्रातम राम कइसइ दरसरण पासु; ए देशो) मोरा ऋषभ जिणंद कइयइ' दररूण पास्यु मो०।। सिद्धाचलनी पाजइ चढतां, मरु देवा सुत ध्यासु । घणा दिवस नो अंग उमाहो, ते पामी सुख भास्यु ॥मो०।।१।। निरमल नीरइ प्रभुनइ अंगइ, कहीयइ न्हवण करास्यु । केशर चंदन मृगमद घसिन इ, तोरइ देहं लगास्यु ॥मो०॥२॥ पूज करीनइ प्रागलि बइसी, पांचे अंग नमास्यु । भाव धरीनइ मन नइ रंगइ, नाभिनंदन गुण गास्यु ॥मो०।।३।। वार वार तुझ मुख निरखी, हीयडइ हरखति थास्यु । . तेरो ध्यान धरी अति सारो, सकल मिथ्यात विनास्यु मो०।।४।। आठ करम नो अंत करीने, दुरगति दूर गमास्यु । 'चंद' कहइ इम मन नै रंगइ, तुझ ध्यानइ मन लास्य ।मो०।।५।। -- १-कब २–पाल ३–जल -हर्षित ८-ध्यान से ४-करके ५-बैठकर ६-हृदय में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद देवचन्द्र पर पीयू शत्रुजय चैत्य परिपाटी (ढाल (१) सफल संसार अवतार एहुं गिणू-ए देशो) नमवि अरिहंत पयरगत' गुण आगरा, खविय' कम्मट्ठगा सिद्ध सुह' सागरा। तीस छग गुणजू प्राधार सूरीश्वरा, वायगा' उत्तमा नाण वायण धरा ।।१।। विष समा काम भोगादि सवि परिहरी । शुद्ध शिव साधिवा साधना आदरी ।। टाण एकांत तित्थादि सुचि' वासियो । दुविह तप संगया वंदिमो यति गणो ॥२॥ जयवि जग मांहि जिहि ठाणि जिय गुण लहै । तेण थानक भणी तेह उत्तम कहै ।। . जगत उपगारि परिसिद्ध बहु गुण थवै । मुनि भणी जिनवरा सिद्ध कारण चवै ॥३॥ तीर्थंकर केवली सुयधरा मुनिवरा । भासए तीर्थ जंगम तहा थावरा ।। ... १-पद-पैर, अणत। २-क्षयकर। ३-सुख । ४-छत्तीस गुणयुक्त । ५-उपाध्याय। ६-पवित्र । ७-स्तुतिकरना। . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड जंगम तीर्थ परसिद्ध गुण गण भरचा । तीर्थ थिर पंच सज्जेह जे प्रणु सरचा ॥४॥ तेरण विमलाचलो तित्थ गुण आगरो । मुनि गण संथुप्रो गरिम धीरम धरो ।। रिसह जिरण राय बहु वार जिहां आविया । पुंडरीकादि मुरिण सिद्ध पय पावीया ॥ विमलगिरि नाम जे भत्ति भर थी जवे । सिद्धगिरि दंसरण सुलह बोही हवै ॥ (सिद्धगिरि) फासणा कम्म' रय मोहणी । सम्म दंसरण पमुह गुणह आरोहणी ।।६।। तित्थ सत्रुजउ जिण भवरण जुत्तउ । पुब्व बहु पुरण पब्भार थी पत्तउ ।। ठवण जिण भाव जिण भेद नवि प्राणीयै । झारण'. पय रोहण कारण जाणीयै ।।७।। तेण आलस तजी तित्थ सेवन करो। पाश्रव . पंक थी आतमा उद्धरो ।। 'घेईय विणयादिक निज्जरा उपदिसी । - दसम अंग ववहार सुत्ते वसी ॥८॥ कर्मरूप रज का नाश करने वाली । २-ध्यानपद पर चढ़ने के लिये प्रबलकारण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पं.यूष सुद्धता कारणं मोहभड' वारणं । दंसण नाण उज्जाण' पडिबोहणं ।। दीह . संताण कम्मर विद्धंसरणं । कुणह भव्वुत्तमा विमलगिरि दंसणं ।।६।। ढाल (२) (चरण करणधर मुनिवर वंदिय-ए देशो) भाव धरि नै चैत्य जुहारिय, श्री सिद्धाचल अंगे जी । जिण दंसण पूयण गुण संथुई, करो भविक मन रंगे जी । भा.॥१॥ पालीतारणं रे ऋषभ जिरणेसरु, तास प्रभु भय टाल जी। ऋषभ चरण वंदो मन नी रली, ललित सरोवर पाल जी ॥भा.॥२॥ गिरवर मूलें सुदर वावड़ी, जिहां भवि अंग पखाले जी। . तीरथ वधावी वंदी नै चढे, आतम गुण उजवाल जी ।भा.।।३।। पाजै चढतां रे नेमि जिणेसरु, यादव कुल आधारो जी। चरण नमी ने गिरिवर ऊपर, हरख धरी पधारो जी भा.।।४।। धोली परब रे भरह भरहवई, चरण नमो सुभ कामी जी। महला संग थकां पिण मोहनें, खंडी नै सिव पामी जी ॥भा.॥५॥ नेमि चरण वंदी में परवतें, आरोहै आणंदे जी । आदिनाथ पुंडरीक गणी तणा, भवियण पय जुग वंदै जी ।भा.॥६॥ २-बगीचा। . ३-विकासक । १-मोहरूपी सुभट। ५-चरणयुगल। ४-पधारना। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड गिरवर चढतां मुनिवर संचरे, जे सीधा इण तित्थो जी। प्रातम उद्धरवाने कारणें, परम पवित्र ए तित्थौ जी ।भा.॥७।। अनुपम देहरा सुदर अति भला, सूरजकुड भीमकुडे जी । जिनवर दोय चरण जगनाथ ना, प्रणम्यां पातक खंडे जी ।।भा.।।८।। उलखाझोले रे श्री जिनवर नमी, चेलण तलाई आणंदो जी। सिद्धशिला तिहां मुनि निज गुण वरी, पाम्या परमाणंदो जी ।।भा.॥६॥ हरख धरी ने सिद्धवडे वली, समरो सिद्ध मुरिंणदो जी। आदिपुरे जिनवर चौवीस ना, प्रणमी पय' अरविंदो जी ।भा.।।१०।। पालीताणा पाजै अनुक्रम, पाव्या पोल दुवारो जी। वाघणि पोले मंडप चैत्य नो, दीठो सुचि दीदारो जी।भा.।।११।। वाघरिण प्रतिबोधी आचारजै, थई कषाय विहीनो जी । ए तीरथ न तजे जे पाप ने, ते तिरजंच' थी दीनों जी ॥भा.॥१२॥ हनुमंत खेत्रपाल चक्रेसरी, गोमुख कवड़ अंबाई जी । आदिक सासन सेवक देवता, भगति वंत सुखदाई जी ।।भा.॥१३॥ ढाल (३) सहस समण सुसुक संजम धरो-ए देशी। प्रथम प्रवेसे रे नेमि जिणेसरू, चेईय सुदर अतिहि सुहंकरु । जिणवर बिंब परम सम कारणं, त्रिण में सोल नमो दुख वारणं ।। १-पद कमल। २-पशु-पक्षी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष दुख वारणा जिन बिंव नमतां होइ समकित मोहिलो । समता' सुधारस कुड जिनवर देव दरसन दोहिलो ।। जिहां चेई मंगल तास छ गज्ज भरतसाह मंडावीयो । दुख हेतु परिग्रह सकल जाणी सुद्ध क्षेत्रे वावीयो ।।१।। जिणवर चैत्य जुगल तसु पागलै, अरिहा तीन नमो अति मंगलै । जैमलसाह तणो चौमुख वरु, श्री पुरुसोत्तम सोलम सुहंकरु ।। सुहकरु श्री कुथु जिनवर तेम चंद्रप्रभु तणो । जिनराज बिंब ईग्यार मंडित परम सुचि सिद्धायणो । श्रेयांसतिम श्री शांति जिनवर चैत्य जुगल सुहामणा । इगतीस बिंब जुहारि भगतै पवित्र थावो भवीयणा ।।२।। सद्धा वुहरा कारित देहरो, देहरी सुदर मंडित सेहो। मूल गंभारे ऋषभ जिणेसरु, बत्तीस बिब नमो समताधरू ।। समताधरु जिनराज नगतां कर्म कलंक गलै घरणा । अति शुद्ध निर्मल परम अक्षय रूप प्रगटइ आपणा ।। श्री वीतराग प्रशांत मुद्रा देखतां जो सांभरइ । निज सुद्ध साध्य एकत्व करतां प्रात्म साधकता वरइ ।।३॥ वलि प्रवेशे रे जिमणी श्रेरिण में, समवशरण श्री वीर तगो नमै । • पास विहार भंडारी कृत थयो, कुथनाथ चेइय जिन गुणथयो ।। १-समत्वरूपी अमृतरस । २-नाम । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड गुगा थवो भगते एह थाप्या चैत्य तीन सुहामणा । उवझाय वर श्री दीपचंदे गच्छ खरतर गुण घणा ।। तिहां चैत्य एक प्रसिद्ध सुदर कुथनाथ जिणंद नो । अति भगति युगते नमो पूजो भविय मन आनंद नो ।।४।। मोटो गढ श्री करमा साह नो, सोलमवार उद्धार ए नाह'नो। पोलै श्री पुंडरीक मुणीवरु, पंच कोडि थी सीधा इण गिरु ।। इण गिरे सीधा चैत्र पूनिम सुकल ध्याने ध्यावता । तसु चैत्य जिनवर वीस सगहीन वंदीये मन भावता ।। तसु बाह्य भमती देहरी सत' च्यार अधिकी दीस ए। जिन बिंब त्रिरणसै अहीय सडसठ प्रणमतां मन हींसए ।।५।। दीजै बीजी वार प्रदक्षणा, संघवी चैत्य करो जिन वंदना। बीकानेरी सांती दास नो, चैइअ अति उत्तंग सु आसनो ।। आसनै चैत्ये पंच जिनवर मूल नायक सोहणा । तेत्रीस मुद्रा सिद्धजी नी भविक मनि पडि बोहणा ।। संघवी गोत्रे नाम पांचो देहरी पण तसु करी । जिन बिंब इग चोमुख मुद्रा सोल थापी अति खरी ॥६॥ देहरी जिन माता नी सुदरू, उछंगै जिनराज दया वरू । श्रीसिद्धचक्र चैत्य प्रकास थी, जिनवर च्यार नमो उल्लास थी।। १-नाथ का २- सत्तावीस ३- चहौत्तर ४- गोद में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ } श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयू उल्लास थी श्री विजय तिलक, सासनाधिय जिनवरू। श्री वीरनाथ अनाथ नाथां वंदीये अति सुदरू ।। जगदीस त्रीस निरीह' निर्मम नमो धरी अभेदता । मिथ्यात्व प्रादिक भ्रमण हेतु मूल थी उच्छेदता ।।७।। सहसकूट नमो धरो भावना, तिन काल नारे जिननी थापना। मेघबाई नी देहरी वंदीयै, जिनवर तीन नमी पाणंदीय ।। आणंदीय चौमुख जिन चौतीस पूठक मन रमों । श्री दीव संघ विहार जिनवर बिंब छत्तीस नमो ।। इहां अछ भुहरो तिहां जिनवर रामर सारंग थापना । वली मूलग वस ही नमे जिनवर बिंब नमीय निःपापना।।८।। श्री अष्टापद जिन चौवीस ए, बिंब अट्ठावन सुदर दीस ए। कीधो बाईगुलाल विहार ए, श्री समेतशिखर सुखकार ए ।। सुखकार सार विहार सुदर कर्मभार निवारणो । श्री अजितादिक वीस जिनवर सिद्धक्षेत्र सुहामणो ।। जिहां वीस जिनवर सिद्ध ठवणां चरण वलि जिन देवना। वंदीय भवियण घण हरखै कीजीय सुचि सेवना ॥६॥ १- निस्पृह २- पीछे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड समवशरण जिनराज विकासता, चोमुख रूपे देहरा सा सता । सोनी तिलक तणो चौमुख वरू, चोमुख दस सूरत ना सुदरू ॥ सुंदरु देहरी दोय जिनवर बिंब च्यार सुहामणा श्री रूख रायण जग प्रसिद्धो लीजिये तसु भामणा तसु तणे पगला रिषभजी ना वंदतां भव भय हरै वीतराग भावे नाग' मोरी तजी वैर तिहां ठरै ।।१०।। देहरो इक चोविसी पावती, पंचावन जिन बिंब सुहावती। चौदह सय बावन गणधार रा, जिन चौवीसे चरण सुखकाररा।। सुखकार चेइं समान वसही बिंब सग' चौमुख वली देहरी अमृत बाई यै तिहां शांति मुद्रा अति भली वलि सेठ लर,मीचंद शांतिदास कीधी देहरी जिनराज तीन जुहारतां मनभ्रांति कस्मलता हरी ।।११। गाम गंधारे रे राम जी सेठ नो चौमुख सुंदर श्री परमेष्टि नो । ताजी भमती देहरी च्याल ए पणच्यूय बिंब तिहां अडयाल ए॥ अडयाल अहीया एक सय तिहां बिंब तीर्थ कर तणा तिहां मूल देहरे ऋषभजिणवर तरण तारण कारणा जिन बिंब सत्तावीस मंडप गंभारे छतीस रा जिनच नाभि नरिं: नंदन देखतां मन हींस रा ।।१२।। - १-२.पं और मोर ६-सात चौ खा ३-गाप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "७४ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष जनम सफल ए करमासाह नो, जिरण चैत्य करयो बहु लाहनो। गज युग खंधे रे मरुदेवी मुदा, चक्की भरह करे सेवन सदा ।। सेवना करतां सुद्ध निर्मल आत्म संपत्ति पामीय सेज तीरथ नाथ उसभो' देखि पातक वारीय तसु जनम सफलो सिद्ध खेत्रे जेण जिनवर भेटीया चिरकाल दुसमन कर्म सगला तेहना भय मेटीया ॥१३॥ त्रिण सय बिंब ते मंगल चैत्यना, प्रणमे प्रहसम उठी नित्यना। आसय' दोष पासातन वारतां, लाभ अनंतो चैत्य जुहारतां ।। जुहारतां जिनराज पडिमा, बली तीरथ ऊपरें ते वली विमल गिरीद ऊपर लाभ लेखो कुण कर जिहां कोड़ि मुनि परभाव परणति त्यागि आतम गुण वरया। निज सुद्ध ध्याने सुद्ध ग्याने सिद्धता पद अनुसरया ॥१४॥ बीजे शृंगे रे कुंतासर अछ, इंद्र थूभ पण जिन पणतीस छ । अदबुद चेईम ऋषभ जिणेसरु, मोटी काय जग विस्मय करू । विस्मय करू श्री अजित चेइन कुंड जुगल रलीयामणा तिहां कुसुमवाडी मांहि गोयम चरण वंदों सुभमणा तसु आगले अड जीर्ण चेईय तिहां देव जुहारीय अति हरख धरतां पोल द्वारे चोमुख मांहि पधारियै ॥१५॥ १-ऋशभदेव २-मानसिक दोष ३-इन्द्र कारित चैत्य ४-अद्भुत बाबा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड पोले श्री नमि जिनवर देहरो, बिंब सत्तावन नमी भवभयहरो । बाहर भमती देहरी सुख करू, इक सो आठ अतिहि मनोहरू । मनोहरु जिनवर बिंब इग सय दोय बेठा बेसस्यै छत्तीस मंगल चैत्य इगसय सोल भविजन मन धसे शिवा सोमजी सुत रतनजी कृत शांति देव प्रसाद में पंचास जिनवर सुद्ध मुद्रा नमो भवि आल्हाद में ।। १६ ।। देहरोसुविधि जिगेशर नो भलो, पार्श्वनाथ जिन चैत्य ने निरमलो । मुद्रा नव जिन दत्तसूरीश्वरू, कुशलसूरीश्वर खरतर गरणवरू । atras देहरी सिद्धचक्रेनी साह लाल विहार ए । जिन बिंब सत्तर च्यार अधिका करइ भवि निस्तार ए ।। देहरो सुमति जिरगद केरो साह ठाकुर उधर्यो । जिन बिंब ( स ) गणधार मंडप देखतां मुझ मन ठरर्यो । । १७ । । पगला तिहां चौवीस जिणंद नां, चवदह से बावन गरिण वृदना जेसलमेरी जिंदा थाहरू, तसुकृत पीठ अछे अति सुंदरु सुंदर रायण रुख पास ऋषभ जिन पय वंदिये देहरी तीन उत्तंग देखी चित्त में आनंदिय श्री अजितनाथ विहार जिन नवर दोय गरिणवर थापना गोमुख ने चकसरी तिहां भगत जन ने आसनां ।। १८ ।। सूरजी साह नो शांति विहार ए, जिनवर दोय जिहां सुखकार ए भमती तीजी चौमुख मांहिली, जिन मुद्रा प्रडयाल' छै निरमली १- अड़तालीस 1 ७५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ॥ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष निरमली मुद्रा तीर्थ पति नी तिहां संघवी सोमजी कर जोडि उभो तीर्थ सेवा याचना याचे अजी चौमुख सुदर च्यार जिनवर रिषभदेव जिणंदना प्रहसमे अठी भक्ति चित्तै करो नित प्रति वंदना ।।१६।। समतासागर जिनवर देखीय, जनम सफल एहिज मन लेखियै । अरिहंत मुद्रा दीठां प्रापणी; साधक सकति वधै भव'कापणी।। कापणी पातक पूर्व कृननीतीर्थ सेवा सारियै सुचि कारण निज सुद्ध सुचिता' भाव नियमा धारियै उद्धार अट्ठम सोमजो सुत रूपजी संघवी कर्यो भव पंक' खूतो दीर्घकाजी आतमा इम उद्धर्यो ॥२०॥ बीजी भूमै देहरे उपरै, चौवीसी देहरी चोविस जिनवरे । बीजा जिन चोवीस तिहां अछ चोमुख इग गंभार मध्य छ । मध्य ए चोमुख तुंग चेइय गोख ध्वज कलसे करी सोभतो समकित हेतु भविन देखता चक्ष ठरी श्री शांतिनाथ विहार सुंदर राय संप्रति उद्धर्यो जिन बिंब अडयुत शांति जिनवर देखि मन हरखं वर्यो।।२१।। १-भव का नाश करने वाली ४-उन्नत चैत्य २-पवित्रता- ३-संसार रूपी कीचड़ में पं.सा हुआ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड [ ७७ तीरथनाथ विमल गिरिफरसना, करीये भवीयधरि सुचि वासना' । मुनिवर कोड़ि अनंता शिव लहें, ते संभार्या प्रतम गह गहे || गह है प्रतम सिद्ध क्षेत्रे तेह साधक पद वरे निज म पूरण चेतनाघन भाव जिहां छै सुख प्रत्यंत निरमल ग्रात्म विनाशि सत्ता सहज भाव तासु गुरगछीय कुरणगणै ||२२|| हाल (४) भरत नृप भाव सु ए-ए देशी सेज गिरि भेटीये ए मेटिये कर्म कलेश । मिथ्या दोष निवारिवा ए, धारवो समकित देस | | ० ||१|| काल अनादि भवोदधिए, भमतां भव समुदाय से० । 3 यान' पात्र सम जांणज्यो ए, एहिज तीरथ राय || से०||२|| मानव भव पामी करीए, ए तीरथ गुण गेह से० । जिण नवि भेटयो जुगतसुंए, ते दुखियां में रेह || से० ॥३॥ sri सीधा पण कोडिए, गणधर श्रीपुंडरीक से० । चैत्र सुकल पूनिम दिनए, निज सत्ता गुण ठीक | | ० ||४|| अक्षय अनुस परणामिक प फागुण सुदि सातम लह्य ए, नमि विनमी सिव थान | से० चौसट्टि नमि पुत्री वसुए, आठमे केवलज्ञान || से० ||५|| १- पवित्र भावना Jain Educationa International २ - आत्मा ३- नौका समान For Personal and Private Use Only ४-मुक्ति ५-चौसठ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ । श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूब सागर मुनि तिग' कोड़ि थी ए, कोड़ि थी मुनि श्रीसार।।से०॥ तेर कोड़ि थी सिव वरू ए, सोम श्री अणगार ॥से०।।६।। ऋषभवंश आदितजसा ए, तसु सुत आदित्य कांति ।से। एक लाख परवार सुं ए, पाम्या परम प्रसांति ।।से०॥७।। ऋषभ वंश मुनिवर बहुए, गणधर कोड़ि असंख ।से। सिव पुहता सिद्धाचलै ए, निरमम तें निरकख' से०॥ ८) दश कोडी थी शिव लहुयु ए, द्रावड़ ने वालखिल्ल ।से०। चवद सहस निग्रंथ थी ए, दमितारी निःसल्ल ।।से०।।६।। आदिनाथ उपगार थी ए, कोड़ि सतर अणगार ।मे। श्रीअजित सेन मुनीस्वरुए, पाम्युं सुख अपार ।।से०।।१०।। आणंद रक्षित भावना ए, भावतां सिवपुर पत्त' से०। कालासी इग सहस थी ए, मुनि सुभद्र सय सत्त ॥से०।।११।। रामचंद्रपण कोडि थी ए, नारद मुनि पिस्ताल ।से। पांडव कोडी वीस थी ए, सिव पुहता समकाल ।।से०॥१२।। सब प्रजून मुनीश्वरू ए, मुनि साढा त्रिण कोड़ि से०।विमला चलि निरमलथया ए, ते प्रणमू बेकर जोड़ि ।।से०।१३।। थावच्चा सुत सुक मुनी ए, सेलग पंथक सिद्ध ।से०। • वसुदेव घरणी सिव लहयुं ए, सहस पैंत्रीस प्रबुद्ध ।।से०॥१४॥ १-तीन करोड़ ५-सात सौ २-आकांक्षा रहित ६-शांब-प्रद्युम्न ३-प्राप्त किया ४-एक हजार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड [७६ वेदरभी नि:करमता' ए, सामी सल चोफाल ।से०। श्री बससार अनंतता ए, पामी गुण संभाल ।स०।१५।। सीधा बहु मुनि इण गिरवरे ए, यादव वंश अनेक ।ने। श्रेणिक कुल साधु साधवी ए, सिद्ध लह्या थिर टेक ॥से०॥१६॥ विद्याधर भूचर' घणा ए, इहां पाम्या गुण कोड़ि ।से। आतम हेतें एहनी ए, कोन करी सकै होड़ि से०।।१७।। तीवारे तीरथ पति ए, ए तीरथ बहुवार से। आज्या भविजन तारवा ए, निरमम निरहंकार ।।से०।१८।। पुंडर गिरिनी सेवना ए, जेह करइ भवि जीव ।से। ते प्रातम निरमल करी ए, पामे सुख सदीव ।।से०।।१६।। ॥कलश।। इम सकल तीरथनाथ शेव्रुज, शिखर मंडण जिनवरो। श्री नाभिनंदन जग प्रानंदन विमल शिवसुखप्रागरो॥ शुचि' पूर्ण चिदघन ज्ञान दर्शन सिद्ध उद्योतन मनै । निज आत्म सत्ता शुद्ध करवा वीर जिन केवल दिन ॥१॥ सुविहित खरतर गच्छ जिनचंद्र सूरि शाखा गुणनिलो। उवझाय वर श्री राजसारह सीस पाठक सिल तिलो॥ श्री ज्ञान धर्म सुसीस पाठक राजहंस गुणे वर्यो । तसु चरण सेवक देवचंद्र वीनव्यो जग हितकरो ।।२।। ॥ इति श्री शेत्रुज चैत्य प्रवाड़ संपूर्णम् ।। - १-मुक्ति २-मानव ३–पवित्र ४–ज्ञानपूर्ण ५-शिष्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 --------------------------------------------------------------------------  Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड FE SAT श्री सम्मेतशिखर तीर्थ स्तवन ढाल - विडले भार घरगो छे राज ! वातां केम करो छो, ए देसी भेट्यो भाव धरी मैं आज, ए तीरथ गुण गिरुग्रो ।। टेक || A जंबूद्वीप दक्षिण वर भरते, पूरव देश मझार । श्री सम्मेत शिखर प्रति सुंदर, तीरथ में सरदार ||भेट्यो || १ || O वीस जिनेश्वर शिव पद पाम्या, इरण परवत नें श्रंगे । K नाम संभारी पुरुषोत्तम ना, गुरण गावो मन रंगे । भेट्यो ० || २ || [ ८१ 75 इम उत्तर दिशि ऐ ख़त क्षेत्रे, श्री सुप्रतिष्ठ नगेन्द्र । श्री सुचंद्र आदि जिन नायक, पाम्या परमानंद || भेट्यो ० || ३ ॥ इम दश क्षेत्रे वीसे जिनवर, एक एक गिरिवर सिद्ध । तित्थोगाली पयत्नां माहे, ए अक्षर प्रसिद्ध || भेट्यो० ॥४॥ 3 ए तीरथ वंद्ये सवि वंद्या, जिनवर शिव पद ठाम । वीसे टूक नमो शुभ भावे, संभारी प्रभु नाम । भेट्यो ० ॥ ५॥ ட் Jain Educationa International रण रतन जिहां लहीये । तरीये जेहने संग भवोदधि, जे तारे निज अवलंबन थी, तेहने तीरथ कहीये || भेट्यो ० || ६ || 4 35 शुद्ध प्रतीति भक्ति थी ए गिरि, भेट्या निरमल थइए । जिन तनु फरसी भूमि दरश थी, निज दरसन थिर करी || भेट्यो | | | | | For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ | सुत्र' ग्ररथ धारी - परण मुनिवर, विचरे देश विहारी । जिन कल्याणक थानक देखी, पछी थाय पद धारी || भेट्यो||८|| श्रीमद् देवचन्द्र पथ पीयूष श्री सुप्रतिष्ठ सम्मेत सिखरनी, ठरणा करी जे सेवे । श्री शुकराज परे तीरथ फल, इहाँ बैठा पर लेवे || भेट्यो || || O तसु आकार अभिप्राय तेहने, ते बुद्धे तसु करणी | करतां ठवरणां शिव फल प्रापे, एम ग्रागमे वरणी || भेट्यो० ॥ १०॥ जिण ए तीरथ विधि सु भेठयो, ते तो जग सलहीजे । ते ठवरणा भेंट मे परण, नर भव लाहो लीजे || भेट्यो० ॥ ११ ॥ । दश क्षेत्रे एक एक चौबीसी, बीस जिनेसर सी सिद्ध क्षेत्र बहु जिन नो देखी, महारो मनड़ो री || भेट्यो ० ।। १२ ।। दीपचन्द पाठक नो विनयी, देवचन्द्र इम भासे । जे जिन भक्त लीना भविजन, तेहने शिव सुख पासे || भेट्यो ० ||१३|| १ - सूत्रार्थ को अच्छी तरह जानने वाले मुनि भी देश विदेश में विचरण करते हुए जिनेश्वर भगवन्तों की कल्याणक भूमि की स्पर्शना कर लेने के पश्चात् प्राचार्य पदधारी बनते हैं । २- जगत् में प्रशंसनीय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड श्री सम्मेत शिखर तीर्थ स्तवन ढाल - सुंबरानी देशी श्री सम्मेतशिखर वरु, तीरथ सिरदार । जिहां जिनवर शिवपद लह्य', मुनिवर गणधार || श्री समे० ॥ १ ॥ श्री अजितादिक जिनवरु', चोविहसंघ समेत । 3 श्राव्या इरण गिरि ऊपरे, धारी शिव काउसगा मुद्रा धरी, करी योग सकल प्रदेश अकंपना, शैलेशी कर्म अघाती खेरवी *, अविनाशी अनंत । + .४ फुसमा गतिथी लह्य ु, इक समय लोकांत || श्री समे० ॥४॥ एकांतिक प्रात्यंतिको, निरद्वद महंत । व्याबाधपणे * वर्या, कालै ५ सादि अनंत || श्री समे० ॥ ५ ॥ गुरण आणंद | गुण वृंद || श्री समे० ॥६॥ संकेत || श्री समे०॥२॥ निरोध । शोध || श्री ससे० ॥३॥ सिद्ध बुद्ध तात्विक दशा, निज ग्रचल अमल उत्सर्गता, पूरण ए तीरथ वंदन करयां, सहु सिद्ध सिद्धालंबी चेतना, गुण साधक करतां थकां, थाये निज सिद्धि | साधकता देवचंद Jain Educationa International [ ८३ वंदाय | थाय || श्री समे० ।।७।। " पद अनुभवै तत्वानंद समृद्धि || श्री समे० ||८| इति श्री सम्मेत शिखर वीस जिन स्तवनम् संपूर्णम् १- वर्या । २- जिनवरा । ३-ए । ४- एक । ५-परशुं । * ग्रघाती कर्मों को खपाकर । + प्रकाश प्रदेशों को न छूते हुए । For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hal त५६ SDMIS पायुष ........श्रीमद् देवचन्द्र पच पीयूष नवानगर आदि जिन स्तवनर नवानगर मां भेटीइ, जिनवर जयकारी । परमानंद महारसी, ... मुरति .. मनोहारी ।।नवा०॥१॥ घणा दिवस नी, हूंसड़ी, हंती, मनं माहे । ते सवि आज - सफल थई, प्रणमी जग नाहे ।।नवा०॥२॥ दरसण दीठिं देव नु, दुख जाइ दूरि । चिदानंद रस. ऊपजि, समता . स . पूरि ।।नवा०।।३।। जिनमुद्रा जिनवर समी, सिव साधन भाखी। श्री अरिहंत' अवलंब नि, पूरणी दाखी निवाठ॥४॥ परिण संवर' जिन भक्ति नो, फल' सिरखू तोल्यू ।' हित सुख निश्रेयस पणे, प्रांगम में बोल्यूं"मवा०॥५।।८ तुगीया' नगरी में 'श्रावक, जिन पूजो कीधी। भगवई में संख पुष्की , पूजन विधि लीधी नेवा ॥६॥ ऋषभदत्त अधिकार में, "उववाई" उवांगें। हरत जिन पुष्फ पूजता, अधिकार प्रसंगे ।।नवा०॥७॥" भगवई अंगे साधु जी, जिन प्रतिमा वंदि । आवसक. मि. पूजेता, अनुमोदि आनंदि निवा०।।८।। १-अरिहंत प्रभु का अवलंबन लेने से मोक्ष-मिलता है। २-संवर का और जिनभक्ति का समान फल है। ३-भगवती सूत्र में, शंख श्रावक और पुष्कली श्रावक ने। ४-यावश्यक सूत्र । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड भतपयन्ना' सूत्र मां, नव क्षेत्र वखाण्या । महानिशीथे पूजता, फल अद्भूत जाण्या ।।नवा०।।।। भगवई अनयोगद्वार मों, निरयुक्ति प्रमाणी। ते मांहे पूजा चैत्य नी, विधिसर्व वखांणी ।।नवा०॥१०॥ संपाविरो' कामे कहियो, जिन प्रागलि नमंता । संपताणु उचरयु, प्रतिमा संस्तवतां ।।नवा०।११।। पावसक पंचांगीन, पोस्तक थयु पहित्नु । जे अधिकार तिहां लिख्यां, विधि पूर्वक बहिनु ।।नवा०।।१२।। अन्यसूत्र लखतां थकां, न लिखु ते विगते । ते माटें संका किसी, जिन पूजा भगते ।।नवा०।।१३।। पुस्तकारूढ जेणे करया, तस वचन कालोला । चूर्णिमई पूजा कहीं, सी' संका भोला निवा०॥१४।। नाम निखेपो उचरि, नमतां पाणं दै । नाम थापना दुगभणी, स्या माटे न वंदे ॥नवा०॥१५॥ विनय वेयावच दान में, हिंसा नवि लेखइ । अछती हिंस्या दाखवी, कां पूजा उवेखइ ।।नवा ।। १६॥ -भक्त प्रत्याख्यान नामक सूत्र। २-नमस्कार करते हुए वहां जिसके सारे कार्य संद्ध हो गये हैं। ऐसा कहा है, यह भगवान् के सिवाय दूसरों के आगे नहीं कहा ॥ सकता। इससे सिद्ध है कि वह जिनप्रतिमा का ही अधिकार है। -हे भोले-फिर क्या शंका है। ४-विनय-सेवा-दानादि में तो हिंसा नहीं मानते हैं, और प्रभु-दर्शन, पूजन में हिंसा मानते हैं, यह कैसा अज्ञान । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूर आगम अरथ लह्या विना, पागम ऊयापि । ते तप खप करता थकां, नवि भव भय कापि ॥नवा० ।।१७।। इम आलोची चित्त मां, जिनपडिया वंदो । जिन सासण उद्दीपणा, करतां अानंदो।।१८।। 'सेठ विहार' सोहामणा, आदेसर स्वामी । वंदो पूजो भविजना, पूरण सुख कामी ॥नवा०।।१८।। कलश। इम मोक्ष कारण विघन वारण तरण (तारण)गुण करो। जिनराज वंदन नमन पूजन सूत्र साखै आदरो ।। सुच ध्यांनि वाधि सिद्ध साद्धि करम कलेश सहू हरी। श्रीदीपचंद पसाय भाखी देवचंद्र हितधरी ॥१६॥ इति श्री नवानगर आदि जिन स्तवनम् श्री अजितनाथ (ध्रांगध्रा) स्तवन अजितनाथ चरण तेरे प्रायौ, बहुत सुख पायौ च° तू मनमोहन नाथ हमारी, त्रिभुवन जन कु सुखकारौ ॥च०।।१।। तृष्णा ताप निवार निवारी, बावन चंदन सु अति प्यारो ॥च॥२॥ महामोह गिरि तुग करारो, नसु भदेन कु वज्र अटारौ ।।च०।३।। ध्रांगदरापुर में मनुहारौ, अजितप्रसाद वण्यौ अतिसारौ ॥च०॥४॥ समता रस वर्षन घन धारी, समकित बीज उपावन व्यारौ ॥च०।।५।। देवचंद्र गुण गण संभारी, एही ग्रशरण शरण उदारौ ॥०॥६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड [८७ चूडा नगर मंडन श्री मुविधिनाथ स्तवन (ढाल-नांनो नाहलो रे-ए देशो) सुविधि जिनेश्वर ! वीनती रे, दासतणी अवधार, साहेब सांभलो रे।। त्रिभुवन' जागग पागले रे, कहेवो ते उपचार ।।सा०॥१।। प्रभु छो परम दया निधि रे, सेवक दीन अनाथ ।सा०। उवट' भव भमतां भरगी रे, तुझ शासन वर साथ ॥सा०।२।। मैं पुग्दल रस रीझ थी रे, विसरयो निज भाव ।साल। आपा पर न पिछारणीयो रे, पोष्यो विषय विभाव ।।सा०।।३।। पुष्य धर्म करी थापीयी रे, विषय पोष संतोष ।सा। कारण कारज न अोलख्यो रे, कीधो राग ने रोष ।।सा०॥४॥ प्रभु प्राणा चित्त नवि रमी रे, सेव्यो पाप स्थान ।सा०। ममता मद मातो थको रे, चित्त चिते दूर्ध्यान ।।सा०।।५।। रामा नंदन प्रभु मिल्यो रे, सुग्रीव भूप कुल चंद ।सा०। श्वेत वर्ण ध्वज' मीन' नो रे, समता रस मकरंद सा०॥६॥ चूडापुरे चूडामणि रे, मन मोहन जिनराय ।सा०। देवचंद्र पद सेवतां रे, परमानंद सुख पाय ।।सा०॥७।। १-तीनों भुवनों के स्वरूप को जानने वालों के सामने कुछ भी कहना एक औपचारिकता है। २-भव में भ्रमण करने वालों के लिये आपका शासन अत्यन्त ही कल्याणकारी है। ३-स्व-पर को ४-राग-द्वेष ५-चिन्ह ६-मछली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्रीमन् देवचन्द्र पद्य पीयूष फलोधी मण्डन श्री शीतलनाथ स्तवनम् श्री शीतल जिन सेविये रे लो, मन धरि भाव अपार रे बालेसर । हीसे हरखे हीयडो रे लो, देखरण तुझ दीदार रे वा० ॥श्री०।।१।। सेवक जागी आपणो रे लो, जो धरसो नाहि नेह रे वा० । भगतवच्छल नो विरुद्ध तो रे लो, केम पालसो एह रे वा० ।।श्री०।।२।। प्राश धरी आवे जिके रे लो, आसंगायत' दास रे वा० । आशापूरण सुरमणि रे लो, करी तुझ पर विश्वास रे वा० ।।श्री०॥३॥ चोल मजीठ तणी परे रे लो, राखे जे मन रंग रे वा० । तेहने वंछित आपिये रे लो, कर अपणायत' अंग रे वा० ।।श्री०॥४॥ वयण' निवाहू मुझ मिल्यो रे लो. अंतरजामी स्वाम रे वा० । क्षण बोले पलटे क्षरणे रे लो, नांहि तेह सुं काम रे वा० ॥श्री०।।५।। आश धरु एक ताहरी रे लो, अवर नहिं विश्वास रे वा० । नाम सुरणी ने ताहरो रे लो, मन में धरु उल्लास रे वा० ॥श्री०॥६।। तुहीज मुझ मन हंसलो रे लो, तुहीज मुझ उर हार रे वा० । प्राणधरु शिर ताहरी रे लो, ए माहरी एक तार रे वा० ॥श्री०॥७॥ तुं तर साहिब सेवता रे लो, सेवक ना गुण जाय रे वा० । गिरुपा निरवाह गुणी रे लो; तेकीये तास सहाय रे वा० ॥श्री०॥८॥ क्षण राचे विरचे क्षणे रे लो, जे स्वारथीमा मीत रे वा० । प्रारथीमा पहिड़े जिके रे लो, तेह सँ केहवी प्रीत रे वा० ॥श्री०।६।। १-शरण में पाया हया २-आत्मीयता, अपनापन ३-वचन को निभाने वाले ४-आपसे अन्य किसी दूसरे की सेवा करने पर। -प्रिय स्वजन ६-निराश करना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड [८६ जे मनना (संशय हणे) रे लो, उपगारी थिर टेक रे वा० । जे गुण अवगुण ओलखे रे लो, मलीये तसु सुविवेक रे वा० ॥श्री०॥१०॥ जे चाहे आपण भणी रे लो, नित नित नवले हेज रे वा । तेहने वंछित आपतांरे लो, किण विध कीजे जेज' रे वा० ॥श्री०॥११॥ सेवक नित सेवा करे रे लो, पण न लहे बक्षीस रे वा० । पार' पखी एम प्रीतड़ी रे लो, केम चाले जगदीश रे वा० ॥श्री०॥१२॥ सेवक ने जो आपीये रे लो, वार एक शाबास रे वा० । तो हरखे सेवक रहे रे लो, जां जीवे तां पास रे वा • ॥श्री०॥१३॥ ज्यां लगी भव में हुं भमुं रे लो, त्यां लगी तुं महाराज रे वा । सेवक जाणी निवाजिये रे लो, नाथ गरीब निवाज रे वा० ॥श्री०॥१४॥ तुं सुखदायक नाथ तु रे लो, तु हीज मुझ शिर साह रे वा । अवर रंक कुरण आसरे रेलो, लही साहिब गजगाह रे वा० ।।श्री०॥१५॥ जिन मुख दीठां ही थकां रे लो, अलगा गया उद्वेग रे वा० । सुख संपति मन कामना रे लो, पायमली मुझ वेग रे वा० ॥श्री०॥१६॥ ॥ कलश ।। इम सयल सुखकर दशम जिनवर नाम शीतल शीतलो। भेट्यो फलौदीपुर मनोहर ज्ञान चारित गुण निलो ।। उवझायवर श्री राजसार वाचक ज्ञानधर्म मुरिंणद ए। गणि राजहंस 'सुशीस देवचंद्र लह्यो सुख प्राणंद ए ।।१७॥ ।-देरी २-एक पक्षीय ३-दया करिये कृष्ण ने ही आकर उगारा, ४-हाथी को जल में ग्राह ने पकड़ा तब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...] श्रीमदू देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री लींबड़ी शान्ति जिन स्तवनम् आवो सजन जन जिनवर वंदन श्री शांतिनाथ गुण वृदा रे । जस गुण रागे निज गुण प्रगटे, भांजे भव भय फंदा रे ॥१॥प्रा०॥ विश्वसेन अचिरानो नंदन, पूरण पुण्ये लहोये रे । ध्यान एक तत्वे तत्त्व विबुद्ध, शुद्धातम पद ग्रहीये रे ।।२।।प्रा०॥ संवत अढारसे साते (१८०७)वरसे, फागुन सुदि बीज दिवसे रे। श्रीशांति ज़िनेसर हरषे थाप्या,अति बहुमाने शिवसुख वरसें रे ।३।।प्रा०॥ लोंबड़ी नयरी मंडण मनोहर, शांति चैत प्रसिद्धो रे। वृद्ध शाख पोरवाड़ प्रगट जस, वोहरे डोसे कीधो रे ।।४।।प्रा०॥ जिन भगते जे धन आरोपे, धन धन तुसी मतधारो रे । गुणी राग थी तनमय चीत्ते, पुद्गल राग उतारो रे ।।५।।प्रा०॥ तीर्थकर गुण रागी बुद्धे, रत्नत्रयी प्रगटावो रे । देवचंद्र गुण रंगे रमतां, भव भय पूर्ण मिटावो रे ॥६॥या०॥ ___ इति स्तवन सम्पूर्ण (पूर्वोक्त स्तवन आनंद जी कल्याण जी पेडी भंडार लींबड़ी पत्र १ में से उद्धत! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड श्री फलवर्द्धि पार्श्वनाथ स्तवन. (ढाल-सखी री प्यारउ प्यारउ करती, एहनी) सखी री वामा राणी नंदा, अश्वसेन पिता सुख कंदा । प्रभावती राणी इंदा, दीजै मुझ परमाणंदा हो लाल ॥१॥ वीनती ए मुझ धरियइ, पातिक सगला हरियइ । मुझ ऊपर महिरज करीयइ, तिम केवल कमला वरियइ हो लाल ।।२।। सखी री तुझ सेवन पाइ दुहली' , योनि गई सहु अहिली । हिव सेवा कीजइ सहिली, मुझ इच्छा पूरउ वहिली हो लाल ॥३॥ सखी री ते सहु पातक रोकइ, ते जय पामइ इण लोकइ । रिद्धि लहइ बहु थोकइ, जे तुझ पद पंकज' धोकइ हो लाल ॥४॥ श्री फलवधिपुर राया, जब तुझ दरसरण मई पाया । दुख दोहग दूर गमाया, हिव आणद थया सवाया हो लाल ॥५॥ मई' योनि सहु अवगाही, तुझ सेवा कबहि न साही । हिव मई तुझ आण पाराही, मुझ लीजइ बांह समाही हो लाल ।।६।। जब तुझ मुख दरिसण दीसइ, तब मुझ मन अधिक उहींसइ । गणि राजहंस सुसीसइ, कहैं देवचंद सुजगीसइ हो लाल ।।७।।वी०।। । इति श्री पार्श्वनाथ गीतं • यह स्तवन श्रीमद् द्वारा स्वयं लिखित पत्र २ की प्रति से उद्धत -प्रभु की सेवा से दुर्गति सारी दूर हो गई २-मैं अनेक योनियों में जन्मा किन्तु आपकी हवा कभी न की। ३-अब मैंने तुम्हारी आज्ञा की आराधना की है अतः अब मेरी ह पकड़ लो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] श्रीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष सिद्धाचल स्तुति विमलाचल मंडण जिनवर आदि जिणंद । निरमम निरमोही केवल ज्ञान दिणंद ॥ जे पूर्व नवाणु वार धरी आणंद । सेक्रुज ने शिखरे समवसरया सुख कंद ।।१।। इण चोविसी मां ऋषभादिक जिनराय । वलि (काल) प्रतीतें अनंत चौवीसी थाय ॥ ते सवि इण गिरि वर आवी फरसी जाय । एम भावी कालें आवसइ सवि मुनिराय ॥२॥ श्री ऋषभ ना गणधर पुंडरीक गुणवंत । द्वादश अंग रचना कीधी जेण महत। ॥ सवि आगम माहे सेत्रुज महिमा वंत । भाखी जिन गणधर सेवो करी थिर चित्त ।।३।। चक्केसरि गोमुह कवड़ पमुह सुर सार । जसु सेवा कारण थापइ इंद्र उदार ॥ देवचंद्र गणि भाषइ भविजन में आधार । सवि तीरथ मांहि सिद्धाचल सिरदार ॥४॥ इति सिद्धाचल स्तुति संपूर्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड गिरनार नेमि स्तुति यादव कूल मंडण नेमिनाथ जगनाथ । त्रिभुवन जन मोहन शोभन शिवपुर साथ ।। गिरिनार शिखर सिर दिक्ख' नांण' निव्वाण । सोरीपुर नयरे चवरण जनम सुख खांणि ।।१।। इम भरते पंचइ ऐरवते वलि सार । चौवीसी जिन नी थाय जन अाधार । सुचि पंच कल्याणक वंदे पूजे जेह । निरुपम सुख संपति निश्चै पांमें तेह ॥२॥ जिन मुख लहि त्रिपदी गणधर गुथ्या जेह। वर अंग इग्यारह दृष्टिवाद गुण गेह ॥ तिणिकाल जिणेसर कल्याणक विधि तेह । समकिति थिर कारणें सेवो धरी सनेह ॥३॥ श्री नेमी जिणेसर सासन विनय रत्त । जिनवर कल्याणक आराधक भवि चित्त ॥ देवचंद्र नै सासन सनिधिकर नित मेव । . समरीजै अहनिशि श्री अंबाइ देवी ॥४॥ इति श्री गिरनार स्तुति १-गिरनार पर्वत पर प्रभु की दीक्षा २-केवल ज्ञान ३-निर्वाण हुए ४-पवित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड तप, पर्व एवं महोत्सव स्तवन-स्तुति क्या कहाँ विषय सूचा पृष्ठ संख्या १. ज्ञान पंचमी २. मौन एकदशी ३. छप्पन दिक्कुमारी महोत्सव ४. दीवाली ५. नवपद स्तवन ६. समवसरण स्तवन १०४ ७. वीस स्थानक स्तुति १०५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड ज्ञान पंचमी नमस्कार सकल वस्तु प्रतिभास भानु, निरमल सुख कारण । सम्यग् दर्शन पुष्टि हेतु भव जल निधि तारण || संयम तप आनंद कंद, अन्नारण' निवारण | मार विकार प्रचार ताप, तापित जन ठाररण ॥१॥ स्यादवाद परिणाम, धर्मं परणति पfeater | साहु साहूणी संघ सर्व, 3 मोह तिमिर विध्वंस सूर शुद्ध, आतम शक्ति अनंत मति श्रुत अवधि विशुद्ध नारण, भेद पंचाश* क्षयोपशमिक, इक .५ प्राराधन सोहर || मिथ्यात्व परासरण | प्रभुता परगासण २ ॥ दोय परोक्ष प्रथम तिहां, सकल प्रतक्ष प्रकाश भास, धर्म सकल नो मूल, शुद्ध बारह अंग प्रधान खंध, साखा श्री निरयुक्ति भाष्य चुरण टिका पत्र पुष्प, Jain Educationa International मरण पज्जव केवल । क्षायिक निरमल ।। देशत । दुग परतक्ष ध्रुव केवल अपरिमित || ३ || त्रिपदी जिन भासे । गणधर सुप्रकास || पडिसाखा दीपै । संशय सवि जीवै ||४|| २ -- काम - विकार जन्य ताप से तप्त जनों को ठारने वाले । ४- ज्ञान के पच्चास भेद क्षायोपशमिक भाव वर्ती है । ५- केवल ज्ञान क्षायिक भाववर्ती है । १- अज्ञान ३- सूर्य For Personal and Private Use Only [ % Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूषः ए पंचांगी सार बोध, . कयो जिन पंचम अंग ।। नंदी अनुयोगद्वार साखि, मोना मन रंगै ।। वीर परंपर जीत' शुद्ध, अनुभव उपगारी । अभ्यासो आगम अगम, निरुपम सुख कारी ।।५।। मोह पंकहर नीर सम, सिद्धांत अबाध । देवचंद्र ग्राणा सहित, नय भंग अगाध ॥ ए श्रुत ज्ञान सुहामणो, सकल मोक्ष सुख कंद । भगत सेवो भविक जन, पामो परमानंद ॥६॥ ___मौनेकादशी नमस्कार तिहुअण' जण पाणंद कंद जय जिणवर सुख कर । कल्याणक तिथि मांहि जेह परमोत्तम सुदर ।। मिगसर सुदि एका दशी वसी सुगुण मन मांहि । आराधो पोसह करी तो पामो सुख लाहि ।।१।। श्री अर जिन दीक्षा प्रदान नमि केवल भासन । मल्लिनाथ जिनराज जनम दीक्षा शुचि वासन ।। केवल नाण कल्याण पंच श्री जंबू भरते । . इम दश क्षेत्रे एक काल जिन महिमा वरते ॥२॥ १-याचार २-त्रिभुवन के जनों के लिये अानंद के अंकुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड अतीत अनागत वर्तमान, कल्याणक संतति । पागधो पंचास अहिय, इग सय शुभ परिणति ॥ काल अनंते रीत एह, गुण जेह मनोहर । परमातम सेवन नमन, परमारथ सुख कर · ॥३॥ दर्शन ज्ञान चारित्र वीर्य, तप गुण अाराधन । अक्षय अव्यय शुद्ध सिद्धि समता पद साधन ।। कल्याणक पाणंद कंद, सुरतरु जे भक्त । आराधै तमु प्रात्म भाव थायै सवि व्यक्त ।।४।। तीर्थ तीर्थ कर साधु संघ आराधन निर्मल । जनम महोच्छव प्रमुख भक्ति करतां हुवै शिवफल ।। देवचंद्र जिनराय पाय प्रणमो अति रीझे । परम महोदय ऋद्धि सिद्धि मन वंछित... सीझै ॥५॥ छप्पन दिश कुमरी का महोच्छव सुरनर असुर तती' नम्यो, प्रणमी श्री जिन चंदो जी। नाण चरण गुरण करण थी, जीतो मोह महिंदो जी ।। जीतीयो, मार अपार दुरजय जेण समता अनुसरी । - तसु भगति करतां भवि अनेक मुगति सुगती आदरी । -पंक्ति २-काम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] श्रीमत् देवचन्द्र पर पीयूष जे गर्भ प्राव्य सर्व इंद्रे शस्तव स्तवना करी। गुण राग रमता शुद्ध समता भावना हीयै धरी ।।१।। तीरथपति जनम्या यदा, नारक पिण सूख पामै । दश दिश निर्मलता लहै, देव देवी शिर नामै जी ।। तब चल्यै प्रासन दिशा कुमरी, हरखती भमरी' रमै । जिन जनम नगरी सनमुख थई वार वार श्री जिन नमै ।। गज दंत हेठलि आठ अमरी अधोलोक निवासनी। गज दंत ऊपरि आठ कुमरी उर्द्ध लोक विलासनी ।।२।। पाठ ते पूर्व रुचकनी, दक्षरण पच्छिम तेती जी। आठ ए उत्तर रुचकथी, सुर भव लाहो लेती जी ।। लेती ज लाहो कूरण वासी च्यार च्यार सूरी मिली। वर देव देवी सहित भगते भरी आवी नै मिली ।। जिनराज गुण गण गावती मन भावती धरती रली । जिन जननि चरण सरोज नमती जनम घर प्रावी मिली ॥३॥ धन धन तु जग तारका, जग जननी हितकारी जी। त्रिभुवन तारक सुत जण्यो, तुम्ह सम कुरण उपगारी जी ।। ताहरी सेवा इंद्र चाहे, इन्द्राणी ले उवारणा। तुज वदन दीठे दुक्ख नी है तुहिज हित सुख कारणा ॥ मोह नडीया' जगत जंतु ने तरण तारणभवि तणो ।:: आनंद कंद सुरिंद वंदित जिरणे जिनवर सुत जण्यो ॥४॥ - - १-गरबा २-चरण-कमल ३-मोह में फंसे हुए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड ग्राठ प्रथम सुइ गृह करे दुतीय कुसम जल वरसी जी । तीजी आरीसो धरै नहवरावै वलि हरसी जो ॥ हरख धरती कलस हाथें गाय जिन गुरण मंगली । पच्छिम रुचक नी दिसा कुमरी वाय वाजे मन रली || उत्तर रुचक नी आठ कुमरी वोंजे चामर मंडली । रुचक कूरण नी च्यार कुमरी हाथ दीवी ले वली ॥५॥ रुचक ईसान चउ सुंदरी गावै जिन गुण रंगे जी । नाल वधारे प्रेम सु करे मरिण पीठ अंगे जी ॥ उछाह भरते रमक झमके चमकती जिम वीजली । त्रिहुं लोक तारक चरण वंदे करे वलि वलि अंजली ॥ ग्रम्ह देव शकति थई लेखे जेह तुझ भगते मिली । करि केलि मंदिर चिरंजीवो कही बांधे पोटली ||६|| अज्ञान निवारण तु धरणी, मिथ्या तिमर निवारी जी । तृसना' ताप समाइबा, प्रभु समता समधारी ॥ तुह भारण रंगी मुनी प्रसंगी शुद्ध समता आदरे । इंद्र चंद्र नरेन्द्र पमुहा सेवना ईहा करें ॥ तुझ भगति रागी सुमति जागी पाय लागी जय करें । देवचंद्र श्री जिनचंद्र सेवा करत लीला विस्तरै ||७|| | निश्म मरिण विनय जीवन जैन लायब्रेरी नं. ८१४ म० से उद्धृत ] १ - मिध्यात्वरूपी अंधकार Jain Educationa International २ - तृष्णा के ताप को शान्त करने के लिये For Personal and Private Use Only [ ce Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पोयूष दीवाली स्तवन ग्राज म्हारे दीवाली थइ सार, जिन मुख दीठां थी ।।ग्रांकणी।। अनादि विभाव तिमिर रयणी में, प्रभु दर्शनं प्राधार रे । सम्यग् दर्शन दीप प्रकाश्यो, ज्ञान ज्योति विस्तार ।। जिन०॥१॥ आतम गुण अविराधन करुणा, गूगा ग्रानंद प्रमोद रे । परभावे अरक्त द्विष्टता, मध्यस्थता सुविनोद ।।जी।।२।। निज गुण साधन रसिय मैत्री, साध्यालबी रोति रे । सम्यक् सुखड़ी रस अास्वादी, घृत तंबोल प्रतीति ।।जि०॥३॥ जिन मुख दीठे ध्यान आरोहण, एह कल्याणक वात रे। . आतम धर्म प्रकाश चेतना, देवचंद्र अवदात ।।जि०।।४।। नव पद स्तवन तीरथ पति अरिहा नमी, धरम धुरंधर धीरो जी देसना अमृत वरसता, निज वीरज वड वीरो जी वर अखय निर्मल ज्ञान भासन, सर्व भाव प्रकासता निज शुद्ध श्रद्धा प्रात्म भावे, चरण थिरता वासता निज नाम कर्म प्रभाव अतिसय प्रातिहारज शोभता जग जंतु करुणा वंत भगवंत भविक जन नै थोभता ॥१॥ सकल करम मल क्षय करी, पूरण सुद्ध सरूपो जी , अव्याबाध प्रभुतामयी, आतम संपति भूपो जी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड जे भूप ग्राम सहज संपति शक्ति व्यक्ति पर करी स्व द्रव्य क्षेत्र स्वकाल भावे गुण अनंता ग्रादरी स्व स्वभाव गुरण पर्याय परणति सिद्ध साधन पर भरणी मुनिराज मनसर हंस समवड़ नमो सिद्ध महागुणी ||२|| | १०१. प्राचारज मुनि पति गरिण, गुरण छत्तीसी धामो जी चिदानंद रस स्वादता, परभावें निःकामो जी निःकाम निर्मल शुद्ध चिदघन साध्य निज निरधार थी निज ज्ञान दरसरण चरण वीरज साधना व्यापार थी भवि जीव बोधक तत्व सोधक सयल गरिए संपतिधरा संवर समाधी गत उपाधी दुविध तप गुरण श्रागरा ॥३॥ खंतिया मुत्ति युद्मा प्रज्जव मदव जुत्ता जी सच्च सोय अकिंचरणा तब संजम गुण रत्ता जी जे रम्या ब्रह्म सुगुत्ति गुत्ता, समिति सुमित्ता श्रुतधरा स्याद्वाद वादें तत्व वादक ग्रात्म पर विभजन करा | भव भीरू साधन धीर सासन वहन धोरी मुनिवरा । सिद्धांत वायरण दान समरथ नमो पाठक पद धरा ॥४॥ सकल विषय विष वारि नै निक्कामी निसंगी जी भव दव ताप समावता प्रातम साधन रंगी जी मुनियों के मनरुपी सरोवर में हंस-समाज २-क्षमा, निसंगता, सरलता, कोमलता, -- सत्य, शौच, आकिंचन्य, तप, संयम आदि गुरणों से युक्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष जे रम्या सुध सरुप रमण देह निर्मम निर्मदा काउसम्ग मुद्रा धीर प्रासन ध्यान अभ्यासी सदा तप तेज दीपइ कर्म जीपइ नैव च्छीपइ' पर भणी मुनिराज करुणा सिंधु त्रिभुवन बंधु प्रणमु हितभरणी ।।५।। सम्यग् दर्शन गुण नमो तत्त्व प्रतीति सरूपो जी जसु निर्धार सभाव छै चेतन गुण जे प्ररूपो जी जे अनूप श्रद्धा धर्म प्रगटै सयल परि ईहा टलै निज सुध सत्ता प्रगट अनुभव करण रुचिता उछच्ल .. बहु मान परणति वस्तु तत्वै अहव तसु कारण पणे निज साध्य दृष्ट सरव करणी तत्वता संगति गरी ॥६॥ भव्य नमो गुण ज्ञान नै, स्व पर प्रकासक भावे जी पर्यय धर्म अनंतता, भेदा भेद सभावै जी जे मुख्य परणति सकल ज्ञायक बोध भास' विलच्छना मति आदि पंच प्रकार निर्मल सिद्ध साधन लच्छना स्याद्वाद संगी तत्त्व रंगी प्रथम भेद अभेदता सविकल्प नै अविकल्प वस्तु सकल संसय छेदता ॥७॥ चारित गुण वलि वलि नमो, तत्त्व रमण जसु मूलो जी पर रमणीय पणो टलै, सकल सिद्ध अनुकूलो जी १-दूसरो से प्रभावित नहीं होते हैं। २-भाव ३-परि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड [ १०३ प्रतिकूल प्राश्रव त्याग संयम तत्त्व थिरता दम मयी सुचि परम खंती मुत्ति दस पद पंच संवर उपचयी सामायि कादिक भेद धर्मे यथा ख्य.ते पूर्णता अकषाय अकूलस अमल उज्वल कर्म' कसमल चूर्णता ।।८।। इच्छा रोधन तप नमो, बाह्य अभितर भेदें जी प्रातम सत्ता एकता, पर परिणति उच्छे दे जी उच्छेद कर्म अनादि संतति जेह सिद्ध परणो वर योग संग पाहार टाली भाव अाक्रयता करे अंतरमहर्ते तत्त्व साधे सर्व संवरता करो निज प्रात्म सत्ता प्रगट भावै करो तप गुण पादरी ।।६।। इम नवपद गुण मंडलं चो निक्षेप प्रमाणे जी मात नये जे पादरै सम्यग् ज्ञाने जारण जी निर्धार सेती गुणी गुणनो करै जे बहुमांन । तमु करण ईहा तत्त्व रमण थाय निर्मल ध्यान ए इम सुद्ध सत्ता भिल्यो चेतन सकल सिद्धी अनुसरे अक्षय अनंत महंत चिदघन परम पाणंदता वरै ।।१०।। ।।कलश।। इअ सकल सूखकर गुण पुरंदर सिद्धचक्र पदावली सविलद्धि विज्जा सिधि मंदिर भविक पूजो मन रली उवझाय वर श्री राजसारह ज्ञानधरम सुराजता गुरु दीपचंद सुचरण सेवक देवचंद्र सुशोभता ।।११॥ . १-काम २-गुरण गुरणी नो ३-इम सयल ४-विद्या सिद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष समवशरण स्तवन (जिनागम स्तुति) अाज गइ थी हुं समवसरण मां, जिन वचनामृत पोवा रे। श्री परमेश्वर बदन कमल छवि, हरखि हरखि निरखेवा रे ।।प्रा०॥१॥ तीन भुवन नायक सुद्धातम, तत्व अमृत रस वूटुं' रे । मकल भविक वसुधा नीलाणी, माहरु मन पण तूर् रे ॥प्रा०॥२॥ मन मोहन जिनवर जी मुझ ने, अनुभव प्यालु दीधो रे । मभ्यग् ज्ञान सहज रस अनूपम, भक्ति पवित्र थई पीधो रे ।।प्रा० ।।३।। ज्ञान सुधा लीलानी लहरें, अनादि विभाव विसारयो रे । पूर्णानंद अखय अविचल रस, सुचि निज भोग समारयो रे ।।प्रा०।।।। .. भोली सखीये आम स्यु जोवो, मोह मगन मत राचो रे । देवचंद्र प्रभु सु इंकतान, मिलवु ते सुख साचो रे ।।प्रा०।।५।। . १-वरसना २-भव्यात्मा रूपी पृथ्वी ३-हरी-भरी होना ४-ज्ञानामृत की जो लीला, उस लीला की लहरों से, प्रात्मा का अनादि का जो विभाव था वह विभाव दूर हो गया है तथा पूर्णानन्द का रसास्वाद स्मरण होने लगा है। ५-प्रभु से एकमेक हो जाना। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खार [ १०५ वीस स्थानक स्तुति अरिहंत १ सिद्धर पवयण ३ प्राचारिज ४ थिवराग ५ उवझाय ६ साहु ७ श्रुत ८ दंसरण : विनय १० पहाण चारित११ ब्रह्म १२ किरिया १३ तप १४ गोयम १५ जिनभाण १६ मंयम १७ नाग १८ श्रुत १६ संघ २.० सेवो वीसे ठाग ।।१।। उत्कृष्ट जिनवर एक सो . सत्तरिः धीर । वलि काल जघन्ये जिनवर वीस . गभीर ।। जिन थाय अनंता अतीत अनागत काल । ए वीसे थानक अाराधो गण माल ॥।। आवश्यक वे वेला जिन वंदन त्रिगण काल । थानक पद गुणवा सहस्स दोयं सुकपालं ।। काउसग गुण स्तवना पूजा प्रभावना सार । इम सासन बछल करतां भव नो पार ॥३॥ ममरीज: अहनिशि गुण रागी सुर साथ । जख जखणी सुर पति वेयावच्च कर नाथ ।। थानक तप विधि सु जे सेवे मन रंग ।।. देवचंद्र. प्राणायै सानिधि करै तस चंग ॥४॥ - १-जिन शासन-संघ २-प्राचार्य ३-रथविर, ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध, पर्यायवृद्ध आदि ४-उपाध्याय ५-साधु ६-तीर्थकर ७-दोनों टाईम प्रतिक्रमण ८-संघ-शासन का वात्सल्य-प्रभावना, करना स्वधर्मी वात्सल्य करना इत्यादि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खंड प्रागिक वर्णन कही विषय पृष्ठ संख्या १०७ १. जिन भाल वर्णन पद २. जिन भ्रू वर्णन पद ३. जिन नयन वर्णन पद ४. जिन नासिका वर्णन पद ५. जिन श्रवण वर्णन पद ६. जिन मुख वर्णन पद पद १०६-११० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड [ १०७ जिन भाल वर्णन पद राग-नायकी जिनजी तेरा भाल विशाला । सित' अष्टमी शशि सम सुप्रकाशा, शीतल ने अणियाला' ।।जि०॥१।। उत्तम जनको सिद्धशिला का, अनुभव हेतु उराला । समकित बीज अंकूर वृद्धि का, एह अमल पाल' वाला ॥जि०।।२।। साधक को संजम तरु रोपण, एहीज अनुभव थाला । वली रेखा नरपति सुरपति को, हित उपदेश प्रणाला ।।जि० ॥३॥ उर्ध्व तिलक रेखा युग सोहे, उपशम जलधि उछाला । देवचंद्र प्रभुभाल अनुपम, समता सरोवर पाला ॥जि०।४।। जिन भ्र वर्णन पद राग सारंग अति नीके भ्र जिनराज के (२) अंक रत्न द्युति सब हारो, श्याम सुकोमल नाजुके ॥अति०॥१॥ मोह मदन अरि विजय करन को, मानु कृपाण सुसाज के।।अति०।।२।। कर्म' कटक निवारन को धन, धनुष विवेक सुराज के प्रति०॥३॥ भ्रमर' पंक्ति मुख कज रस लीनी, अंकूरे गुण राज के प्रति०॥४॥ देवचंद्र भव जलधि तरेन को, सढ ए श्याम जहाज के ।।अति०॥५॥ Aad . ११-शुक्ल पक्ष की अष्टमी के चन्द्र के समान २-मन मोहक -क्यारी ४-प्रभु आपकी भौएं कामरूपी शत्रु को जीतने के लिये, कृपाण तुल्य है ५-कर्म शत्रु को जीतने के लिये धनुष-तुल्य है। ६-मुख-कमल पर भंवर समुह है ७-गुण के अंकूरे हैं ८-भव समुद्र तिरने को जहाज है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] जिन नयन वर्णन पद राग - कनड़ो नीके नयन तुमारे, हो जिनजी ( २ ) सकल विशेष सामान्य विलोकने, मानुं द्वय गुरण सारे हो जिनजी० || १ | निःस्पृहता प्रभुता के भाजन, भविकु लागत प्यारे हो जिनजी० ।। २ । समता मोहन खोहन ममता, प्रति तीखे प्रणियारे हो जिनजी० ॥३॥ याकी स्थिरता जे जन लीने, तिरण निज काज समारे हो जिनजी ० ||४|| देवचंद्र हग छबि प्रति अद्भुत, द्यो हग में ग्रवतारे हो जिनजी० ||५|| जिन नासिका वर्णन पद श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पोष राग-कहरवा Jain Educationa International प्रति श्रद्धत प्रभु की नासिका ( २ ) तीन भुवन में उपमा नांहि, अविनाशी सुख वासिका || प्रति० ॥ | १ || मोह महारिपु कंद निकंदन, विजय पताका ग्रासिका || प्रति ||२|| निर्विकार पद रसिक भविक कु, भक्ति प्रमोद उल्लासिका || प्रति ॥३॥ निश्चय रत्नत्रयी आराधन, साधन मार्ग विकाशिका || प्रति० ॥४॥ देवचंद्र मुखकज प्रतिबोधन, चंद्रकला सुप्रकाशिका || प्रति० ||५|| For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन श्रवण वर्णन पद राग- -केदारो सुंदर श्रवरण' को ग्राकार, जिन ! तेरे श्रवरण को आकार, भवसमुद्र जल पार उतारन, पोत के ग्रनुहार || सुं०||१|| अनादि विभाव कांकर निकासन, पाकपात्र सम सार | ० ||२|| 3 [ १०६ महा मोहको जहर हरणकुं, गरुड़ पक्ष ग्रविकार | सुं०||३|| ५ विशद बोध मुक्ताफल प्रगटन, अवधि मडुकी चार | सुं०||४|| देवचंद्र प्रभु श्रवरण स्तवन सें, परम सौख्य विस्तार | ० ||५|| वर्णन पद जिन मुख राग - मल्हार हु तो प्रभु ! वारी छ तुम मुखनी, हुं तो जिन बलिहारी तुम मुखनी । समता अमृतमय सुप्रसन्न नित, रेख नहि राग रुखनी । हुतो० ॥ १ ॥ कान २ - भव-समुद्र को पार करने में आपके कान, जहाज-समान है । ३ - अनादि. कालीन विभावरूपी कंकरों को दूर करने में पवित्र भाजन तुल्य है । ४ - मोह विष को हरण करने के लिये गरूड़ की पांखें समान है । ५- बोधरूपी उज्जवल मोतियों को प्रकट करने में सीपी तुल्य हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] श्रीमदेवचन्द्र पथ पीयूष! . . . . . . . म्रमर' अर्धशशि धनुह' कमल दल, कीर हीर पुनम शशि नी । शोभा तुच्छ थई प्रभु देखत, कायर हाथ जेम असिनी ॥हूं तो०॥२॥ मनमोहन तुम सन्मुख निरखत, आँख न तृपति अमची । मोह तिमिर रवि हर्ष चंद्र छबि, मूरति ए उपशम ची ।।हुं तो०॥३॥ मन नी चितमिटी प्रभु ध्यावत, मुख देखतां तनु नी । इंद्रिय'' तृषा गई सेवंतां, गुण'२ गांवंतां वचन नी ।हुं तो०।४।। मीन चकोर मोर मतंगज, जल शशि घन वन निज थी । तिम मुझ प्रीति साहिब सुरत थी, और न चाहूं मन थी ।हुं तो०।।५।। ज्ञानानंदन जग प्रानंदन, प्राश दास नी इतनी । देवचंद्र सेवन में अहनिशि, रमजो परिणति चित्तनी ।हुं तो०॥६॥ - १-केश कलाप द्वारा भंवरों का। २-भाल से अर्धचन्द्र की ३-भौगों से धनुष की। ४-नेत्र द्वारा कमल दल की। ५-नाक से तोते की। ६-दाँतों से हीरे. की शोभा तुच्छ लगती है। ७-मुख से पूर्णिमा का चांद फीका हैं। ८-तलवार ९-मन की चिता प्रभु के ध्यान से मिट गई है। १०-दर्शन से तनेकी ११-सेवन करने से इन्द्रियों की और १२-गुण-गाने से वचन की। १३-हाथी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड सज्झाय व गहूँलो अनुक्रमणिका क्रम सं० विषय पृष्ठ सं० ११४ ११८ १२२ १२२ १२४ RKindn Gm www पांच पांडवों को सज्झाय द्रविडवारिखिल्ल मुनि ढंढण ऋषि ध्यानी निग्रंथ पार्श्वनाथ गरगधर द्वादशांगी द्वादशांग एवं १४ पूर्व श्री भगवती सूत्र साधु ... सदा सुखी मुनिराज़ चक्रवर्ति से अधिक सुखी मुनिवर मोह परिवार विवेक परिवार आगम अमृत आठ रूचि सज्झाय समकित , १२६ १२७ २ १२६ १३० 0 १३४ १३५ १३८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं० विषय पृष्ठ सं० १३६ २ उपदेश पद १ उपदेश पद २ द्रुपद पंचेन्द्रिय विषय त्याग पद हीयाली झूठ त्याग सज्झाय चोरी त्याग , ब्रह्मचर्य मनोनिग्रह सज्झाय अष्ट प्रवचन माता पंच भावना सज्झाय प्रभंजना सज्झाय गजसुकुमाल मुनि गहूँली सम्मेत शिखर स्तवन १४० १४१ १४१ १४३ १४५ १४६ १४७-१६४ १६५-१७७ १७८ १८५ १६० १६१-१६२ यह स्तवन द्वितीय खण्ड (तीर्थ स्थल सम्बन्धी स्तवनों) में देना था पर न दे। सकने के कारण अन्त में दिया गया है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड पांच पांडवों की सज्झायः जीहो पांच पांडव मुनिराय ग्रारोहे सेनुंज गिरे हो लाल । पूरव सिद्ध अनंत तेहना गुरण मन धरे हो लाल ||१|| धन्य श्रमण निग्रंथ जिरग निज प्रातम तारीयो हो लाल । दरसण ज्ञान चरित्र ग्राम धरम संभारियो हो लाल ||२॥ पामी गिरवर एह सूधुं ग्ररणसरण ग्रादरी हो लाल । कर्म' कदर्थन भांजि निज प्रसंगता' ग्रनुमरी हो लाल ||३|| प्रणामी ग्रादि जिणंद ग्रारणदे वंदन करे हो लाल । ते मन चितें एम ग्रात्म बलें भव गिरि उपर एकांत पुढवि सिलापट धरमाचारज नेमि वंदे निरमल हेज में हो लाल ||५|| सिद्ध सकल प्रणमेव ग्राचारज जीव सकल खामेव वस्तु धरम भय हरें हो लाल ॥४॥ पुंजि नें हो लाल । पमुहा गणी सम्यग् सुरणी Jain Educationa International ] १११ हो लाल । पाप स्थान अढार द्रव्य भाव थी वोसिरी पूर्व व्रत परमाण बलि त्रिकरण थी उच्चरी हो लाल ||७|| इष्ठ कंत अभिराम धीर सरीर ने वोसरे हो लाल । पचख्या चारे आहार पादप परि णसण करे हो लाल || ८ || * कर्मों की कदर्थना को नाशकर २ - प्रपने ग्रात्मस्वभाव को प्राप्त किया - पादोपगमन हो लाल । हो लाल || ६ || For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पोयूष भेदरत्नत्रय रीत साधन जे मुनि ने हतो हो लाल । तेह अभेद स्वभाव ध्यान बले कीधो छतो हो लाल ।।६।। तत्त्व रमण एकत्त्व रमतां समाता तन्मयी हो लाल । पंच' अपूरव योग करम थिती भागी गई हो लाल ॥१०।। अश्व समी करणेण कर्म प्रदेसें अनुभव्या हो लाल । कीटी' करणे मोह चूरण करि निरमल ठव्या हो लाल ।।११।। क्षीणमोह परगणाम ध्यान शुकल बीजोधरें हो लाल । घाती क्षय लयलीन केवल ज्ञान दशा वरें हो लाल ।।१२।। थया अयोगि असंग सैलेसी घनता लही हो लाल । अव्याबाध अरूप सकल पूरण पद संग्रही हो लाल ।।१३।। सिद्ध थया मुनिराज काज संपूरगा नीपनो हो लाल । सुद्धातम गुरण भोग अक्षय अव्यय संपनो हो लाल ।।१४।। नाग दंसण संपन्न असरीरी अविनश्वरू हो लाल । चिदानंद भगवान सादि अनंत दशा धरू हो लाल ।।१५।। वीस कोडि मुनिराय, सिद्ध थया शत्रुजय गिरे हो लाल । ते कालें जयसाधु, कोडि तीन थी शिव बरे हो लाल ।।१६।। नारद मुनि लही सिद्ध साधू एका लाख थी हो लाल । १-स्थितिधात, रसधात - गुणश्रेणि, गुण संक्रम एवं अपूर्व स्थितिबंधरूप पांच योग २-मोहनीय कर्म के भेदरूप अतिसूक्षम लाभ को रसकस हीन बनाकर क्षय करना। ३--पांच पाण्डवमुनि २० क्रोड़ मुनियों के साथ सिद्धाचल पर मोक्ष गये हैं। ४-नारदमुनि एक लाग सुनियों के साथ मोक्ष गये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ ११६ भाख्यो ए अधिकार 'सेज महातम' मांहि थी हो लाल ।।१७।। एहवा संजमधार पार लह्यो संसार नो हो लाल । वदो सवि नर नारि समर। सुगुण भडार नो हो लाल ।।१८।। पाठक श्री दीपचंद सीस गणी इम मगले हो लाल । वंदे मूनि देवचंद सिद्धा जे सिद्धाचले हो लाल ॥१६।। द्राविड़ वारिखिल्ल मनि सज्माय धन धन मुनिवर जे संजम वर्या जी परिहर्या पाप अढार रे । समता प्रादरी मुनि ममता तजी जी, सम्यक् क्षमा दया भंडार रे।।ध०॥१।। ऋषभ वश द्रविड़ नृप पुत्र बे जी, द्राविड़ अने बीजो वारि खिल्ल रे। भूमि निमित्त रण' रसीया थका जी तापस संयोगे काढयो सल्ल रे।।ध.॥२॥ संजम लीधो भट' दश कोड़ि थी जी, पहुँता सिद्धाचल गिरि शृंग रे । अरणशण करी निज तत्त्वे परिणम्या जी। त्रिविध त्रिविध वोसिरावी संग रे ॥ध० ॥३।। रत्नत्रयी रमी प्रातम संवरीजी, अोलखी छड्यो सर्व विभाव रे । प्रत्याहार करी धरी धारणाजी, वलग्या निर्मल ध्यान स्वभाव रे।।ध.॥४।। मैत्री भाव भजी सवि जीवथी जी, करूणा भाव दु:खी थी तेम रे । पंच गुगगी नी नित्य प्रमोदता जी, शुभा शुभ विपाके मध्य प्रेम रे ।।ध.।।५।। १-राज्य के लिये युद्ध करते हुए २-दशक्रोड मुनियों के साथ द्राविड और वारिखिल्ल ने दीक्षा ग्रहण की और मोक्ष गये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष भात' चारि नो सर्व नें, तुम्हें कीधो अंतरायो रे।। तीब्र रसे जे बांधीयों, तसु विपाक ए आयो रे ।।ध०।।११।। मुनिवर अभिग्रह प्रादरयो, एह करम क्षय कीधे रे । लेस्यु हवे आहार नै, धीरज कारज सीधै रे ॥ध०।।१२।। मास गया षट ईण परै, पिण मुनि समता लीनो रे । अग पाम्यै अति निर्जरा, जाण तिण नवि दीनो रे ।।३०।।१३।। वासुदेव' जिन वंदि नै, पूछे धरि पाणंदो रे । साधक साधु में निरमलो, कवण कहो जिणचंदो रे ।।ध ०।।१४।। नेमि कहै ढंढगग मुनि, संवर निरजरा धारी रे । सहू साधु थकी अधिक छे. समता सुद्ध विहारी रे ॥ध०।।१५।। निज घर प्रावतां नरपते, वंद्यो मुनि शम कंदो रे । दीठो तब इक गृहपति, पाम्यो हरख अानंदो रे ।।ध ०।।१६।। मुनि अाव्या तसु अंगगौ, पडिलाभ्या मन रागे रे । । मोदक सूझता मुनि ग्रही, चढते मन वैरागे रे ।।१०।।१७।। जिन वंदी ने पूछीयो, तूटो ते अंतरायो रे । नाथ' कहे यदुनाथ ने, कारण थी तुम्हे पायो रे ।।ध०।।१८।। पाठान्तर- + अमंदोरे १-चारा-गानी का अन्तराय करने से। २-फल ३-अन्तराय कर्म क्षय होने पर ही ग्राहार ग्रहण करूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण करी ४-श्रीकृष्ण । ५-नेमिनाथ ६-श्रीकृष्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ ११७ सांभली मुनि अति हरखीयो, धन धन ए गुरु राजो रे । वीतराग उपगारोया, कृपा करी मुझ प्राजो रे ॥ध०।।१६।। साध्य अधूरे कुरण करै, ए ग्राहार असारो रे । पुद्गल जग* नी अथठ ए, किम ले मुनि सुविचारो रे। ध०।।२०।। साधन वधते पादरे, ए साधक विवहारो रे । ... निःकारण' पर वस्तु ने, छीपें नहीं अरणगारो रे ।।३०।।२१।। इम चीतवि सुद्ध थंडिले, परठवता ते पिंडों रे । पुद्गल संग नी निंदना. निज गुण रमण प्रचंडो रे ।।ध ० ।।२२।। पर परणति विछेदता, निज परणति प्रागनावो रे । क्षपक श्रेणि ध्याने रम्यां, पाम्यो यात्म स्वभावो रे ॥१०॥२३॥ प्रातम तत्त्व एकाग्रता, तन्मय वीरज धारो रे । धन घाती सवि खेरव्या, रतनत्रयी विसतारो रे ।।१०।२४।। क्षीण मोह करि चरगा नी, क्षायकता करि पूरी रे । केवल ज्ञान दंसण वर्या, अंतगय सवि चूरी रे ॥ध०।।२५।। परमदान लाभ नीपनो,' कीधो कारज सूधो रे । समवशरण में प्रावीया, साध्य संपूरण सीधो रे ।।ध०।।२६।। एहवा मुनि ने गाईये, ध्याईये धरि प्रागंदो रे । देवचंद्र पद पाईये, लहीय परमानंदो रे ।ध० ।।२१।। पाठान्तर- * जड़ ऐंठ १-साधु बिना कारण पर वस्तु को हुए तक नहीं। ई-प्राप्त हया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष ध्यानी निग्रंथ सज्झाय ॥ दोहा॥ परमारथ निश्चय करी, वधते मन वैराग । इंद्रिय सुख निष्पृह थका, साधु इसा वड़ भाग' ।। १ ।। भाव शुद्धि भव भ्रमण थी, छूटा जे जोगीश । काम भोग थी उभग्या, तननी स्पृहा न रीश ।। २ ।। प्राण त्याग पण ध्यान थी, छूटे नहीं लगार । पर त्यागी मुनिवर तिके, ध्यान तरणा आधार ।। ३ ।। महा-परिसह साप थी, जन निंदा थी जास। क्षोभ न पामे मन तनक, वसता निज गुरण वास ।। ४ ।। राग द्वष राक्षस थकी, भयनवि पामे जेह ।। नारी थी मन नवि चले, अक्षय निज रस गेह ।। ५ ।। तप दीपक नी ज्योति थी, बाल्या कर्म पतंग । ज्ञान राज्य त्रय लोक नो, विलसे जेह निः संग ।। ६ ।। तप थी तन ने पीड़वे, उपशम रस भंडार । लोक सर्व सुखकार जे, मोह अग्नि जलधार ।। ७ ।। निज स्वभाव अानंदमय, शांत सुधारस ठाम ।। योग' महागज जीप ने, व्रत धारी शम धाम ।। ८ ।। १-भाग्यशाली २-जो काम भोग से दूर हो गये है। ३-जरा भी ४-मन-वचन और काया इन योग रूपी हाथी को जीतकर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ ११६ १ ढाल-(तार मुझ तार संसार सागर थकी, ए देशी) महा शमधार सुखकार मुनिराय जे, . ध्यान ध्यावा भणी जोग थावे । देह आधार संसार सुख निस्पृही, तेह जोगीश निज देह पावे ।।म०॥१॥ शुद्ध विज्ञान रस पानथी शांत मन, __थावर जंगम दया धारी । मेरु जिम अचल अाकाश जिम निर्मला, पवन जिम संग विण लोभ वारी ॥२॥म०।। भव्य सारंग सुखकार उपदेश थी, देह शोभा तजी मोक्ष साधे । ज्ञान शक्ति करी आत्म निज अोलखे, शुद्ध निज ध्यान ते मुनि आराधे म०।।३।। एम निज देह ने मोक्ष गृह चढण ने, कही सोपान सम साधु सेवा । ध्यान ते साधुने मोक्ष कारण कह्यो, विमल विख्यात निजगुग्ण वहेवा ।।म०।।४।। दांत मन विहग इद्रिय भणी. जे दमे, ज्ञान ना गेह पातक विडारे । कर्म दल गंज ने चित्त निरमल थका, एम जोगीश शिव मग सुधारे ।।५।।म ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १२० ] श्रीमद् देवचन्द्र प. पीयूष गिरि नगर कंदरा गेह शय्या शिला, ___ चंद्र कर दीप मृग संग चारी । ज्ञान जल तप अदीन शांत आत्मा थका, धन्य निग्रंथ सुविहित बिहारी !।म०॥६॥ प्राण इंद्रिय वली देह संवर करी, रोकी संकल्प मन मोह भंजी । धन्य निज ध्यान आनंद प्रालंब धरी, शुद्ध पद प्रात्मनी ज्योति रंजी ॥०॥७।। हेय आदेय त्रिभुवन गण साधु जे, क्षय करे पुण्य ने पाप केरो । प्रात्म आनंद स्याद्वाद थी विषय ने, विष गणी भंजता कर्म घेरो म||८|| कार्य संसार ना साधता ज्ञानविण, जगत में एहवा बहुत दीसे । कापी भव दुःख बली ज्ञान जल झीलता, एवा साध दोय तीन दीसे ।।म०।।६।। बड़े प्रासाद में नरम पल्यंक पर, रात जे पौढता नारी संगे । तेह गिरि कंदरा कठिन शिला परे, रहे नित जागता ध्यान रंगे ।।म०।।१०।। चिन थिर राग ने द्वेष नो भय करी, जीप इंद्रिय प्रारंभ छोड़ी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १२१ ज्ञान उद्दीपना थकी आनंद मय, देखी निज देव ने कर्म मोड़ी ॥म०।।११।। छोडी परसंग आत्मा भणी सिद्ध सम, ध्यावता सुमति सुं मोह वारे । आत्म स्वभाव गत जगत सहु अन्य गणी, ज्ञान निधि मोक्ष लक्ष्मी सुधारे ।।म०।।१२।। ज्ञान निधि मावा तत्त्व चिंता करे विषय ने परि हरे, स्वहित निज ज्ञान प्रानंद दरीयो । सुमति संयुक्त तप ध्यान संयम सहित, एहवो साध चारित्र भरीयो ।म०॥१३॥ एहवा पंडितो वचन रचना थकी, नित थुणे आत्म ने बहुत ऐसा । शुद्ध अनुभूति पानंद सुं राचीया; ___ कटे भव पास दुरलंभ तेसा ॥म०॥१४ एहवा योगधारी जिके मुनिवरु, ध्यान निश्चल ते केईज राखे । ध्यान ने योग अरणयोग नी ए कथा, ग्रंथ अनसार देवचंद्र भाखे ।।म०।१५।। (ध्यान दीपिका में से) पाठान्तर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] धीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री पार्श्वनाथ गणधर सज्झाय पास जिनेश्वर देवना जी, गणधर दस गुण खाण । कल्पसूत्र में अड' क ह्या जी, ते कारण वसे जारण । चतुर नर, वंदो गणधर स्वाम ।।१।। पहेलो गणधर पासनो जी, 'शुभ' नामे शुभ धार । 'आर्यघोष' बीजो स्तवं जी, तीय' 'वशिष्ट' उदार ॥चतु०॥२॥ 'ब्रह्मचारो' चोथो नमुं जी, पंचम 'सोम' सनूर । छट्ठो 'श्री हरि' सातमो जी, 'वीरभद्र' गुण भूर ॥चतु०।।३।। सूरि शिरोमणि पाठमो जी, 'जस' नामे परधान । 'अावश्यक नियुक्ति' थी जी, जय तेम विजय निधान ।।चतु०॥४॥ द्वादश अंगधरू सहू जी, सहू पहोंता निरवाण । देवचंद्र' गुरु तत्त्वनाजी, सेवो चतुर सुजाण ।।चतु०।।५।। द्वादशांगी समाय (अजित जिन तारजो रे, ए देशी) हवे नवि तजजो रे, वीर चरण अरविंद, सदा तुमे भजजो रे जिनवर गुरण मकरंद ।। प्रांकणी।। श्री इन्द्रभूति गगा घर इम भाखे, सांभलजो तमे भाई । वाद मिसे' पण इरण दिशि अाव्या, पाम्य मोक्ष सजाई हिवे ।।१। १-पाठ :-जीसरा -वाद विवाद के बहाने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १२३ भ्रांति टली मुझ मन नी सघली, अनुभव अमृत पीधो । वीतराग' पण करुणा रीते, मुझ ने तेड़ी लीधो ।हवे०॥२॥ वारु कर्यु-जे तुम इहां अाव्या, त्रिभुवन पति गुरु दीठो । चउगति भ्रमण तणो भय वार्यो, पाप ताप सवि नीठो ।।हवे०॥३॥ अग्निभूति पमुहा इम चिंते, भाव चिंतामणि लाधो। एहनी सेव करी उल्लासे, निज परमारथ साधो हवे०।४।। कर जोड़ी वंदी इम भाखे, प्रभु सामायिक आपो।। सर्व असंयम दूर निवारी, अमने सेवक थापो ॥हवे०॥५॥ सामायिक प्रभु मुख थी पामी, संयत भावे आया । ... इंद्रादिक अनुमोदन करता, इंद्राणी गुण गाया ॥हवे०॥६॥ तत्त्व प्रकाश करो जगनायक, कर जोड़ी सवि मागे। तत्त्व प्रकाशक त्रिपदी आपी, करुणा निधि वीतरागे ।हरे०॥७॥ वीर वचन दिनकर कर फरसे, ज्ञान कमल विकसाणो। जीव अजीवादिक नो सघलो, वक्तव्य भाव जणाणो ॥हवे०॥८॥ द्वादश अंग रच्या तिण अवसर, वासक्षेप प्रभु कीधो। चउविह संघ तणो अधिकारी, श्री गणधर पद दीधो ।हवे०॥॥ त्रिशलानंदन सेवन करता, निज रत्नत्रयी गहीये । आत्म स्वभाव सकल शुचि करवा, देवचंद्र पद लहीये ॥हवे०॥१०॥ १-प्रभु ने भी करुणा करके, मेरा नाम लेकर बुलाया २-अच्छा हुआ ३-अपना काम .४-वीर जिनेश्वर के वचनरूपी सूर्य की किरणें ५-कहने योग्य ६-पवित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] द्वादशांग एवं १४ पूर्व- सज्झाय ( ढाल - पंचमी तप तुम करो रे प्रारणा, ए देशी) श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष वीर जिणेसर जग उपगारी, भाखी त्रिपदी सार रे । गणधर बोध वध्यो प्रति निर्मल, पसर्योश्रुत विस्तार रे || वीर०|| १ | । दृष्टिवाद अध्ययन प्रकाश्या, परिकर्म सूत्र अनुयोग रे पूर्व अनुयोग पूर्वगत पंचम चूलिका शुद्ध उपयोग रे || वीर० ||२|| वस्तु सत्कार सुविधि नो देशन, कारण कार्य प्रपंच रे । पूर्वगत नामे विस्तार्थी चोथों बहु गुरण संच रे || वीर० || ३ || । प्रथम पूर्व उत्पाद' प्ररूप्यो, प्रग्रायणी' द्वितीय रे वीर्य - प्रवाद' ने प्रस्तिप्रवाद ए, ज्ञान प्रवाद' अमेय रे || वीर० ॥४॥ । सत्यप्रवाद ने श्रात्मप्रवाद नो, कर्मप्रवाद पर रे प्रत्याख्यान विद्या" सुप्रवादन, कल्यारण .११ नाम सनूर रे || वीर० ।। ५ ।। 5 प्राणावाया' क्रिया " सुविशालह, सुगुरण लोक' विदुसार रे । प्रथम कह्या गणधर तिरण पूरव, नाम थयो सुखकार रे || वीर०||६|| Jain Educationa International १ - गणधरों ने जिनके पहले रचना की वे पूर्व कहलाये वे १४ है । २- प्रग्रायणीपूर्व ३ - वीर्यप्रवाद ४- प्रस्तिप्रवाद ५- ज्ञानप्रसाद ७- श्रात्मप्रवाद - कर्मप्रवाद ε- प्रत्याख्यानपूर्व १० - विद्यापूर्व १२- प्राणवादपूर्व १३- क्रियापूर्व १४ - लोकविदुपूर्वं । For Personal and Private Use Only १ उत्पाद पूर्व, ६- सत्यप्रवाद ११ - कल्याणपूर्व Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड गहन अर्थ भाषा अति संस्कृत, समझे अति मतिवंत रे । तिरण श्री संघे विनव्या गणधर, सुगम प्रकाशो संत रे ।।वीर०॥७॥ जगत दयाल प्राचारज वोल्या, अंग इग्यार निधान रे। आचारांगे पातार मोक्ष नो, द्रव्य भाव सुप्रधान रे ।।वीर०॥८॥ सूयगडांगे तत्व नो शोधन, ठाणांगे दश ठाण रे। समबायांगे बोल विविध छै, आगम नो मंडाण रे ॥वीर०॥६॥ विवाह पन्नती नाम भगवती, अति गंभीर उदार रे । ज्ञाता धर्म कथा मुनिचर्या, उपाशक दशा विचार रे ॥वीर०॥१०॥ अंतगड़ दशा अनुत्तरोववाइ, -दशा प्रश्न व्याकरण रे। .. सूत्र विपाक ए अंग इग्यारह, गूंथ्या अर्थ सुवरण रे ।वीर०॥११॥ अर्द्धमागधी भाषा मनोहर, सवि जन ने हितकार रे। गणधर वचन ते 'अंग' कहीजे, शेष पयन्ना सार रे ॥वीर०॥१२॥ ए जिन अागम अति उपगारी, केवल ज्ञान निदान रे। . अभ्यासो मुनि प्रातम हेते, निर्मल समता थान रे ॥वीर०॥१३॥ श्रुत सज्झाये जिन पद लहीये, थाये तत्व नी शोध रे । देवचंद्र प्राणाये सेवो, जिम लहो शुद्ध प्रबोष है और०॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री भगवती सूत्र सज्माय .. (ढाल---सांभलजो मुनि संजम रागे, ए देशी) श्री सोहम जंबू ने भाषे, सांभलजो भवि प्राणो रे । गौतम पूछे वीर प्रकाशो, मधुरी सुखकर वाणी रे ।।श्री।।१।। सूत्र भगवती प्रश्न अनुपम, सहस छत्तीस वखाण्या' रे। दश हजार उद्देशा मंडित, शतक एकताल' प्रमाण्या रे।।श्री०।।२।। खंदक आदिक मुनिवर सुविहित श्रावक प्रश्न अनेक रे । धर्म यथारथ भाव प्ररूप्या, श्री गगाधर सुविवेक रे ॥श्री०।।३।। संवेगी सद्गुरु कृत योगी, गीतारथ श्रुत धार रे । तसु मुख शुद्ध परंपर सुणतां, थावे भव निस्तार रे ।।श्रो०।।४।। गौतम नामे पूजन वंदन, करतां सुणतां भव्य रे। श्रुत बहुमाने पातक छीजे, लहिये शिव सुख नव्य रे ॥श्री०॥५॥ मन वच काय एकांते हरखे, सूणिये सूत्र उल्लास रे।। गारुड़ मंत्रे जेम विष नाशे, तेम तूटे भव पास रे ।।श्री०॥६।। जयकुंजर ए श्री जिनवर नो, ज्ञान रत्न भंडार रे । आतम तत्व प्रकाशन रवि ए, ए मुनिजन अाधार रे ॥श्री०॥७॥ सांभलशे मनरंग सूत्र जे, भरणशे गुणशे जेह रे । 'देवचंद्र' आरणाथी लहेशे, परमानंद सुख तेह रे ।।श्री०।।८।। पाठान्तर-+बखाण रे *इकतालीस प्रमाण रे ४ गहूंली गीत सुभव्य रे विधि थी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १२७ साधु सज्झाय साधक साधजो रे, निज सत्ता एक चित्त । निज गुण प्रगट पणे जे परिणमें रे, एहिज आतम वित्त ।।सा०॥ १।। पर्याय अनंता निज कारिज पणे रे, वरते ते गुण शुद्ध । पर्याय गुण परिणाम कर्तृता रे, ते निज धर्म प्रसिद्ध ।।सा०॥२॥ परभावानुग' तवीरज चेतना रे, तेह वक्रता चाल । करता भोक्तादिक सवि शक्ति मां रे, व्याप्यो उलटो ख्याल ।सा०॥३।। क्षयोपशमिक ऋजुता ने ऊपनें रे, तेहिज शक्ति अनेक । निज स्वभाव अनुगतता अनुसरे रे, आर्जव भाव विवेक ॥सा०।।४।। अपवादे पर वचकतादिका रे, ए माया परिणाम । इत्सरगे निज गुण नी वंचना रे, परभावे विश्राम ॥सा०॥५॥ ते वरजी अपवादै आर्जवी रे, न करे कपट कषाय । तम गुण निज निज गति फोरवे रे, ए उत्सर्ग अमाय ।।सा०॥६॥ सा रोध भ्रमण गतिचार में रे, पर आधीने वृत्ति । चाल थी पातम दुख लहे रे, जिम'नृपनीति विरत्ति ।सा०॥७॥ टें मुनि ऋजुतायै रमे रे, वमे अनादि उपाधि । ता रंगी संगी तत्व ना रे, साधे आत्म समाधि ॥सा०॥८॥ वीर्य का परभावों की और लगना, यह उसकी चाल का टेड़ापन है । रहित राजा जैसे दुखी होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष माया क्षये प्रार्जवनी पूर्णता रे, सवि गुरण ऋजुतावंत' । पूर्व प्रयोगे परसंगी परणो रे, नहीं तसु करतावंत ॥ सा० ॥ ॥ साधक भाव प्रथम थी नीपजे रे, तेहिज थायै सिद्ध । द्रव्यत साधन विघन निवारणारे, नैमित्तिक सुप्रसिद्ध || सा० ॥ १०॥ भावे साधन जे इक चित्त थी रे, भाव साधन निज भाव । भाव सिद्ध सामग्री हेतु ते रे, निस्संगी मुनि भाव ॥ सा० ॥ ११ ॥ हेय त्याग थी ग्रहण स्वधर्म नो रे, करे भोगवे साध्य । स्व स्वभाव रसीया ते अनुभवे रे, निज सुख अव्याबाध ॥ सा० ॥ १२॥ निस्पृह निर्भय निर्मम निर्मला रे, करता निज साम्राज । देवचंद्र आरणाये विचरता रे, नमिये ते मुनिराज ॥ सा० ॥ १३ ॥ सदा सुखी मुनिराज सज्झाय जगत में सदा सुखी मुनिराज । पर विभाव परिणति के त्यागी, जागे श्रात्म समाज || जगत० ॥ निज गुरण अनुभव के उपयोगी, योगी ध्यान जहाज ॥ जगत० ॥ १ ॥ हिंसा मोस प्रदत्त निवारी, नहीं मैथुन के पास । द्रढ्य भाव परिग्रह के त्यागी, लीने तत्व विलास || जगत०|| २ || निर्भय निर्मल चित्र निराकुल, विलगे ध्यान अभ्यास । देहादिक ममता सवि वारी, विचरे सदा उदास | जगत० || ३ || ग्रहे आहार वृत्ति पात्रादिक, संयम साधन काज । देवचंद्र आरणानुयायो, निज सम्पति महाराज || जगत०||४|| १ - सरल व्यक्ति में सभी गुण रहते हैं । परकर्तॄता है, वस्तुतः नहीं है । विघ्नो को दूर कर देते हैं । Jain Educationa International २- पूर्वाभ्यास के कारण ही जीव का ३- द्रव्य कारण कार्य सिद्धि में श्रानेवाले For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १२६ चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मनिवर सज्माय पर गुण से न्यारे रहै, निज गुण के प्राधीन । चक्रवति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।।१।। इह निज इह पर वस्तु की, जिने परीख्या कीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥२।। जिण हुँ निजनिज ज्ञान सूं ग्रहे परिख तत्व लीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥३॥ दस विध धरम धरइ सदा शुद्ध ज्ञान परी कीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनीवर चारित लीन ॥४॥ समता सागर में सदा, झील रहे ज्यु मीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ।।५।। प्राशा न धरै काहू की, न कबहूं पराधीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥६।। तप संयम पावस वसै, देह प्रमाद दुख झीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥७॥ पुद्गल जीब की शक्ति सब जात सप्त भय हीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ।।८।। सप्तम गुणथानक रहै कीयो मोह मसकीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥६।। क्षयकोपशम पयड़ी चढे आतम रस सुधीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष तुर्थ ध्यान ध्यावत समै किये करम सब छीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ।।११।। देवचंद्र बावै सदा, यह मुनिवर गुनबीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥१२।। मोह परिवार सज्झाय वाणी ए जिनवर तणी साची करी सदीव । सुज्ञानी जीव माया ममता वसि भम, भव मांहि अनंता जीव ।।सु०॥१॥ तजो तजो रे महीपति मोह में, साथें जसु परिवार।।सु०॥प्रां०।। मोह महीपति आकरौ, मन मंत्री बुद्धि निधान ।।सु०।। मन नारी प्यारी खरी, पर'वृत्ति प्रारंभ निदान ।।सु०॥त०॥२॥ नगर' अविद्या नाम छ, गढ' विषम अभंग अज्ञान ।सु०॥ दरवाजा चौगति तणां, तृष्णा खाँहि परधान ।।सु०॥त० ।।३।। यौवन वर तरु वर जिहां, नारि सुख भोग विलांस ।।सु०॥ क्रीडा गिरज गजावताँ, दोय लोक विरुद्ध प्राचार ।।सु०॥त०॥४॥ मोह नृपति वलि पातमा, श्रावास कुवासन गेह ।।सु०॥ चोरासी लख जोनि में, भमतां धरीया बहु देह ।।सु०॥त०॥५। १-मन मोहराजा का मंत्री है, और परभाव में रमणता मन मन्त्री की स्त्री है। २-अविद्या नगरी है ३-प्रज्ञानरूपी किला है। ४-चारगतिरूप, किले के चार दरवाजे हैं। ५-तृष्णारूप खाई है ६-कुवासनामों से भरपूर प्रात्मा उसका घर है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड । १३१ मूरख' संगति परषदा, मतिभ्रंशः सिंहासन सार ।।सु०।। अविरति छत्र विराजतो, रति अरति चामर सुखकार।सु०।त०।६। आयुध हिंसा हाथ में, नास्तिक मत मित्र सुप्रीत ।।सु०।। राग द्वेष सूत सूरमा, विसतारे जेह अतीत ॥सु०॥त०।।७।। च्यार कषाय ते पोतरा, वलि काम कपट लघु पुत्र ।।सु०।। प्राश्या विकथा पुत्रिका, मिथ्या मंत्रि सुपबित्र ।।सु०॥त०॥८॥ अशुभ योग सामंत छ, सेनानी दुष्ट प्रमाद ।।सु०।। वेद तीन अधिकारिया, सुभट महा उनमाद ॥सु०॥त०।६।। नगर सेठ चित चपलता, प्रोहित' पाखंडी वास ।।सु०।। कोटवाल चित चंडता, पालस मित्र अंग खवास ॥सु०॥१०॥ हेरु' कुश्रत धडवी, आरति अति रुद्र कुध्यान ॥सु०॥ चोर चपलते काठिया, लूटे सहु नो धन ग्यान ।।सु०॥त ॥११॥ हर्ष शोक गज गाजता, इंद्रिय ना विषय तुरंग ।।सु०।। पारण मिथ्या उपदेशनी, अविरति जग मांहि अभंग।।सु०।त०॥१२ चौरासी लख देश में, अड करम उदें में साथ ॥सु०॥ बंध हेत नृपनि कथा, सहु जीव कीया निज हाथ ।।सु०॥त०।१३।। भव भय भमर भम्यो बहु, इण सत्रु से तूं दीन ।सु०॥ देवचंद्र तजि मोह नें,हुइ निज आत्म रस लीन ।।सु०॥त०।।१४।। १-मुर्ख संगतिरूप सभा.है। २-मतिभ्रष्टतारूप सिंहासन हैं। ३-असंयम-छम है ४-रूचि अरूवि चामर है। ५-पुरोहित। ६-क्रूरता । . ७-उठाइगिरे-चोर । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्री विवेक परिवार सज्झाय (ढाल-चतुर विहारी रे प्रातमा, एहनी देशी) शुद्ध विवेक महिपति से वीये, लहीयें जिम्ह भव पार ।।।। मोह वसे दुख सहतां वनें, एह छोडावन हार ।।सु०॥१॥ प्रवचन नगर सु चारित घर भला इंद्री दम वर वाग। क्रीडा मंदिर शुभ परिणाम छ, तरु छाया धर्म राग ।।सु०॥२॥ जिनवर वचन सुनिर्मल जल भर्यो, वन रक्षक उदेस ।।सु०।। ध्यान धरम च्यारे नयरी तणी, दरवाजा सुल हेस ।।सु०।।३।। निर्वृत्ति सुबुद्धि नारी चेतन तरणी, अंगज तसु सुविवेक ॥सु०।। स्त्री तसु तत्त्व रूचि नामा जाणीये, संजम स्त्री वली एक ।।स।४।। भव वैराग संवेग निर्वेद ए तीने पुत्र उछाह ॥सु०।। उपसर्ग अने परिसह चढत छ, निश्चय नाम सन्नाह ।।सु०॥५।। समकित मंत्री सम दम सूर छै, ज्ञान जिहां कोटवाल ।।सु०॥ सामायक आदिक प्रावश्यक, वर सामंत विसाल ।सु०।।६।। शुद्ध धरम प्रोहित नय आगलो, पांच दान गजराज ।सु०॥ सहस अढारइ रह सीलांगना, तप विध तरल सुवाज सु०॥७॥ १-विवेकरूपी राजा २-इन्द्रिय दमनरूप बगीचा ३-धर्मध्यान के ४ प्रकार नगरी के चार दरवाजे हैं। ४-निवृत्ति और सुबुद्धि नामक पत्नियां हैं। ५-उपसर्ग और परिषहों को जीतते हुए, निश्चयनय कवच है ६-सामायिकादि छ आवश्यक मन्त्रीमण्डल है। ७-शुद्ध धर्म रूपी पुरोहित है। ८-सुपात्रादि पांच दान गजराज है। ८-घोड़े Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १३३ शुद्ध परगति भट विकट पराक्रमी सेनानी उच्छाह' ।।सु०॥ प्रायश्चित्त पागीवर चतुर छ, मित्र विचार अथाह ।।सु०।।८।। क्षमा नम्रता धृतिवर भावना, मार्गणता सु प्रसत्ति ।।सु०।। पुत्रीपिण रिण चालै मोह ना, दल भल टाल झत्ति ।।सु०।।६।। प्रासति' मत दंड नायक नीत नौ, सत्य वचन धन धार ।।सु०॥ गुरु उपदेस नगारा वाजता, शूकल ध्यान हथीयार ।।स०।।१०।। नय गम भंग प्रमाण निक्षेप थी, जे जीपे अरि वृद ।।।।। ध्यान सकति वधतां गुरण आदरै, काटै भव ना फंद ।।स०॥११।। समति विवेक बिनाए पातमा, भम्यो अनंतो काल ।।स०॥ . जिन धरम ल्यो हिव निरमलौ, सरणागत रख पाल ।।सू०।।१२।। क्षायक समकित वीरज सक तथी, क्षपक श्रेरिण रिण थान।।सु०।। पंच अपूरव करण प्रहार थी, मरद्या अपरि बल मान।।सु०।१३।। अश्व समी वलि कीधी करण सुंडाय स्थिति प्रा गाल ।।सु०।। एक श्वसू पिध्यान उद्योत थी, नांख्यो मोह उद्दाल ।।सु०।।१४।। ममता मोह गया समता मयी, प्रातम नृप सुविवेक ।।सु०॥ जीत नगारो वाग्यो ज्ञान नो, लही अविचल कर टेक ।।सु०।।१५।। देवचंद्र सुविवेक सहाय थी, भागा अरिदल वाह ।।सु०।। चेतन आनंद अतिसय वाधीयो, मंगल माल प्रवाह ।।स्०।।१६॥ ५-उत्साह २-क्षमा, नम्रता, धृति, भावना, विचारणा एवं शुभरागादि पुत्रियां है। {-धर्मश्रद्धा न्यायाधीश है। ४--युद्ध का मैदान ५-स्थितिघात, स्थितिबंध, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रम ये पांच अपूर्व बातें-शस्त्रप्रहारतुल्य हैं, जिनसे अपरिमित मोह लि नाश होता है। ६-शत्रु सेना-घोड़े आदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] इति श्री विवेक परिवार लेखक पाठकयो श्री सभाय संपूर्ण ।। भूर्यात् ॥ सं. १८१७ ना वर्षे द्वितीय श्रावरण बदि ११ शुक्रे ॥ भरणशाली श्री पानाचंद्र कपूरचंद पठनार्थ ।। Jain Educationa International आगम अमृत || प्रा० ॥३॥ 1 आगम अमृत पीजिये, बहु श्रुत श्री गुरु पासें रे । श्रोता गुरण में घरी, विनय करी उल्लासे रे ॥०॥ ॥ शुद्ध भाषक समताधारी, पंचम कालें थोड़ा रे । दीसे बहु आडंबरी, जेहवा उद्धत घोड़ा रे ||०||२|| बस्तु धरम नी देशना, जे दीइ हित राखी रे | कीजें तेहनी सेवना, उपगारी गुण दाखी रे आतम तत्त्व प्रकाश में, जे भवियरण नित भीले रे अनुभव रस प्रास्वाद थी, थुरणीइ तेह नय निक्षेप प्रमाण थी, स्यादनु' बंध तत्वा' तत्व गवेषणा, लहीइ परम तत्वारथ श्रद्धान जे, समकित कहे भासन रमण पर लही, भेद रहित मति स्वस्तिक पूजन भावना, करतां भक्ति पुण्य महोदय पामीइं, केवल ऋद्धि विशाला रे || मा०||७|| पाया रे || ० || ६ || रसाला रे । १- स्यादवाद शैलीमयो श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष रसीले रे । श्राश्र सुरीते रे । प्रतीते रे ।। प्रा०॥५॥ जिनराया रे । -तत्त्व-प्रतस्व का विबेक For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १३५ अाठ रुचि सज्माय सुरपति नत देव अमित गुरिण, श्री भाव प्रकाशक दिन मणी । शासनपति वीर जिनेश ना, गणधर वर सोहम' शुचि मना ।।१।। शुचिमना सोहम सीस जंबू, भरणी सीख कही भली । सुणो पालम तत्व रोचक, करी निज मति निरमली ।। ए आठ कारण मोक्ष साधक, परम संवर पद तणो । करो आदर अतिहि उद्यम, यतन साधन प्रति घणो ॥ अभिनवा गुण नी वृद्धि थास्यै, दोष क्षय जास्ये सर्वे । ते माटे सेवो सूत्र आणा, सुख लहो जिम भव भवे ॥२॥ __ (अनुभव रंगीले प्रातमा ए ढाल) पहिलं कारण सेविये,. भाखे वीर जिणंद. रे । नित नित्त नवु नवु सांभलो, शुद्ध धरम सुख कंद रे ।। थास्ये, परम पाणंद रे, ऊगे ज्ञान दिणंद रे . झलके अनुभव चंद रे ॥१॥ प्राणा रंगी रे प्रातमा, तजी तुं. सर्व प्रमाद रे । करि पागम पास्वाद रे, वसि निज तत्त्व प्रासाद रे ।।प्रांकुणी।। गीतारथ श्रुतधर मिली, प्राणी अति बहुमान रे । नय निक्षेप प्रमाण थी, अभ्यासो श्रुत ज्ञान रे ॥ १-भगवान् के गणधर सुधर्मा स्वामीज़ी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदू देवच पच पोय भजि तुं जिनवर आण रे, पामे सुख निरवाण रे, परम महोदय ठाण रे ॥मारणा०॥ २॥ बीजे थानक श्रुत तणो, लाधो तत्त्व विचार रे । . स्व पर समय निर्धार थी, चउ अनुयोग प्रकार रे ।। ज्ञेय परणे सवि भाव रे, रहज्यो आत्म स्वभाव रे, तजि पर समय विभाव रे ॥ आणा० ॥ ३। प्रागम अर्थ नी धारणा, थिर राखो भवि जीव रे। ज्ञान ते आत्तम धर्म छे, मोह तिमिर हर दीव' रे ।। श्रत अमृत रस पीव रे, साधन एह अतीव रे, . संवर ठाण सदीव रे ॥ आणा० ॥ ४॥ पुरव संचित कर्म नी, निर्जरा थाये जेम रे । . तिम तप संयम सेवजो, साध्य धर्म करि प्रेम रे ।। चितवजो मति एम रे, कर्म रहे हवे केम रे। मुझ पद निर्मल क्षेम रे ॥ आणा० ।। पंचक थानक आश्रयो, धर्म रुचि जीव जेह रे। तेहनी करवी रक्षणा, वाधइ धर्म सनेह रे ।। जिम करसण' जल तेह रे, घरमावष्टंभ देह रे, तो लहस्यो निज ध्र व गेह रे ॥मारणा० ।।६। १-दीपक २-जैसे किसान जल को पाली बांधकर रोकता है, वैसे धर्म रुचि पार जीवों को धर्म का प्रवलंबन देकर स्थिर करना। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [१३७ छुट्टे चौविहः संघने, सीखावो आचार रे । क्रिया करंता रे गुण वधे, सधे शमादि प्रकार रे ।। नासे दोष विकार रे, थाये ध्यान विस्तार रे, ... प्रालय शुद्ध विहार रे ॥ आणा० ॥ ७ ॥ गुणवंत रोगी ग्लान नो, वेयावच्च करो रंग रे । अनुकंपा सवि दीन नी, उत्तम भक्ति प्रसंग रे ।। वाधे विनय तरग रे, शासन राग उमंग रे । सहज सुभाव उत्तंग रे ।। आणा० ॥ ५ ॥ मार्मिक जन सर्व में, कहवी थाय कसाय रे । - तजि सवि दोष अनुष्ठान नो, क्षमा कर्यां सम थाय रे ।। इम जपे जिनराय रे, समता शिव सुख दाय रे। सम निधि मुनि गुण गाय रे, सुरपति सेवे तसुपाय रोप्राणाoILI तीजे अंग रे उपदिश्यो, ए उपदेश उदार रे । जिण आणा ए जे वत्र्तस्ये, ते गुणनिधि निरधार रे ।। ज्ञान सुधा जल धार ते, वरसे श्री गणधार रे। . . . . . . पामे तसु सुख सार रे ॥ प्राणा।। १।। - रयण सिंहासण वेसी ने, दाखे जगत दयाल रे । - देवचंद्र माणा रुचि, होइज्यो बाल गोपाल रे।। मातम तत्त्व संभाल रे, करज्यो जिन पति बाल रे। थास्यो परम निहाल. रे ॥माणा० ॥ ११ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] समकित सज्झाय समकित नवि लह्यो रे, ए तो रुल्यो चतुर्गति मांहि । त्रस थावर की करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो ।। तीन काल सामाइक करतां, शुद्ध उपयोग न साध्यो || स०|| १ || झूठ बोलवा को व्रत लीनो, चोरी को परण त्यागी । व्यवहारादिक निपुरण भयो पण, अंतरदृष्टि न जागी || स० || २ || उर्ध्व भुजा कर उँधो लटके, भस्म लगाइ धूम घट के । जटा जूट शिर मुंडे जुठो विरण श्रद्धा भव भटके ||०||३|| निज पर नारी त्याग ज करके, ब्रह्मचर्य व्रत लीधो' । स्वर्गादिक याको फल पाइ, निज कारज नवि सीधो || स०||४|| 1 बाह्य क्रिया सब त्याग परिग्रह, द्रव्य लिंग धर लीनो । देवचंद्र कहे या विधे तो हम बहुत वार कर लीनो || उपदेश--पद (राग-धन्याश्री) मेरे जीव क्या' मन में तू चिते । इक प्रावत इक जात निरंतर इस संसार अनंते ॥ ० ॥ १ ॥ १ली. २-सीनो श्री देवचन्द्र पद्म पीयू करम कठोर करे जिउ भारी पर त्रियधन निरखते । 1 जनम मरख दुख देखइ बहूले, चमइ, मांहि भमंते ॥ | ० ||२|| Jain Educationa International ३- जीव ॐ-परस्त्री For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड काम भोग क्रीड़ा मन करता जे बांधई हरखते । वेर वेर ते हिज भोगवतां, क्रोध कपट माया मद भूले, भूरि मिथ्यात कहे देवचंद्र सदा सुख दाई, जिन धर्म एक उपदेश - पद ( राग - धन्या श्री ) नवि छूटे विलव तै ॥ मे० ||३|| मेरे पीउ' क्युं न प्राप विचारो । कैसे हो कैसे गुन धारक, क्या तुम्ह लागत प्यारो || मे० ॥ १ ॥ . तजि कुसंग कुलटा ममता को, मानो वैरण हमारो | जो कछु झूठ कहूं इह कुनारि जगत निरमल रूप अनूप भमंते । एकांते ॥ मे ||४|| इनमें तो, की चेरी, बाधित, प्रातम गुण संभारो || मे० ||३|| मो कुं सूंस तुहारो || २ || १|| याको संग निवारो । मेटि प्रज्ञान क्रोध दशम गुरण, द्वादश गुण भी टारो । I अक्षय अबाध अनंत अनाश्रित, राजविमल पद सारो || मे० ॥४॥ १- प्रीतम जीव २-वचन ४ -१२वां गुणस्थान भी टालकर Jain Educationa International [ १३६ द्र पद प्रतम भाव रमो हो चेतन ! प्रतम भाव रमो । परभावे रमत्ता हो चेतन ! काल अनंत गमो ॥ हो चेतन ॥ १ ॥ ३- प्रज्ञान क्रोधादि को दशवे गुणस्थान में टालकर । ५ - राजविमल श्रीमद् का ही दीक्षा- नाम है । For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] रागादिक सुं मली ने चेतन ! पुद्गल संग भमो । चउगति मांहे गमन करता, निज प्रातमने दमो || हो चेतन ॥ २ ॥ ज्ञानादिक गुण रंग धरीने, कर्म को संग वमो | प्रतम अनुभव ध्यान धरता, शिवरमरणी सुं रमो || हो चेतन || ३॥ परमातम नुं ध्यान करंतां, भवस्थितिमां न भमो । देवचंद्र परमातम साहिब, स्वामी करीने नमो | हो चेतन ० ||४॥ पंचेन्द्रिय विषय त्याग--पद चेतन ! छोड दे, विषयन को परसंग, X गिरोह' फिरत विलोल फरस' वश, बंधोइ फिरत मातंग | | ० | १॥ कंठ छैदायो मीन आपनो, रसना के परसंग | १ - गिलारी. ६- मछली ६ नेत्र विषय कर दीप शिखा पै, जल जल मरत पतंग || चे० ॥२॥ G षट्पद' जल मांहे फस मूरख, खोयो अपनो अंग ! वीणा शब्द सुन श्रवण ततखिन, मोही मर्यो रे कुरंग' ||०||३|| - एक एक इंद्रिय चलत बहु दुःख, पायो है सरभंग । पाँचों इन्द्रिय चलत महादुःख, भाषत + देवचंद चंग ! | चे० ||४|| पाठान्तर + इम भाषत देवचंद Jain Educationa International २- चंचल श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष ७- जिह्वा ३- स्पर्श के लिये -भौंरा ४- बंधा हुआ ह-हरि For Personal and Private Use Only ५ - हाथी Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड हीयाली ( ढाल - १ राय कुर्यारि वर वाई भलो भर तार ए देशी) तात । इक नारि रूपें रूवड़ी, जनमी ज साते मलपती मानव भूलरे, सगलां चित्त सुहात ॥ १ ॥ कह्यो रे चतुर नर एह हीयाली सार, जो तुम्ह सुगुरण विचारप्रकरणी । बोले न भरता संग | भरतार पासे नित रहे, प्रवर पुरुष प्रावी मिल्यां, वात करे मन रंग || ० || २ || दोइ नेत्र पति साम्हा सदा, देखे न पति नो अंग । वातालू जीहा' विना, मोटा कांन अभंग | | ० ||३|| विचि २ उज्जल नर मनोहर, भरि साख द्ये हुंकार । पर खंधइ न चढइ कदे, चरण विना चले सार | | ० ||४॥ इक नारि सुँ जस वैर छे, वे वै न शीतल ताप । देवचंद्र भाषे तेहनो, मोटां सुँ मेलाप || क० ||५|| झूठ त्याग सज्झाय मोह वशे श्रवरणे सुण्या रे, बोल्या दुःख नो धाम । ध्वज' कोलक इण संगथी रे, इरण भव साधे काम || चतुर० नरः । परिहर वचन अलीक, 'ए तो दुःख दायक तहकीक ॥ च० परि०॥१॥ १- गूड़ार्थक-काव्य ४- नामविशेष Jain Educationa International २-सात पिता से जन्म हुभ्रा । ५-झल [ १४१ For Personal and Private Use Only ३- जीभ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] झूठ' कथकनो मुख कह्यो रे, नगर नी छार समान । तिरिय नरय गति में भमे रे, पामे दुःख विरण ज्ञान || चतुर० ||२|| श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष शीतल चंदन चंद्रथी रे, मीठी वाणी सुहाय । देव दाह वली पालवे रे, मधुर वचन जग प्रिय छे रे, मधुर सत्य भाषी तरणे रे, वचन दाह न खमाय || चतुर० ||३| कटुक सत्य परण छोड । दरिसरण थी सुख क्रोड || चतुर०||४|| शुचि वादि नर जे अछे रे, सफल जन्म तसु धार । झूठा बोला मानवी रे, व्रत श्रुत संजम भार नो रे, सत्य वचन छे कोष । देव दानव न करी सके रे, ते उपर तिल दोष || चतुर० ||६|| किम उतरे भव पार ।। चतुर०॥५॥ आनंद कारी ए चंद्रज्यु रे, पाय नमे जसु देव । रूप जाति धन तापस योगी मूंडीया रे, नागा चीवर धार । कूड़ वचन कहेता थका रे, ते छे पातक कार || चतुर०||८|| तोय न बोले अलीक । बाधे धन परिवार जो रे, तो ही न ए सम ठीक ॥ चतुर ||६|| ज्ञान हीन मुख रोग । अन्य पुण्य सहु तोलतां रे, बहिरो शठ ने बोबड़ो रे, योनि वली खर श्वाननी रे, पामे कूड़ने योग || चतुर ||१०| सातादिक गुण गण तरणा रे, कूड़ करे छे हारण । सुहसंग न कीजिए रे, झूठ वचन दुःख खारण || चतुर० ।। ११ ।। ु २- स्वप्न में भी हीन ज्यु रे, तेहने एहीज टेव || चतुर० ||७|| १- झूठ बोलने वाले के मुख को नगर खालकी उपमा दी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड वंदनीक ऋय जगत में रे, वधे द्रव्य परिवार । सत्य वचन थी सुख लहे रे, शुचि वादी प्रणगार चितुर०॥१२॥ पर कारण वच झूठ का रे, बोल्यां दे दुख लक्ष । ग्रस्त्य वचन थी दुःख लह्यो रे, वसु राजा परतक्ष ॥चतुर०।।१३।। मानव दानव सुरपति रे, ग्रह खेचर जन पाल । वंदे जिन ते पण कहे रे, सत्य वचन व्रत पाल ।।चतुर०।१४।। सत्य वचन थी सुख लहे रे, सत्य वचन सुख खाण । सत्य वचन कहो प्राणीया रे, देवचंद्रनी वाण ॥चतुर०।।१५।। चोरी त्याग सज्झाय पर धन आमिष' सारिखो रे, दुःख दे पन्नग जेम । तसु विश्वास न को करे रे, तो प्रादरिये केम ॥चतुर नर।। परिहर चोरी संग, चोरी थी दुख ऊपजे रे। वलि होय तन नो भंग, चतुरनर परि।।१।। भ्रात पिता सुत मित्र थी रे, तूटे तेह नो नेह । मानव थी डरतो रहे रे, मृग जेम भय नो गेह ।।चतुर॥२॥ क्षण एक नींद करे नहीं रे, मरण थकी भय भ्रत । जो को मुझ ने जाणशे रे, तो करशे मुझ अंत चतुर०॥३॥ विद्या गुरुवाइ गमे रे, निज रक्षरण नवि थाय । सज्जन पण निंदा लहे रे, तस्कर संग पसाय ।।चतुर०।।४।। १-मांस २-सर्प ३-गौरव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] धीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष घात करे तृण नी परे, रे चोर भणी सह लोक । पंडित पण मूरख हुवे से, मुनि पण पामे शोक ।।चतुर०॥शा घोर नरक दुख दे सही रे, चोरी केरी बुद्धि । एहनी संगति ते तजे रे, जे चाहे निज शुद्धि ॥चतुर०।१६।। गिरि गुफा रण में पड्या रे, पर धन लीजे नांहि । तृण सम पण पर वस्तुनी रे, मत मन धरने चाहि।।ततु०।७।। शिव सुखनी जो चाह छे रे, राखण चाहे धर्म । सुख चाहे इण पर भवे रे, तो तज एह कुकर्म ॥चतुर० ।।८।। विरति' मूल यम साख छे रे संयम दल सम फूल । पंडित जन पंखी अछे रे, फल ते ज्ञान अमूल ।।चतु०।।६।। धर्म वृक्ष एहवो दहे रे, चोरी मत मन आणि ।। पर उपगारी पादरो रे, देवचंद्र नी वाणि ।।चतुर०॥१०॥ ब्रह्मचर्य सज्झाय (बंधव गज थी उतरो-ए देशी) कूड़ कपट घर ए त्रिया, तिन को संग निवार रे भाई । मैथुन दुख दायक तजी, आतम गुण संभार रे भाई ॥१॥ नारी संग तजो तुमे, नारी दुःखनी खाण रे भाई । नारी संगे दुःख हुवे, ए श्री जिनवर वारण रे भाई ।।नारी।।२।। १-धर्मरुपी वृक्ष का मूल-विरति, अहिंसादि व्रत-शाखा है, संयम-फूल पंडितजन-पक्षी, ज्ञान-फल है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड १४५ पू' (य)त बहे जसु देह थी, काचो व्रण वहे जेम रे भाई । तिम स्त्री योनि अशुचि धरे, तिरण पर राचो केम रे भाई।।नारी०॥३॥ मूत्र गेह दुरगंध छे, नारी भग' दुःख स्वागी रे भाई । मूरख रंग धरे तिहां, नवि राचे इसु नाणी रे भाई नारी०॥४॥ श्वान रुधिर जिम निज पीये, सुख माने मन माह रे भाई। कामी तिम स्त्री संग थी, चित्त धरे उत्साह रे भाई ।।नारी०।।५।। नारी योनि अशुचि अछे, नारी दुर्गति मार्ग रे भाई । अादर न दे को वृद्ध ने, तो तरुण उपर श्यो राग रे भाई।।नारो०।।६।। सह थी जोरावर अछे, नारी अबला नाम रे भाई । योनि द्वार दुःख द्वार छे, पंडित तजजो वाम रे भाई ।।नारी०।। भोगवतां तनु नारी नां, लागे छे सुकुमाल रे भाई । सूली थी करड़ी अछे, उदयागत ए काल रे भाई ।।नारी०।।७।। मैथुन सेवंतां थकां, जीव मरे लख कोडी रे भाई । महानिशीथे दाखीया, योनि लिंग ने जोडी रे भाई ।।नारी०।६।। दुरगंध मलधर भय करू, मंडूकी प्राकार रे भाई। चरम रंध्र नारी तणे, राग किसो ? विण सार रे भाई ।।नारी०।।१०। सर्व अशुचि मय निंद्य ए, दुरगंध नारी एह रे भाई । राचे मूरख्ख...मानवी, पंडित विरमे जेह रे भाई ।।नारी०।११।। १-दुर्गन्ध २-योनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] मृतक गंध योनि छे, कृमि कुल पूरण एह रे भाई । क्षर मूत्र भरती रहे, तिरण उपर श्यो नेह रे भाई || नारी० ||१२|| पंडित स्त्री से संग रे भाई । देवचंद्र पद रंग रे भाई || नारी० ।। १३।। मनोनिग्रह सज्झाय एह स्वरुप जारणी तजे, मदन मोह जीपी लहे, श्रीमद देवचन्द्र पद्य पीयूष कुशल लाभ मन रोध थी रे लाल, प्रतम तत्व सन्नाह रे || सुगुण नर || आपा पर वंचे जिके रे लाल, निज मन थिरता साह रे सु०॥१॥ मन गज वश कर ज्ञान सुं रे लाल, मन वश विण शिव नांह रे || सु०॥ ध्यान सिद्ध मन शुद्ध थी रे लाल, भांजे भव दुख दाह रे || सु० |मन० | २ || तीन भुवन तसु दास छे रे लाल, जसु वशी मन मातंग रे ।। ० ।। मुक्ति गेह ते जन लहे रे लाल, जसु मन छे निःसंग रे || सु० || मन० || ३ || जिम मन नी शुद्धि हूवे रे लाल, तिम तिम वाधे विवेक रे ।। सु०॥ शिव चाहे मन वश विना रे लाल, मृग तृष्णा सम भेक रे || सु | मन० |४| ||०|| सु०॥ मन | ५ || राच रे ज्ञान ध्यान तप जप सहु रे लाल, मन थिर कीधां साच रे जग दुःख दायक मन अछे रे लाल, विषय ग्राम में ज्ञान पराक्रम फोरवी रे लाल, वश करी मन गज नव वन मन कपि जिण दम्यो रे लाल, तसु सिद्धा सवि काज रे| सु० | मन० । ६ । राज रे || सु० || Jain Educationa International १ - दुर्गन्धयुक्त २-कीड़ों से प्राकुल ३- काम और मोह को जीतकर । भावों का लाभ ५- मेंढ़क For Personal and Private Use Only ।। ४- शुभ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण [१७ मन गज वश न करी सके रे लाल, तसु ध्यानादिक खेह' रे ।।सु०॥ जे न सधे श्रुत तप थकी रे लाल, मन थिर साधे तेह रे सुगमन.१७॥ अनंत कर्म चउ भेद ना रे लाल, मन थिर कीधां जाय रे ।।सु०।। जसु मन थिर ते शिव लहे रे लाल, दंडो शाने काय रे ॥सुामना।। श्रुत तप यम मन वश विना रे लाल, तुस खंडन सम जाण र ।।सु०॥ . मन वश विणु शिव नवि लहेरे लाल मन वशे शिव सुख ठाण ।सु०।मन०।६ मन वशे निर्गुण गुण लहे रेलाल, जिण विण सहु गुण जाय रे।।सु.।। तीन भुवन जीत्या मने रे लाल, मन जयकार को थाय रे ।।सु०।मन॥१०॥ श्रुतधर पण मन वश विना रे लाल, नवि जाणे निज रूप रे ।।सु०॥ शांत विषय वश मनकरी रे लाल, मुनि थाये शिव भूप रोसु०।मन०।११॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल में रे लाल, द्वीप उदधि गिरि सीस रे ।।सु०॥ तीन लोक में नवि भमे रे लाल, देवचंद्र गत रीस रे ॥ सु मन०।।१२।। अष्ट प्रवचन माता सज्माय ॥ दोहा ॥ सुकृत कल्पतरु श्रेणिनी, वर उत्तरकुरु* भौमि । अध्यातम रस ससिकला, श्री जिन वाणी नौमि ॥१॥ १-निरर्थक २-मन को वश किये बिना, ज्ञान, तप, अहिंसादि का पालन आदि सब तुसों को खांडने के समान है। ३-समुद्र ४-पर्वत-शिखर पर ५-उत्तर कुरुक्षेत्र ६-चन्द्रकला ७-नमस्कार करता हूँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] बीमदू देवचन्द्र पद्य पीयूष - - - - - दीपचंद पाठक प्रवर, पय' वंदी अव दात' । सार श्रमण गुरण भावना, गाईश प्रवचन मात ।।२।। जननी पुत्र सुभंकरी,' तिम ए पवयण माय । चारित्र गुण गण वर्द्धनी, निरमल शिव सुखदाय ।।३।। भाव अयोगी करण रुचि, मुनिवर गुप्ति धरंत । जो गुप्ते न रही सकें, तो समिते विचरंत ।।४।। गुप्ति एक संवर मयी, उत्सर्गे परिणाम । संवर निर्जरा समितिथी, अपवादे गुण धाम ।।५।। द्रव्ये द्रव्यत: चरणता, भावे भाव चरित्त । भाव दृष्टि द्रव्यतः क्रिया, करतां शिव संपत्त ।।६।। आतम गुण प्राग्भाव' थी, जे साधक परिणाम । समिति गुप्ति से जिन कहें, साध्य सिद्धि शिवठाम।।७।। निश्चय करण रुचि थई, समिति गुप्तिधर साध । परम अहिंसक भाव थी, पाराधे निरुपाधि ।।८।। परम महोदय साधवा, जेह थया उजमाल । श्रमरण भिक्षु माहरण यती, गावं तसु गुरण माल ।।६।। १--चरण २-उज्ज्वल-पवित्र ३-भला करने वाली ४-प्रवचनमाता५ समिति और तीन गुप्ति । जैसे माता पुत्र का हित करने वाली होती है वैसे ही यह प्रवचन माता चारित्र रुपी पुत्र-रत्न की जननी, हितकारिणी, गुणों को बढ़ाने वाली और मोक्ष देने वाली है। ५-एकांत से ६-निश्चयमार्ग ७-व्यावहार में -आत्मस्वरुप की और लक्ष्य रखते हुए समिति गुप्ति आदि का पालन करने से मोक्ष प्राप्त होता है। -प्रगट होना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड प्रथम ईर्या समिति सज्माय ( ढाल - प्रथम गोवाल तो भवें जी) प्रथम अहिंसक व्रत तरणी जी, उत्तम भावना एह । संवर काररण उपदिसी जी, समता रस गुरण गेह || मुनीसर ईय समिति संभार आश्रव' कर तन योग' नी जी । दुष्ट चपलता वार मुनीसर ! ईर्या ममिति संभार ||ए प्रकरणी ।।१।। मुनि जिन काय गुप्ति उत्सर्ग नो जी, प्रथम समिति अपवाद । ईर्या ते जे चालवो जी, धरि आगम विधिवाद ॥ मु०॥२॥ ज्ञान ध्यान सज्झाय में जी, थिर बैठा मुनिराज । शाने चपल पणो करें जी, अनुभव रस सुखराज || मु०|३|| जी, पांमी कारण चार । के प्रहार निहार ॥ मु० ॥४॥ उठे वस ही थकी वंदन गामंतरें जी, परम चरण संवर धरु जी, सर्व जाण जिन दिठ्ठ | सुचि समता रुचि उपजे जी, तिरण मुनि ने ए इट्ठ * । । मु० । ५॥ राग वर्ध थिर भाव थी जी, ज्ञान विना परमाद । वीतरागता ईहता जी, विचरे मुनि साल्हाद ||०||६|| ६ १४६ १- पुण्य-पाप का बंध कराने वाला २- काय योग ३ - अपने स्थान से बाहर जाने के मुनि के लिये ४ कारण हैं-१ जिनवंदन २ विहार ३ गोचरी पानी ४ शौचादि । ४- जि. नेश्वर देव का दर्शन करने से ५-प्रियकारी ६ चाहते हुए For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] पोषक आहार | ए शरीर भव मूल छें जी, तसु जाव प्रयोगी नवि हुवें जी, तां अनादि आहार ||०||७|| कवल आहारें नीहार छें जी, एह अंग' व्यवहार । धन्य प्रतनु परमातमा जी, जिहां निश्चलता सार ||०|८| पर परिणति कृत चपलता जी, किम छूट से एह । ऐम विचारी कारणें जी, करें गोचरी तेह ॥ मु०॥६॥ क्षमा दयालु पालुप्रा जी, निस्पृही तन नीराग । निर्विषयी गज गति परें जी, विचरें मुनि महाभाग ।। मु०।१०। परमानंद रस अनुभवे जी, निज गुण रमता धीर । 'देवचंद' मुनि' वदतां जी, लहीये भव जल तीर ॥ मु० | ११ || श्रीमद देवचन्द्र पद्य पीयूष मौन धारी मुनि नवि वदें, आचरण ज्ञान नें ध्यान नों, साधु जी समिति बोजी धरो, वचन निर्दोष परकास रे । गुप्ति उत्सर्गं नो समिति ते, मार्ग अपवाद सुविलास रे ॥ सा० ॥ १ ॥ भावना बीय' महाव्रत तरणी, जिन भरणी सत्यता मूल रे । भावहिं सकता वधें, सर्व संवर अनुकूल रे || सा० ॥२॥ गेह रे । वचन जे प्रश्रव साधक उपदिसें तेह रे ॥ सा०||३|| १- शरीर की रीति द्वितीय भाषा समिति सज्झाय ( भावना मालती चुसीइं, ए देशो ) Jain Educationa International २- दूसरा ३- जिनेश्वरों ने कहा है For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड उदित पर्याप्ति जे वचन नी, ते करी श्रु त अनुसार रे । बोध प्राग्भाव सिज्झाय थी, वली करें जगत उपगार रे ॥सा०॥४॥ साधु निज वीर्य थी पर तणो, नवि करें ग्रहण ने त्याग रे । ते भणी वचन गुप्ति रहें, एह उत्सर्ग मुनि मार्ग रे ॥सा०॥५॥ योग' जे आश्रव पद हतो, ते करयो निर्जरा रूप रे। लोह थी कंचन मुनि करें, साधता साध्य चिद्रूप रे सा०।६।। आत्महित परहित कारणे, आदरें पंच' सिज्झाय रे । तेह भणी असन वसनादिका, आश्रये सर्व अपवाय रे ।।सा०॥७॥ जिन गुण स्तवन निज तत्व नी, जीईवा करे अविरोध रे ।. देशना भव्य प्रति बोधवा, वायणा करण निज. बोध रे।।सा०॥७। नय गम भंग निक्षेप थी, सहित स्याद्वाद युत वाण रे । सोलह दस चार गुण सुं मिली, कहै अनुयोग सुपहाण रे।।सा०।६। १-जैसे पारसमरिण के संग से लोहा स्वर्ण बन जाता है, वैसे मोक्ष की साधना करते हुए मुनियों ने प्राथवरुप योगों (कर्मबंध के हेतु रूप) को भी निर्जरा का कारण बना लिया है। २-पांच प्रकार की स्वाध्याय-१ वाचना २ पच्छा ३ परावर्तना ४ अनुप्रेक्षा ५ धर्मकथा ३-प्रात्मस्वरुप को ४-देखने के लिये ५-चांचन ६-तीनलिंग+तीन काल । तीन वचन (एक द्वि और बहुवचन)+दो प्रमाण (प्रत्यक्ष और परोक्ष) + स्तुतिमय । निन्दात्मक + स्तुति-निन्दात्मक + निन्दास्तुतियुक्त+एवं अध्यात्मम वचन-१६ गुण । ७-दस गुण-१ जनपद सत्य २ सम्मत सत्य ३ स्थापना सत्य ४ नाम सत्य ५ रूप सत्य ६ प्रतीतिसत्य ७ व्यवहार सत्य ८ भावसत्य : योगसत्य १० उपमासत्य । -चार गुग्ग-आक्षेपणी, विक्षेपणी, उत्त्सर्गमार्ग है, एषणासमिति उसका अपवाद है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] सूत्र नें अर्थ अनुयोग ए, बीय नियुक्ति संयुत्त रे । तीय भाष्ये नये भावियो, मुनि वदे' वचन एम तंत' रे || सा० ।। १० ।। ज्ञान समुद्र समता भरघा, संवर दया भंडार रे । तत्त्व आनंद आस्वादता, वंदीये चररण गुरण धार रे |सा० ।।११।। मोह उदये मोही जिस्या, शुद्ध निज साध्य लयलीन रे । 'देवचंद्र' ते मुनि वंदीये ज्ञान अमृत रस पीन रे || सा० || १२ | तृतीय एषणा समिति सज्झाय (ढाल - भांझरीया मुनिवर, ए देसी ) समिति श्रीजी एषणा जी, पंच महाव्रत मूल । अनाहारी उत्सर्ग नो जी, ए अपवाद अमूल ॥ मन मोहन मुनिवर, समिति सदा चित्त धार || ए आकरणी ॥ | १ || चेतनता चेतन तरणी जी, नवि पर संगी तेह | तिरण पर सनमुख नवि करें जी, आत्म रती व्रती जेह ||म० || २ || काय योग पुद्गल ग्रहें जी, एह न प्रातम धर्म । जागग करता भोगता जी, हुँ माहरो ए मर्म | | ० ||३|| अनभिसंधि' चल वीर्य नी जी, रोधक शक्ति प्रभाव । पिर अभिसंधिज वीर्य थी जी, केम ग्रहें पर भाव | | ० ||४॥ इम पर त्यागी संवरी जी, न गहे पुद्गल खंध | साधक कारण राखवा जी, प्रसनादिक संबंध ||म० ॥ ५ ॥ १- बोलो ५ आत्म शक्ति Jain Educationa International ३ - सर्वथा प्रहाररहित रहना ६- मोक्ष साधक शरीर श्री देवचन्द्र पद्य पीयूष २-सार For Personal and Private Use Only ४ - इन्द्रियजन्म प्रवृत्ति Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड आतम तत्त्व अनंतता जी, ज्ञान विना न जणाय । तेह प्रगट करवा भणी जी, श्रु त सिझाय उपाय ।।म०।।६।। तेह देह थी देह रहे जी, पाहारे बलवान । साध्य अधूरे हेतु ने जी, केम तजे गुणवान म०।।७।। तनु अनुयायी वीर्य नो जी, वरतन अमन संयोग । वृद्ध' यष्टि सम जाणि ने जी, असनादिक उपभोग ।।म०॥८॥ जां साधकता नवि अडें जी, तां न ग्रहें प्राहार । बाधक परिणति वारवा जी, असनादिक उपचार ।।म।६।। सडतालीसे द्रव्यना जी, दोष तजी नीराग । . असंभ्रांति मूर्छा विना जी, भ्रमर परें वड़ भाग ।।म०॥१०।। तत्व रुची तत्वाश्रयी जी, तत्वरसी निग्रंथ । कर्म उदें आहारता जी, मुनि माने पलि मंथ' ।।म०।।११।। लाभ थकी पिण अणलहें जी, अति निर्जरा करत । पाम्ये अण व्यापक पणें जी, निरमम संत महंत ।।म० ।।१२।। अनाहारता साधता जी, समता अमृत कंद । भिक्ष श्रमण वाचंयमी' जी, ते वंदे देवचंद ।।म०।१३।। १-जैसे बुड्ड को लकड़ी का सहारा है, वैसे-साध्यसिद्धि में कारणभूत शरीर के लिये आहारादि आवश्यक है। २-दोष ३-मुनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] श्रीमद् देवचन्द्र पर पीयूष चतुर्थ श्रादाननिदोपणा समिति सज्माय - (भोलीडा हंसा रे विषय न राचीई-ए देसी) समिति चोथी रे चोगति वारणो, भाखी श्री जिन राज । राखी-परम अहिंसक मुनिवरें चाखी ज्ञान समाज ॥सहज०॥१॥ सहज संवेगी रे समिति परिणमों, साधन प्रातम काज । अाराधन ए संवर भाव नों, भव जल तरण जहाज ।।स०॥२॥ अभिलाषी निज प्रातम तत्त्व ना. साख' धरे सिद्धांत । नाखी सर्व परिग्रह संग नें, ध्यानाकांक्षी रे संत ॥स०॥३॥ संवर पंच तणी ए भावना, निरुषाधिक अप्रमाद । सर्व परिग्रह त्याग असंगता. तेहनो ए अपवाद । स०।।४।। स्याने मुनिवर उपधि संग्रहें, जे परभाव विरत्त । देह अमोही नवि लोही कदा, रलत्रयी संपत्त ।।स०॥५॥ भाव अहिंसकता कारण भणी, द्रव्य अहिंसक साधु । रजोहरण मुख वस्त्रीका धरें, धरवा योग समाधि ।।स०।।६।। शिव साधन नू मूल ते ज्ञान छे तेहनो हेतु सिज्झाय । ते पाहार रे ते वलि पात्र थी, जयणाई ग्रहवाय । स०॥७॥ बाल तरुण नर नारी जंतु नें, नग्न दुगंछा हेतु । तेणे चोलपट ग्रही मुनि उपदेसें, सुद्ध धर्म संकेत ॥स०।।८।। १-प्रातमतत्त्व के अभिलासी आगमों की साक्षी से आचरण करते है। २-शरीर पर भो जिनका मोह न हो ३-लोभी ४-नग्नता धूरणा का कारण है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १५५ दंस मसक सीतादि परीसहें, न रहें ध्यान समाधि । कलपक' आदिक निरमोही पणे, धारें मुनि निराबाध ।।स०॥६॥ लेप' अलेप' नदी ना ज्ञान नों, कारण दंड ग्रहंत । दसवैकालिक भगवइ साख थी, तनु थिरता ने संत ।।स०॥१०॥ लघु त्रस जीव सचित्त रजादि नो, वारण दुख संघट्ट । देखी पुंजीरे मुनिवर वावरे, ए पूरव मुनि वट्ट ।।स०॥११॥ पुद्गल खंध ग्रहण नीखेवणा, द्रव्ये जयणा तास । भावें प्रातम परिणति नव नवी, ग्रहतां समिति प्रकास।।स०।१२।। बाधक भाव अद्वेष पणे तजे, साधक ले गतराग । पूरव गुण रक्षक पोषक पणे, नीपजते सिव माग ।।म०॥१३॥ संयम श्रेणिए संचरता मुनी, हरता करम कलंक । धरता स्मरता रस एकत्त्वता तत्व रमण निसंक ।।स०।।१४।। जग उपगारी रे तारक भव्य ना, लायक पूरणानंद । 'देवचंद' एहवा मुनी राज नां, वंदे पद' अरविंद ।।स०॥१५॥ पंचम पारिष्ठापनिका समिति सज्माय (चेतन चेतज्यो रे, ए देसी) 1१-प्रोढ़ने के वस्त्र २-जंघाप्रमाण जल ३-जंघा से कम जल ४-वस्तु को जयणापूर्वक उठाना रखना द्रव्यजयणा है, आत्मा में कोई बुरी भावना न आवे इसका ख्याल रखना, भाव जयणा है। ५-प्रतिकूल भावों के प्रति द्वेष न रखना एवं अनुकूल के प्रति राग न रखना। ६-पूर्वप्राप्त सम्यकत्वादि गुण ७-पद कमल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष पंचम समिति कही अति सुदरु रे, पारिठावणी नाम । परम अहिंसक धर्म वधारणी रे, मृदु करुणा परिणाम ॥१॥ मुनिवर सेवज्यो रे समिति सदा सुखदाय ।ए प्रांकणी। थिरता भावें संयम सोहियें रे, निरमल संवर थाय ।।मु०॥२।। देह नेह थी चंचलता वधे रे, विकसें दुष्ट कषाय । तिण तनुराग तजी ध्यान रमें रे, ज्ञान चरण सुपसाय ।।मु०॥३॥ जिहां शरीर तिहां मल उपजे रे, तेह तणो परिहार । करें' जंतु चर थिर अरण दूहव्ये रे, सकल दुगंछा वार ।।१०।।४।। संयम बाधक प्रातम विराधना रे, प्राणा घातक जांरिण। उपधि प्रशन शिष्यादिक परठवें रे, आयति लाभ पिछांणि।।मु०॥५॥ वधे आहारें तपीया परठवें रे, निज कोठे अप्रमाद । देह अरागी भात अव्यापता रे, धीर नो ए अपवाद ।।मु०॥६।। संलोकादिक' दूषण परिहरी रे, वरजी राग ने द्वष । आगम रीते परिठवणा करें रें, लाघव हेतु विशेष ।।मु०॥७।। कल्पातीत अहा लंदी क्षमी रे, जिनकलपादि मुनीस। तेहनें परिठवरणा इक मल तणी रे, तेह अल्पवलि दीस ।।मु०॥८।। १-त्रस और स्थावर जीवों की विराधना टालते हुए। २-भावी लाभ ३-जहां किसी का आना जाना न हो, न किसी की दृष्टि पड़ती हो ऐसी स्थण्डिल भूमि में, राग-छेष रहित हो, आहारादि को परठे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १५७ रात्रों परिश्रवणादिक'परिठवें रे, विधि कृत मंडल ठाम । थिवर कल्पी नो विधि अपवाद छे रे, ग्लानादिक ने काम ।।मु०॥६॥ एह द्रव्य थी भावें परठवें रे, बाधक जे परणाम । द्वेष निवारी मादकता विना रे, सर्व विभाव विरांम ।।मु०॥१०॥ आतम परिणति तत्व मयी करें रे, परिहरता पर भाव । द्रव्य समिति पिण भावभरणी धरें रे, मुनि नो एह स्वभावामु०।११। पंच समिती समिता परणाम थी रे, क्षमा कोष गत रोस । भावन पावन संयम साधता रे, करता गुण गण पोस।।मु०॥१२।। साध्य रसी निज तत्त्वे तन्मयी रे, उत्सर्गी निर माय । योग क्रिया फल भाव अवंचता रे, सुचि अनुभव सुखराय।मु०।१३।। आरणा युत नाणी वलो दर्शनी रे, निश्चय निग्रह वंत । 'देवचंद्र' एहवा निग्रंथ जे रे, ते माहारा गुरु महंत ।।मु०।।१३।। षष्ठ मनोगुप्ति सज्झाय (बैरागी थयो-ए देशी) दुष्ट'तुरंग चित ने कह्यो रे, मोह नृपति परधान। प्रात रोद्रनु खेत्र ए रे, रोकि तूं ज्ञान निधा न रे ।मु०।१।। . मुनि मन वसि करो, मन ए पाश्रव गेह रे । मन ममता रसी, मन थिर यतिवर तेह रे ।।मु०।।२।। १-मात्रादि २-दुष्टछोड़ा ३-मन कई पीड़ानों का क्षेत्र है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] धोमवू देवचन्द्र पथ पीयूष । गुप्ति प्रथम ए साधु ने रे, धरम सुल्क नो कंद । वस्तु धरम चिंतन मा रम्या रे, साधे पूर्णानंद रे ।।मु०॥३॥ योग ते पुद्गल योग- रे, खींचे अभिनय कर्म । योग वरतना कंपना रे, नवि ए आतम धर्म रे ।।मु०॥४॥ वीर्य चपल पर संगमी रे, एहन साधक पक्ष । ज्ञान चरण सह कारता रे, वरतावें मुनि दक्ष रे।।मु०।५।। सविकल्प गुण साधना रे, ध्यानी ने न सुहाय । निर्विकल्प अनुभव रसी रे, प्रात्मानंदी थाय रे ।।११।।६।। रत्नत्रयी' नी भेदता रे, एह समल विवहार । त्रिगुण वीर्य एकत्वता रे, निर्मल आत्माचार रे।।मु०॥७॥ . शुक्ल ध्यान श्रु ता लंबना रे, ए पिण साधन दाव । वस्तु धरम उत्सर्ग मारे, गुण गुणी एक स्वभाव रे ।।मु०॥८॥ पर सहाय गुण वर्त्तना रे, वस्तु धरम न कहाय । साध्य रसी तो किम ग्रहें रे, साधु चित्त सहाय रे।।मु०।६।। आत्म रसी आत्मालयी रे, ध्यातां तत्व अनंत । स्याद्वाद ज्ञानी मुनी रे, तत्व रमण उपशांत रे ।मु०॥१०॥ नवि अपवाद रुचि कदा रे, शिव रसीया अरणगार । शक्ति यथा' गम तेसेवता रे, निदें कर्म प्रचार रे ।।१०।११।। १-ज्ञानादि का भेद, व्यवहार से है, तोनों की एकता निमंल आत्मरमरणता है। २-वीर्योल्लास से सेवन करते हुए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १५६ शुद्ध सिद्ध निज तत्वता रे. पूर्णानंद समाज । देवचंद्र पद साधता रे, नमीइं ते मुनीराज रे ।मु०।।१२।। सप्तम वचनगुप्ति सज्झाय (ढाल-सुमति सदा दिल मां धरो) अचन गुप्ति सुधी धरो, वचन ते करम' सहाय सलूणे । उदयाश्रित जे चेतना, निश्चय तेह अपाय सलूणे ॥३०॥१॥ वचन अगोचर प्रातमा, सिद्ध ते वचनातीत सलूणे । सत्ता अस्ति स्वभाव में, भाषक भाव अनीत सलूणे ॥३०॥२॥ अनुभव रस आस्वादता, करता आतम ध्यान सलूणे । वचन ते बाधक भाव छे, न वदें मुनिय निदान सलूणे।।व०॥३।। वचनाश्रव' पलटाववा, मुनि साधे स्वाध्याय सलणे । तेह सर्वथा गोपवें, परम महारस थाय सलूणे ॥व०॥४॥ भाषा पुद्गल वरगणा, ग्रहण निसर्ग उपाधि ।।स०॥ करवा पातम विरज ने, स्याने प्रेरे साधु स० ॥व०॥५॥ यावत' वीरज चेतना, प्रातम गुण संपत्त स० तावत संवर निर्जरा, आश्रव पर प्रायत्त स० ॥व०॥६॥ १-कर्म बंधन के कारण २-वचनरुपी आश्वव को रोकने के लिये स्वाध्याय पूर्ण उपाय है। यदि वचनाश्वव को सर्वथा रोकले तो प्रात्मानंद प्राप्त हो जाय । १-जवतक चेतना प्रातम गुणों को प्रेरणा देती, तब तक संवर और निर्जरा है। . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] भीम देवचन्द्र पक्ष पीयूष इम जाणी थिर संयमी, न करे चपल पलिमंथ स० प्रात्मानंद आराधता, अज्झत्थी' निग्रंथ स० ॥व०॥७॥ साध्य सुद्ध परमातमा, तस साधन उत्सर्ग स० बारे भेदे तप विष, सकल श्रेष्ट व्युत्सर्ग स० ॥व०॥८॥ समकित गुण ठाणे करयो, साध्य अजोगी भाव स० उपादानता तेहनी, गुप्ति रूप थिर भाव स० वि०॥६॥ गुप्ति रुचि गुप्ते रम्या, कारण समिति प्रपंच स० करता थिरता ईहता, ग्रहें तत्व गुण संच स० ॥व०।।१०।। अपवादें उत्सर्गनी, दृष्टि न चूके जेह ।स। प्रणमें नित प्रति भावस्युं, 'देवचंद्र' मुनि तेह स० ॥व०॥११॥ अष्टम कायगुप्ति सज्माय (ढाल-फूल ना चोसर प्रभुजी ने सिर चढें-ए देशी) गुप्ति संभारो रे त्रीजी मुनिवरू, जेहथी परम आनंदो जी। मोह टलें घन घाती परिगलें, प्रगटें ज्ञान अमंदो जी ।।गु०॥१॥ किरिया शुभ असुभ भव बीज छे, तिण तजी व्यापारो जी। चंचल भाव ते पाश्रव मूल छे, जीव अचल अविकारो जी ।।गु०॥२॥ - १-आत्मार्थी २-अपवाद का सेवन करते हुए उत्सर्ग की और लक्ष्य न चूके। ३-गलजाय. ४-संसार का कारण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १६१ इंद्री विषय सकल नो द्वार ए, बंध हेतु दृढ़ एहो जी। अभिनव'कर्म ग्रहें तनु योग थी, तिरण थिर करीइं देहो जी।।गु०॥३।। आतम वीर्य स्फुरे पर संग जे, ते कहीयें तनु योगो जी। चेतन सत्ता रे परम अयोगी छे, निरमल थिर उपयोगो जी।।गु०।४।। जावत कंपन तावत बंध छ, भाष्यं भगवई अंग्रेजी। ते माटें ध्रुव' तत्व रसें रमई,माहण' ध्यान प्रसंगें जी ।।गु०॥५॥ वीर्य सहाई रे प्रातम धर्म नो, अचल सहज अप्रयासो जी। ते प्रभाव सहायी किम करई, मुनिवर गुण ग्रावासो जी।।गु०।।६।। खंती मुत्ति युत्त अकिंचनी, शौच ब्रह्मधर धीरो जी। विषम परिसह सेन्य विदारिवा, वीर परम सौंडीरो" जी ।।गु०॥७॥ कर्म पटल दल क्षय करवा रसी, प्रातम ऋद्धि समृद्धो जी। 'देवचंद्र' जिन पारणा पालता, वंदो गुरु गुण वृद्धो जी ।।गु०।।८।। नवम साधु स्वरुप वर्णन सज्माय (ढाल-रसीया नी देसी) धरम धुरंधर मुनिवर सेवीए,' नाण चरण संपन्न सुगुण नर इंद्री भोग तजी निज सुख भजी, भव'चारक उदविन्न सु० ॥१०॥१॥ १-शरीर के कारण ही नये कर्मबंध होते हैं। २-निश्चल ३-मुनि १-शूरवीर २-प्रशंसा करनी चाहिये ३-संसार रुपी कैद से उद्विग्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] श्रीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष द्रव्य भाव साची सरधा धरी, परिहरि संकादि दोष सु० कारण कारज साधन पादरी, साधे साध्य संतोष सु० ॥ध०॥२॥ गुण पर्याय वस्तु परखता, सीख उभय भंडार सु० परिणति शक्ति स्वरुपें परिणमी, करता तसु व्यवहार सु० ।।ध०।।३।। लोकसन्न' वितिगिच्छा वारता, करता संयम वृद्धि सु० । मूल उत्तर गुण सर्व संभारता, धरता आतम शुद्धि सु० ॥ध०॥४॥ श्रुतधारी श्रुतधर निश्रारसी, वशी कर्यात्रिक योग सु० अभ्यासी अभिनव श्रुत सार ना, अविनाशी उपयोग सु० ॥३०॥५॥ द्रव्य भाव आश्रव मल टालता, पालता संयम सार सू० साची जैन क्रिया संभारतां, गालता कर्म विकार सु० ॥३०॥६।। सामायिक आदिक गुण श्रेणी में, रमता चढते रे भाव सु० तीन लोक थी भिन्न त्रिलोक में, पूजनीक जसु पाव ।।सु०॥०॥७॥ अधिक गुणी निज तुल्य गुणी थकी, मिलता जे मुनिराज सु० परम समाधि निधि भव जलधि ना, तारण तरण जहाज सु०॥धा। समकित वंत संयम गुण ईहता, धरवा असमर्थ सु० संवेगपक्षी भावे शोधता, कहेंता साचो रे अर्थ सु० ॥ध.।।६।। आप प्रशंसायें नवि माचता, राचता मुनि गुण रंग ।।सु.।। अप्रमत्त मुनि श्रुत' तत्व पूछवा, सेवे जासु अभंग सु० ॥ध०।।१०।। १-लोग संज्ञा २-ज्ञान का तत्त्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड सद्दहणा' आगम अनुमोदता, गुण कर संयम चालि सु० व्यवहारे साचो ते साचवे, प्रायति लाभ संभालि सु० ॥ध०।।११।। दुष्कर कार थकी अधिका कहें, वृहत्कल्प विवहार ।।सु०॥ उपदेश माला भगवई अंग में, गीतारथ अधिकार सु० ॥ध.।।१२।। भाव चरण थानिक फरस्या, विना न हुवें संयम धर्म ।।सु०।। तो स्याने झूळू ते उचरें, जे जाणे प्रवचन मर्म ।।सुधि ॥१३॥ यश लोभे निज सम्मति थापना, परजन रंजन काज सु० ज्ञान क्रिया द्रव्य थी साचवें, तेह नहीं मुनिराज सु० ॥ध०।।१४।। बाह्य दया एकांते उपदिसें, श्रुत आम्नाय विहीन ।सु०। बग' परि ठगता मूरख लोकें, बहु भमशे ते दीन सु० ॥३०॥१५॥ अध्यातम परिणति साधन ग्रहो, उचित वहें आचार ।सु०। जिन आणा अविराधक पुरुष जे, धन्य तेह नो अवतार सु०॥ध०।१६। द्रव्य क्रिया नैमित्तिक हेतु छे, भाव धर्म लयलोन सु० निरुपाधिकता जे निज अंस नी, मानें लाभ नवीन सु० ॥३०॥१७॥ परिणति दोष भणी जे निंदता, कहता परिणति धर्म सु० - योग ग्रंथना भाव प्रकाशता, तेह विदारें कर्म सु ॥ध०।।१८।। अल्प क्रिया पिण उपगारी पणे, ग्यानी साधे हो सिद्धि सु.. देवचंद्र सुविहित मुनि वृद ने, प्रणम्यां सयल समृद्धि सु. ।।ध०।।१६। १-पागमों के प्रति पूर्ण श्रद्धा, आगमोक्त आचरण करने वाले की अनुमोदन ये दो गुणकारी हे । २-ज्ञान की परंपरा ३-बगुल के समान ४-विभावदशा ५-स्वभावदशा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद देवचन्द्र पछ पीयूष कलश-प्रशस्ति (ढाल राग-धनाश्री) ते तरीया रे भाइ ते तरिया, जे जिन शासन अनुसरीया जो। जेह करे सविहित मुनि किरिया, ज्ञानामृत रस दरीया' जी ॥ते॥१॥ विषय कषाय सह परिहरिया, उत्तम समता वरिया जी। सील सन्नाह थकी पाखरिया, भव समुद्र जल तरीया जी ।।ते॥२॥ समिति गुपति मां जे परिवरिया, प्रात्मानंदें भरिया जी। आश्रव द्वार सकल आवरीया, वर संवर संवरीया जी ॥ते०॥३॥ खरतर मुनि आचरणा चरिया, राजसार गुण गिरिया जी। ज्ञान धर्म तप ध्याने वसिया, श्रुत रहस्य ना रसिया जी॥ते.॥४॥ दीपचंद पाठक पद धरीया, विनय रयण सागरीया जी। देवचंद मुनि गुण उचरीया, कर्म अरी निर्जरीया जी॥ते॥५॥ सुरगिरि ६ सुंदर जिनवर मंदिर, सोभित नगर सवाई जी। नवानगर चोमासु करी नें, मुनिवर गुण स्तुति गाई जी ॥०॥६॥ ते मुनि गुण माला गुणें विसाला, गावो ढाल रसाला जी। चोविह संघ समण गुण थुणतां, थास्यो लील भुवाला जी ॥ते॥७॥ १-समुद्र २-शील रुप कवच ३-बन्द कर दिये ४-पालन करने वाले ५-गुणों से महान ६-सुमेरु के समान सुन्दर और उच्च जिन चैत्य से शोभित ७-जामनगर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ॥ कलश ।। इम द्रव्य भावें समिति समिता, गुप्ति गुप्ता मुविवरा निर्मोह निर्मल शुद्ध चिदघन, तत्व साधन तप्परा देवचंद्र अरिहा आरण विचरें विस्तरे जस संपदा निर्ग्रथ वंदन स्तवन करता, परम मंगल सुख सदा ||८|| पंच भावना सज्झायः स्वस्ति श्रीमन्दिर परम धरम धांम सुख ठाम । स्यादवाद परिणाम धर, प्ररणम् चेतन राम ॥ १ ॥ महावीर जिनवर नमी, भद्रबाहुसूरीश । वंदी श्री जिन भद्र गरिण, श्री क्षेमेंद्र मुनीश ॥२॥ सद् गुरु सासन देव नमि, वृहत्कल्प अनुसार । सुद्ध भावना साधु नी, भाविस पंच प्रकार ॥३॥ इंद्री' योग कषाय ने, जीपे मुनि निस्संग । इरण जीते कुध्यान जय, जाये चित्त तरंग' ||४|| प्रथम भावना श्रुततणी, बीजी तप तीय सत्व । तुरीय एकता भावता, पंचम भाव सुतत्व ||५|| Jain Educationa International [ १६५ १- पांच इन्द्रियां, चार कंषाय और तीन योग को जीते ! २-मानसिक विकल्प ३ - प्रथम श्रुत भावना (२) तप भावना (३) सत्त्व भावना (४) एकत्त्व भावना और (५) तत्त्व भावना है । इनका क्रमशः फल है (१) मनस्थिरता (२) कायदमन, वेदोदय क) शान्त करना (३) निर्भयता (४) लघुता (५) आत्म गुणों की सिद्धि | For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्रत भाबना' मन थिर करे, टाले भव नो खेद । तप भावन काया दमें. वमे वेद उमेद ॥६॥ सत्व भाव निर्भय दसा, निज लघुता इक भाव । तत्व भावना प्रात्म गुण, सिद्धि साधन दाब ॥७॥ ढाल-१--श्रुत भावना की (लोक सरूप विचारो प्रातम हित भणी रे-ए देशी) श्रु त अभ्यास करौ मुनिवर सदा रे, अतीचार सहु टालि । हीन अधिक अक्षर मत उच्चरौ रे, शब्द अर्थ संभालि ॥१॥श्र ।। सूक्षम अर्थ अगोचर दृष्टि थी रे, रूपी रूप विहीन । जेह अतीत अनागत वरतता रे, जाणं ज्ञानी लीन ॥२॥श्र०।। नित्य अनित्य एक अनेकता रे, सद सदभाव स्वरूप । छए भाव इक' द्रव्ये परणम्यारे, एक समय मां अनूप ॥३॥श्र ०॥ उत्सर्ग अपवाद पदे करी रे, जाणे सह श्रत चाल । वचन विरोध निवारै युक्ति थी रे, थाप दूषण टाल ॥४॥श्रु०॥ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक धरे रे, नय गम भंग अनेक । । नय सामान्य विशेष ते ग्रहें रे, लोक अलोक विवेक ||शाश्र ।। १-एक पदार्थ, में एक ही समय में छः भाव परिणत होते है :-नित्यता, अनित्यता, एकता, अनेकता, सत् और असत्-श्रुतज्ञान द्वारा द्रव्यों के इन छः भावों को विचारे । २-श्रुतज्ञान की उपकारकता नदी सूत्र एवं भगवती के नवम यतक के इकत्तीसवें उद्देशक में 'असोच्चा केवली' के अधिकार में भी बताई गई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड । १६७ नदो' सूत्रइ उपगारी कह्यो रे, वली अशुच्चा ठाम । द्रव्य श्रुत ने वांद्यो गणधरे रे, भगवई अंगइ नाम ।।श्रु०॥६॥ श्रुत' अभ्यासे जिन पद पामी ये रे, छट्ठि + अंगे साख । श्रुत नाणी केवल नाणी समो रे, पन्नवरिणजे भारव ॥श्रु०॥७॥ श्रुतधारी पाराधक सर्वतई रे, जाणे अर्थ स्वभाव । निज प्रातम परमातम सम ग्रहे रे, ध्यावे ते नय दाब ।।श्रु०॥८॥ संयम दर्शन ज्ञानेx ते वधे रे, ध्याने शिव साधत । भव सरूप चउगतीनो ते लखे रे, तिण संसार तजंत ।।श्रुमा।। इंद्रीय सुख चंचल जाणी तजे रे, नव नव अर्थ तरंग । जिम जिम पामे तिम मन उल्लसे रे, वसे न चित्त अनंग । ०।१०।। काल असंख्यता ना ते भव लखे रे, उपदेशक पिण तेह । परभव साथी अवलंबन खरो रे, चरण विता शिव गेह ॥ ॥११॥ पंचम काले श्रुतबल पिण घटयो रे, तो पिण एः प्राधार । 'देवचंद्र' जिन मत नो तत्व ए रे, श्रुत सुंधरज्योप्यार | ॥२॥ पाठान्तर+छठे पाठान्तर-xते ज्ञाने वधे रे. चउगनो लखड़ १-श्रुतअभ्यास से तीर्थकर नाम कर्म बंधता है। २-पन्नवणासूत्र में ३-काम वासना ४-जिनेश्वरदेव का मार्ग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पच पीयूष - - -- - - - - - - - - - - - - ढाल २--तप भावना की (कुमर इसौ मन चितवं रे-ए देशी) रयणावली कनकावली मुक्तावली गुण रयण । वज्रर्थमध्य ने जव मध्य ए तप कर ने हो जीपो रिपु मयण ॥११॥ भवियण तप गुण आदरो रे, तप तेजे रे छीजे सह कर्म । विषय विकार दूरे टले रे, मन गंजे रे मंजे भव भर्म ।।भ०।।२।। जोग' जय इंद्रीय' जय तहा, तव कभ्म' सूडण सार । उवहारण योग दुहा करी, सिव साधे रे सुधा अरणगार भ०॥३॥ जिम जिम प्रतिज्ञा दृढ़ थको, वेरागी तप सी मुनि राय । तिम तिम अशुभ दल छीजइ, रवि तेजे रेजिम सीत विलाय।।भ०।४। जे भिक्ष पडिमा प्रादरे, भासण अकंप सुधीर । अति लीन समता भाव में, तृण नी पर हो जाणंत सरीर।।भ०॥५॥ जिण' साधु तप तरवार थी, सूडीयो मोह गयंद । तिण साधु नो हुँ दास छु, नित्य बंदु हो तस पय अरविंद।।भ०।६।। आयार सुयगडांग में, तिम कह्यो भगवई अंग । उत्तर झयण गुण तीस में, तप सगे हो सह कर्म नो भंगाभ०।७।। वज्ज तीस में १-योगों को जीतने से २-इन्द्रियां जीती जाती हैं। ३-कर्म सूदन तप ४-उपधान. और योगोद्वहन करके ५-सूर्यका तेज ६-जिन मुनियों ने तपरूपी तलवार के द्वारा मोह रूपी हाथी का विनाश कर दिया है, उनका में दास हूँ, उनके चरण करण कमल को मैं नित्य वन्दन करता हूं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १६६ जे दुविध' दुक्कर तप तपे, भव' पास पास विरत्त । धन साधु मुनि ढंढण समा, ऋषि खंदग हो तीसग कुरुदत्त।।भ०।। निज प्रातम कंचन भरणी, तप अगनी करि सोधत ।। नव नव लबधि बल छतै, उपसर्गे हो ते संत महंत ॥६॥o!! धन्य तेह जे धन गृह तजी, तन नेह नो करी+ छह । निस्सग वन वासे वसे, तपधारी हो जे अभिग्रह गेह ॥भ०॥१०॥ धन्य तेह गछ गुफा तज़ी, जिन कल्पी' भाव अफंद । परिहार विशुद्धी तप तपे, ते वंदे हो 'देवचंद' मुनिंद ।।भ०॥११॥ ढाल ३-सत्त्वभावना की (हिव राणी पदमावती "ए देशी) . रे जीव ! साहस आदरो, मत थावी दीन । सुख दुख संपद आपदा, पूर्व करम आधीन ।।रे०।।१।। क्रोधादिक वसिं रण समे, सह्या दुक्ख अनेक । ते जो समतामां सहे, तो तुज खरो विवेक ॥२०॥२॥ सर्व अनित्य अशास्वतो, ५ जे दीसै एह ।। तन धन सयण' सगा सह, तिणसुं स्यो नेह ।।रे०।३।। जिम बालक वेल तणा, घर करीय रमंत । तेह छते अथवा ढहै, निज निज गृह जंत ॥रे०॥४॥ पाठान्तर-+करे स्यं स्यउ १-बाह्य आभ्यन्तर तप २-सांसारिक बंधन। ३-जिनकल्पी ४-नेव साधुओं का समूह मिलकर तप विशेष करता है। ५-अनित्य ६-स्वजन ७-रेत -गिर - जाने पर -घर चले जाते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० । बीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष - - पंथी जेम सराह' में, नदी नावनी रीति । तिम ए परीयण' तो मिल्यो, तिरणथी सी प्रीति ।।२०।।५।। जां स्वारथ तां सहु सगे, विरण स्वारथ दूर । परकाजे पापै मिले, तूं किम हुवे सूर ॥२०॥६॥ तजि वाहिर मेलावडो, मिलीयो बहु वार । जे पूर्वे मिलीयो नही, तिण सुंधरि प्यार ॥२०॥७।। चक्री हरि बल प्रति हरी, तसु वैभव अमांन । ते पिण काले संहरया, तुझ धन स्ये मान ॥२०॥८॥ हा हा हूं करतो तूं फिरै, पर परिणति चिंत । नरक पडयां कहिं ताहरी, कुण करस्य चित रे०।६।। रोगादिक दुख ऊपने, मन परति म धरेव । पूरव निज कृत कर्म नो, ए अनुभवे हेव ॥२०॥१०॥ एह सरीर असासतो खिरम मैं छीजत । प्रीति किसी तिण ऊपरैx जे स्यारथवंत ॥२०॥११॥ जां लगें तुझ इण देह थी, छै पूरव संग। तां लगि कोड़ि उपाय थी, नवि थाये भंग ॥रे॥१२॥ आगलि पाछलि चिहुं दिन, जे विरणसी जाय । .. रोगादिक थी नवि रहै, कीधै कोड़ि उपाय ॥२०।।१३।। पाठान्तर- ऊपरा - - १-धर्मशाला-मुसाफिर खाना २-कुटुम्ब ३-प्रति वासुदेव ४-दुःख ५-अनित्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड अंतइ पिण इरण ने तज्यां, थायै शिव सुक्ख । ते जो' छूटे आप थी, तो तुझ स्यौ दुक्ख || २० || १४ || ए तन विणस्यै ताहरे, नवि कांई हारण । जो ज्ञानादिक गुण तणौ, तुझ प्रावै भांग ॥२०॥१५॥ तु अजरामर आतमा, अविचल गुण खाण । खिरण भंगुर जड़ देह थी, तुझ केही पिछांग ॥२०॥१६॥ छेदन भेदन ताड़ना, बध बंधन दाह । पुदगल ने पुदगल करें, त् अमर अगाह ॥०॥१७॥ पूरव करम उदे सही, जन वेदना थाय । ध्यावे प्रातम तिरण समे, ते ध्यानी राय || २० || १८ || ग्यांन ध्यान नी वातड़ी, करणी प्रसान | अंतसमे आपद पडयां, विरला करे ध्यान ||२०|| १६ || आरति करि दुख भोगवे, पर वसि जिम कीर । तो तुझ जांण पणा तरणो, गुरण केहो धीर ||२०||२०|| शुद्ध निरंजन निरमलो, निज प्रातम भाव । वि कहि दुख कस्यों, जे मिलियो आव ॥ २० ॥२१॥ देह गेह भाड़ा तणो, ए आपणों नांहि । मांहि समाहि ॥०||२२|| तुझ गृह प्रतम ज्ञान ए, ति पाठान्तर - * बह १ - यदि २ - ध्यान ३ - गुणों का राजा है घर है । ६ -तेरा अपना घर आत्मज्ञान है । । ५ [ १७१ Jain Educationa International ४- तोता ५-यह शरीर किराये का ७ - समाधि For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ । श्रीमद् देवचन्द पद्य पीयूष परिजन मरतो देखी ने रे, शोक करे जन मूढ' । अवसरे वारो' आपणो रे, सहु जननी ए रूढ रे ।।प्रा०॥१३॥ सुर' पति चक्की हरि' हलीरे, एकला परभव जाय । तन धन परिजन सहू वली रे, कोई सखाई न थाय रे ।।प्र०।।१४।। एक प्रातमा माहरो रे, ज्ञानदिक गुणवंत । बाह्य योग सहुअवर छ रे, पाम्या वार अनंत रे ।।प्रा०।१५।। करकंडू, नमि, निग्गइ रे, दुमुह, प्रमुख ऋषिराय । मृगा पुत्र, हरिकेश ना रे, बंदु हुं नित पाय रे ॥प्रा०॥१६॥ साधु चिलाती सुतभलो रे, वली अनाथी तेम । इम मुनि गुण अनुमोदतां रे, देवचंद्र सुख क्षेम रे ।।प्रा०॥१७।। ___ ढाल पंचवीं तत्त्वभावना की (इण परि चंचल आउखौ जीव जागौरी-ए देशी ) चेतन ए तन कारमो तुम ध्यावो री, शुद्ध निरंजन देव । भविक तुम ध्यावो री, सुद्ध सरुप अनूप ।।भ०॥यांकणी॥१॥ नरभव श्रावक कुल लह्यो तु० लीधो समकित सार ।भ०।। जिन आगम रुचि सुसुरणो तु. आलस निंद निवार ।।भ०॥२॥ पाठान्तर-- . ४सोग अवसर वारइ ५-सहायक ६-मूर्ख १-इन्द्र २-चक्रवती ३-वासुदेव ४-बलदेव ८-प्रनित्य २ तेजम और कार्मरण के बंधन बिना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १७५ तीन लोक त्रिहुं काल नी तु. परणति तीन प्रकार ।।भ०॥ एक समे जाणे तिणे तु. नाण अनंत अपार ॥भ०॥३॥ समयांतर सह भाव नो तु. दरसण जास अरणंत ।।भ०॥ आतम भावे थिर सदा तु. अक्षय चरण मर्हत ।।भ०।।४।। सकल दोष हर शाश्वतो तु. वीरज परम अदीन ।भ०॥ सूक्ष्म तनु बंधन बिना तु. अबगाहन स्वाधीन ।'भ०।।५।। पुद्गल सकल विवेक थी तु. सुद्ध अमूरत रूप ।।भ०।। इद्री' सुख निसपृह थया तु. अकथ्य अबाह सरुप ।।भ०॥६॥ द्रव्य तणे परिणाम थी तु. अगुरु लघुत्व अनित्य ॥भ०॥ सत्य स्वभाव मयी सदा तु. छोडी भाव असत्य ।।भ०॥७॥ निज गुण रमतो राम ए तु. सकल अकल गुण खान: भ०॥ परमातम परम ज्योति ए तु. अलख अलेप वखाण ।।भ०॥८॥ पंच' पूज्य मां पूज्व ए तु. सरव ध्येय थी ध्येय ॥भ०।। व्याता ध्यानअरु ध्येय ए तु. निहचे एक अभेय भात।। अनुभव करतां एहनो तु. थाये परम' प्रमोद ।।भ०।। एक रूप अभ्यास सु तु. शिव सुख छे तसु गोद ।।भ० ।।१०।। पाठान्तर-+खेम सूखम खाणि सरुप १-इन्द्रियजन्य सुखों के प्रति निस्पृहता आने पर प्रात्मा का अकश्य सुख स्वरुप प्रकट हो जाना है। २-पांच परमेष्ठि। ३-ग्रानन्द प्राप्त होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पोयूका बंध प्रबंध ए प्रातमा तु. करता अकरता एह ॥भ०॥ एह भोगता अभोगता तु. स्यादवाद गुण गेह ।।भ०।।११।। एक अनेक सरुप ए तु. नित्य अनित्य अनादि ।भ०।। सद सद भावे पररणम्यो तू. मुक्त शकल उम्माद ॥भ०।१२।। तप जप किरिया खप थको तु. अष्ट करम न विलाय' भ०।। ते सहु प्रातम ध्यान थी तु. खिरण मैं खेरू थाय ।।भ०।।१३।। सुद्धातम अनुभव विना तु. बंध हेतु सुभ चालि ॥भ०॥ आतम परणामे रह्या तु. एहज अाश्रव' पालि ।। भ०।।१४।। इम जारणी निज प्रातमा तु. वरजी सकल उपाधि ।।भ०॥ उपादेय अवलंब ने तु. परम महोदय' साधि ।।भ०।।१५।। भरत, इलासुत, तेतली तु. इत्यादिक मुनि वृद ।। भ०।। प्रातम ध्यान थी ए तरया तु. प्रणमे ते 'देवचंद्र' ॥भ० ।।१६।। ढाल ६-भावना महात्म्य (प्रशस्ति) (सेलग शेपूँज सीधा-ए देशी) भावना मुगति निसांणी जाणी, भावो प्रासति प्राणी रे। .. योग, कषाय, कपटनी हांणी, थाये निरमल झारणी जी । भा०॥१।। पंच भावना ए मुनि मन ने, संवर खांरिग वखरणी जी। वृहत्कल्प सूत्र नी बांणी, दीठी तेम कहाणी जी ।। भा०॥२॥ १-क्षय होना २-क्षय ३-पाश्रव को रोकने वाला संवररुप ४-मोक्ष ५-नमूना ६-अास्था ७-ध्यानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १७७. करम' कतरणी सिव' नीसरणी, झाण ठारप-अनुसरणी जी। चेतन राय तरणी ए घरणी,' भव समुद्र दुख हरणी जी ॥भा०।३।। जयवता पाठक गुणधारी, राजसार सुविचारी जी । निरमल ज्ञान धरम संभारी, पाठक सहु हितकारी जी ॥भा०।।४।। राजहंस सहगुरु सुपसावे, 'देवचंद' गुण गावे जी । भविक जीव जे भावना भावे, तेह अमित सुख पावे जी ॥भा०।।५। जेसलमेरे साह सुत्यागी, वरधमान बड़भागी जी । पुत्र कलत्र सकल सोभागी, साधु गुण ना रागी जी भा०।।६।। तसु आग्रह थी+ भावना भावी, ढाल बंध में गावी जी। भणस्ये गुणस्ये जे ए ज्ञाता, लहस्ये ते सुख शाता जी ।।भा०॥७॥ मन शुद्धे. पंच भावना भावो, पावन निज गुण पावो जी। मन मुनिवर गुण संग वसावो, सुख संपति गृह थावो जी ।भा॥८॥ पाठान्तर-+करी संवत १७६१ वर्षं चैत्र वदी ११ सोमे श्रीराज देंगे मिलिप्सितं पुस्तकं जयतुः ।। १-ये पांच भावना कार्मों को नाश करने में कतरणी समान है २-मोक्ष के सोपान ३-गृहिणी-पत्नी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] श्रीमद् देवचंद पद्य पीयूष ५--प्रभंजना--सज्झाय (ढाल १-नाटकीया नी नंदनी, ए देशी) गिरि वैताढय ने उपरे, चक्रांका नयरी' रे लो ॥ अहो च० ॥ चक्रायुधराजा तिहा, जीत्या सवि वयरी रे लो ॥हो जी०।१।। मदनलता तसु सुंदरी, गुण शील अचंभा रे लो ।।अहो गु०॥ पुत्री तास प्रभंजना, रूपे रति रंभा रे लो ॥ अहो रू० ।।२।। विद्याधर भूचर' सुता, बहु मिलि एक पंथे रे लो | अहो ब० ॥ राधावेध मंडावियो, वर वरवा खंते रे लो ।। अहो व० ॥ ३ ॥ कन्या एक हजार थी, प्रभंजना चाले रे लो ॥ अहो प्र० ।। आर्य खंड में प्रावतां, वनखंड विचाले रे लों ॥ अहो व० ॥ ४ ॥ निम्र थी' सुप्रतिष्ठिता, बहु गुरूगी संग रे लो ॥ अहो व० ।। साधु विहारे विचरता, वंदे मन रंगे रे लो ॥ अहो वं० ॥ ५ ॥ आर्या पूछे एवड़ो, उमाहो स्यो छे रे लो ||अहो उ०॥ विनये कन्या वीनवे, वर वरवा इच्छे रे लो || अहो व० ॥ ६ ॥ ए स्यो हित जाणों तुम्हें, एहथी नवि सिद्धि रे लो ।। अहो ए० ॥ विषय हला हल विष तिहां, शी अमृत बुद्धि रे लो ।। अहो शी० ॥७॥ भोग - संग कारमा कहया, जिनराज सदाई रे लो ॥ अहो जि० ॥ राग-द्वेष संगे वधे, भव भ्रमण सदाई रे लो ।। अहो. भ० ॥ ८ ॥ १-नगरी २-वैरी-शत्रु ३-राजपुत्री ४-एक मार्ग में ५-साध्वी जी ६-दुखदायी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड [ १७९ राज-सुता' कहे साच ए, जे भांखो वाणी रे लो ॥ अहो जे० ।। पण ए भूल अनादिनी, किम जाए छंडाणी रे लो ।। अहो कि० ।।६।। जेह तजे ते धन्य छे, सेवक जिनजी ना रे लो ।। अहो से० ।। अमे जड पुद्गल रसे रम्या, मोहे लयलीना रे लो॥ अहो मो० ॥ १० ॥ अध्यातम रस : पानथो, पीना' मुनिराया रे लो । अहो पी० ।। ते पर' परिणति-रति तजि, निज तत्वे समाया रे लो ।। अहो नि ।।११।। अमने पण करवो घटे, . कारण संजोगे रे लो ।। अहो का० ।। पण चेतनता परिणमे, जड़ पुद्गल भोगे रे लो ॥ अहो जड़ ॥ १२ ॥ अवर कन्या एम उच्चरे, चिंतित हवे कीजे रे लो . ॥ अहो चि० ॥ पछी परम पद साधवा, उद्यम साधीजे रे लो ।। अहो उ० ॥ १३ ॥ प्रभंजना कहे हे सखी, ए कायर प्राणी रे . लो ।। अहो ए० ।। धर्म प्रथम करवो घटे, 'देवचन्द्र' नी वाणी रे लो ।। अहो देव० ।।१४।। (ढाल-२-हुं वारी धन्ना, हुँ तुम जाण न देशी-ए देशी) कहे साहुणी सुण कन्यका रे धन्या ! ए संसार कलेश । एहने जे हितकारी गरणे रे धन्या, ते + मिथ्यात्व आवेश रे। __ सुज्ञानी कन्या ! सांभल हित उपदेश ।।१।। पाठान्तर-+छे १-प्रभंजना २-पुष्ट ३-परपदार्थों का राग ४-साध्वीजी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] श्रीमद् देवचन्द पद्य पीयूष जग हितकारी जिनेश छ रे कन्या, कीजे तसु आदेश रे । सुज्ञानी कन्या ! सांभल हित उपदेश ।।२।। खरडी ने जे धोयवु रे कन्या, तेह नहि शिष्टाचार । रत्नत्रयी साधन करो रे कन्या ! मोहाधीनता* वार रे ।। सुज्ञानी कन्या ! सांभल हित उपदेश ।।३।। जेह पुरुष वरवा भणी रे कन्या, इच्छे छे ते जीव । स्यो संबंध पणे भरणो रे कन्या, धारी काल सदीव रे ।। सुज्ञानी कन्या ! सांभल हित उपदेश ॥४॥ तव प्रभंजना चितवे रे अप्पा ! तुं छे अनादि अनंत । • ते पण मुझ 'सत्ता समो रे अप्पा'! सहज अकृत सुमहंत ।। सुज्ञानो अप्पा ! सांभल हित उपदेश ॥५॥ भव-भमतां सवि जीवथी रे अप्पा, पाम्या सर्व संबंध । मात, पिता, भ्राता, सुता रे अप्पा, पुत्रवधू प्रतिबंध रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश ।।६।। श्यों संबंध कहुं इहां रे अप्पा, शत्रु मित्र पण थाय । ..... मित्र शत्रुता वली लहें रे अप्पा, एम संसार स्वभाव रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश ।।७।। पाठान्तर-ॐ पराधीनता १-आत्मा अने निज स्वरुप में सिद्धों जैसा है। २-हे प्रात्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड । १८१ सत्ता' सम सवि जीव छ रे अप्पा, जोतां वस्तु स्वभाव । ए माहरो ए पारकों रे अप्पा, सवि आरोपित भाव रे ॥ सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश ।।८।। गुरुणी पागल एहवु रे अप्पा, जुठं केम कहेवाय । स्वपर विवेचन कीजतां रे अप्पा, माहरो कोई न थाय रे ॥ __ सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश ॥६॥ भोगपणु परण भूलथी रे अप्पा, मानें पुद्गल खंध । हुं भोगी निज भावनों रे अप्पा, परथी नही प्रतिबंध' रे॥ सुज्ञानी अप्पा! सांभल हित उपदेश ॥१०॥ सम्यक ज्ञाने वहेचतां x रे अप्पा, हुँ अमूर्त चिद्रुप । कर्ता भोक्ता तत्त्वनो रे अप्पा, अक्षय अक्रिय अनूप रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश ।।११।। सर्व विभाव थकी जुदो रे अप्पा, निश्चय निज अनुभूति । पूर्णानंदी परमात्मा रे अप्पा, नहीं पर परिणति रीति रे ॥ सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश ॥१२॥ पाठान्तर- विचारता १-चेतना रूप से सभी आत्मा एक समान है। २-अपने और पराये का विवेक करने पर। ३-प्रात्माका पर पदार्थो के साथ वास्तव में देखा जाय तो कोई संबंध नहीं है। ४-सम्यक ज्ञान से विवेक करने पर । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] सिद्ध' समी ए संग्रह' रे अप्पा, पर रंगे पलटाय । संगांगी भावे कह्यो रे अप्पा, अशुद्ध विभाव अपाय रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हिंत उपदेश || १४॥ शुद्ध निश्चय नये करी रे अप्पा, आतम भाव अनंत । तेह अशुद्ध नये करी रे अप्पा, दुष्ट विभाव महंत रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश || १४ || द्रव्यकर्म कर्त्ता धयो रे अप्पा, नय अशुद्ध व्यवहार | तेह निवारो स्वपदे रे अप्पा, रमता शुद्ध व्यवहार रे ॥ सुज्ञानी अप्पा ! साँभल हिंत उपदेश || १५शा व्यवहारे समरे थके रे अप्पा, समरे निश्चय तिबार । प्रवृत्ति समारे विकल्पने रे अप्पा, ते स्थिर परिणति सार रे ॥ सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश || १६ | पुद्गल ने पर जीव थी रे अप्पा कीधो भेद विज्ञान । बाधकता दूरेटली रे अप्पा, हवे कुरण रोके ध्यान रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश || १७ ।। आलंबन भावन वशे रे अप्पा, धरम-ध्यान प्रकटाय । 'देवचंद'' पद साधवा रे अप्पा एहिज शुद्ध उपाय रे ।। मुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश || १८|| श्रीमद् देवचन्द्र पद्ये पीयूष Y Jain Educationa International १ - संग्रह नय की अपेक्षा आत्मा सिद्ध समान है । २- शुद्ध आत्मा भी कर्म संयोग शुद्ध बनता है । ३ - अशुद्ध व्यवहार से यह जीव परभाव का कर्त्ता है 1 ४- परभाव के कर्तृत्व का निवारण होना और स्वभाव की कत्तृता आना ही शुद्ध व्यवहार है । ५ - शुद्ध आलंबन और भावना दोनों मिलने से धर्म ध्यान प्रकट होता है । ६- परमात्मपद की प्राप्ति के लिये शुद्ध प्रालंबन और भावना ही मुख्य उपाय है । For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड (३ ढाल-तुठो तुठो रे साहब जग नो तूटो- देशी ) आयो आयो रे अनुभव प्रातम चो प्रायो । शुद्ध निमित्त ग्रालंबन भजतां, आत्मालंबन पायो रे || अनु० ॥ १ ॥ आतम क्षेत्री गुण परयाय विधि, तिहां उपयोग रमायो । पर परगति पर री ते जाणी, तास विकल्प गमायो रे ॥ अनु०॥२॥ पृथक्त्व ' वितर्क शुक्ल आरोही, गुरण गुरणी एक समायो । पर्याय द्रव्यं वितर्क एकता, दुर्द्धर मोह खपायो रे || अनु०॥३॥ अनंतानुबंध सुभट नें काढी, दर्शन मोह गमायो । त्रिगति हेतु प्रकृतिक्षय कीधी, थयो ग्राम रस रायो रे || अनु० || ४ || द्वितीय तृतीय चोकड़ी खपावी, वेद युगल क्षय थायो । हास्यादिक सत्ता थी ध्वंसी, उदय वेद मिटायो रे || अनु०||५|| थई प्रवेदी ने अविकारी हण्यो संजवलन कषायो । मार्यो मोह चरण क्षयकारी, पूरण समता समायो रे || अनु० ॥ ६ ॥ घन घाती कि योधा लडीया ध्यान एकत्व' ने ध्यायो । ज्ञानावरणादिक सुभट पडीया जीत निसारण घुरायो रे || अनु०|७| केवल ज्ञान दर्शन गुण प्रगटयो, महाराज पद पायो । शेष धाति कर्म क्षीरण दल, उदय अबाध दिखायो रे || अनु० ||८|| सयोगि केवली थया प्रभंजना, लोका लोक जरणायो । तीन कालनी विविध वर्त्तना, एक समये प्रोलखायो रे || अनु०॥६॥ [. १८३ १ - शुक्ल ध्यान का एक पाया २- दूसरा पाया ३-तीसरा पाया ४-योद्धा ५- वस्तु की भूत-भावी और वर्तमान परिवर्तन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] श्रीमद् देवचंद पद्य पीयूष सर्व साधवी से वंदना कीधी, गुणी विनय उपजायो । देव देवी तव करे गुण स्तुति, जग | जय पडह वजायो रे ।।अनु०॥१०॥ सहम कन्यकाए दीक्षा लीधी, प्राश्रव सर्व तजायो । जग उपगारी देश विहारी, शुद्ध धरम दोपायो रे ॥अनु० ।।११।। कारण योगे कारज साधे, तेह चतुर गाईजे । प्रातम साधन निर्मल माध्ये, परमानंद पाईजे रे ।।अनु०।।१२।। ए अधिकार कह्यो गुण रागे, बैरागे मन लावी । वसुदेव हिंडि तणे अनुसारे, मुनि गुण भावना भावी रे ॥अन ०।१३। मुनि गुण थुणतां भाव विशुद्धे, भव विच्छेदन थावे । पूर्णानंद ईहा थी प्रगटे, साधन-शक्ति जमावे रे ।।अनु० ।।१४।। मुनि गुण गावो भावना भावो, ध्यावो सहज समाधि । रत्नत्रयी एकत्त्वे खेलो, मिटे अनादि उपाधि रे ॥अनु०॥१५॥ राजसागर पाठक उपगारी, ज्ञान धरम दातारी । दीपचंद पाठक खरतर वर, देवचंद सुखकारी रे ॥अनु०॥१६॥ नयर लींबड़ी मांहि रहीने, वाचंयम स्तुति गाई । प्रात्मरसिक श्रोता जन मन में साधन रुचि उपजाई रे ॥अन०।१७। इम उत्तम गुण माला गावो, पावो हरष बधाई । जैन धरम मारग रुचि करता, मंगल लीला सदाई रे ॥अनु०॥१८॥ पाठान्तर-1जय संवत १८२३ वर्षे कार्तिक वदि १३ शुक्रवासरे श्री सूरत वन्दरे श्राविका फूलबाई पठनार्थम् पाठान्तर प्रति-नित्य. मरिण जीवन जैन लाइब्रेरी पत्र ३ नं. १४६ संवत् १८ १४ जेठ सुदि १४ भौ। लिपिकृतं भणशाली श्री पानाचंद कपूरचंद पठनार्थम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम खण्ड [१८५ श्री गज सुकुमाल मुनिनी ढालो (ढाल-१-बंगाल-राजा नही नमे ए देशी) द्वारिका नगरी ऋद्धि समृद्ध, कृष्ण नरेसर भुवन प्रसिद्ध ।चेतन सांभलो। वसुदेव देवकी अंग' सुजात, गज सुकुमाल कुमर विख्यात ।चे०।१।। नयरी परिसर श्री जिनराय, समवसर्या निर्मम निर्माय ।।०।। यादव कुल अवतंस मुरिंणद, नेमिनाथ केवल गुण वृद।चे०॥२॥ त्रिभुवन पति श्री नेम जिणंद, आव्या सुणि हरख्या गोविंद' ।०।। सज सामहियो वंदण काज, हरषे+ वंद्या श्री जिनराज ॥०॥३॥ पाठान्तर-+हरस घटी बांधा जिनराज गुटका इसी गुटके के पृ. ५६ में प्रशस्ति :सं १८ १७ ना वर्षे मिती आश्विन मासे कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथी वार 'शुक्रे श्री उपाध्याय जी श्री देवचंद जी गरिणजी तत् शिष्य वा. श्री मनरूपजी गणि तत् शिष्य पं. रायचंद मुनिनालिखित भणशाली खड़ गोत्रे शाह पानाचंद कपूरचंद पठनार्थम् झवेरीवाड़ा मध्ये राजनगर मध्ये स्तुरस्तु ।। कल्याणमस्तु शुभम् भवतु ॥ श्री १-पुत्र २-कृष्णजी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] श्रीमद् देवचन्द पच पीयूष लघु वय पिणा श्री गज-सकमाल, रूप मनोहर लीला विशाल ।चे०।। वीतराग वंदण अति रंग, सुविवेकी आवें* उछरंग ।।चे०।।४।। समोसरण देखी विकसंत, त्रिकरण जोगें अति हरखंत ।०।।। धन धन मांनेा मन मांहि, गया पाप हैं थयो सनाह' ॥चे०।।५।। कुमरे वंद्या जिनवर पाय, पारणंद लहरी अग न माय ।चे।। नि:कामी प्रभु दीठा जांम, वीसर्या वामा' ने धन धाम ।चे०।।६।। जिन मुख अमृत वयण सुणंत, भाग्यो मिथ्या मोह अनंत ।।चे०॥ दरसण ज्ञान चरम सुख खाण, सुद्धातम जिन तत्व पिछाण ।चे०।७। पर परणिति संयोगी भाव, सर्व विभाव न सुद्ध सुभाव ।चे०॥ द्रव्य करम नो करम उपाधि, बंध हेतु पमुहा सवि व्याधि ॥०॥८॥ तेहथी भिन्न अमूरत रूप, चिन्मय चेतन निज गुण भूपाचे०।। श्रद्धा' भासन थिरता भाव, करतां प्रगटें सुद्ध सुभाव ॥चे०।।६।। नेमि वचन सुरणी वड़वीर, धीर वचन भाखें गंभीर ॥चे०।। देहादिक ए मुझ गुण नाहि, तो किम रहिवु मुझ ए मांहि ?।चे०।१०।। जेह थो बंधाए निज तत्व, तेहथी संग करे कुण सत्व ? ॥०॥ प्रभुजी रहवु करि सुपसाय, हुँ प्रावु माता समझाय ।चे०॥११॥ पाठान्तर-प्राव मांन बजन वंदी रूप पदा रूप - १-सनाथ २-स्त्री ३-श्रद्धा, भासन और स्थिरता करने से प्रात्मा का शुद्ध स्वभाव प्रकट होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ( ढाल २ -- मोरो मन मोह्यौ इरण डूंगरे --ए देशी) माताजी नेमि देशना सुणी रे, मुझ थयूँ आज प्रद मनुज भव प्राज सफलो थयो रे, प्राज सुभ उदय दिणंद | मा० ॥ १२ ॥ देवकी चित्त प्रति गह गही रे, इम कही मधुर मुख वारिण । धन तूं धन्य मति ताहरी रे, जिरण सुरगी नेमि मुख वारिण | | ० | १३| माताजी एह संसार मां रे, सुख तरणो नही लवलेश । वस्तु' गत भाव अवलोकता रे, सर्व संसार कलेश || मा० || १४ || करम थी जनम तनु करम थी रे, कर्म ए सुख दुख मूल । प्रतम धरम नवि ए कदा रे, आज टली मुझ भूल ।। मा० ।। १५॥ नेमि चरणे रही आदरु रे, चरण शिव सुख कंद । विषय विष मुझ हवे नवि गमे रे, सांभर्यु अत्मानंद मा० ।। १६ ।। पुत्र माताजी अनुमति प्रापीय रे, हवे मुझ इम न रहाय । एक खि अविरति दोषनी रे, वातड़ी वचने न कहाय | मा० ॥ १७॥ मोह वस बोलती देवकी रे, विलपती' इम कहै वात । तुझ विरह मुझ न सुहात ॥ मा० | १८ || ते ए किस्य भाखीयुं रे, १ - वस्तु स्वरूप को देखते हुए । [ Jain Educationa International १८७ २ - विलाप करती हुई । For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] बीमद् देवचन्द्र पक्ष पीयूष . वच्छ संजम अति दोहिल रे, तोलवो मेरु इक हाथ । प्राण जीवन मुझ वालहो रे, माहरे तूंहिज अाथ ।।मा०।।१६।। मात तुमे श्राविका नेमि नी रे, तुम्ह थी एम न कहाय । मोक्ष सुख हेतु संयम तणो रे, किम करो मात अंतराय ॥मा०।।२०।। वच्छ मुनिभाव दुःकर घणो रे, जीपवो' मोह भूपाल । विषय सेना सहु वारवी रे, तुम्हे छो बाल सुकुमाल ।।मा०॥२१॥ माताजी' निजधर प्रांगण रे, बालक रमै निरबीह । तिम मुझ आतम धरम में रे, रमण करतां किसी बीह ।।मा०।२२।। मोह विष सहित जे वचनड़ा रे, ते हवैं मुझ न छिबंत । परम गुरु वचन अमृत थकी रे, हुं थयो उपशम वंत ।मा०॥२३।। भव* तणो फंदहवे भांजवो रे, जीतवो मोह परि वृद । आत्मानंद पाराधवो रे, साधवो मोक्ष सुख कंद मा०।२४।। नेमि थकी कोई अधिको जो हवें रे, तो मानीये तास वचन रे। मातजी कांइ नवि भाखीये रे, माहरू संजमें मन ।।मा०॥२५॥ (ढाल ३-धन धन साधु शिरोमणि ढंढरणो, ए देशी) धन धन जे मूनिवर ध्याने रम्यां रे, समता सागर उपशमवंत रे । विषय कषाये जे नडीया नहीं रे, साधक परमारथ सुमहंत रे ।ध०।२६। १-मोहराजा को जीतना २-मोहराजा की विषय रूपी सोना ३-जैसे अपने घर के प्रांगण में बच्चा निर्भीक खेलता है वैसे ही आत्म धर्म में रमण करते हुए मुझे क्या डर है। ४-संसार के मूल को नष्ट करता है। ५-मोहरिपु को जीतना है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ जादव पति परिवारे परिवरयो रे, नेमि चरणे पुहतो गज सुकुमाल रे । मात पिता प्रिते वहोरावता रे, नंदन बाल मनोहर चाल रे ।ध०।२७। प्रभु मुखे सख'-विरति अंगीकरी रे, मूकी सख अनादि उपाधि रे। पूछे स्वामी कहो किम नीपजे रे, मुझने वहली सिद्ध समाधि रे ।ध०।२८। प्रभु भाखें निज सत्वे एकता रे, उदय अव्यापकता परिणाम रे । संवर वृद्धे वाधे निर्जरा रे, लघु काले लहिये शिवधामरे ।ध०।।२६।। एक रात्रि पडिमा तुम्हे प्रादरो रे, धरजो प्रातम भावः सुधीर रे । समता सिंधु मुनिवर तिम करे रे, सिवपद साधवा वड़ बीर रे ।ध०।३०। सिर ऊपर सगडी सोमिलें करी रे, समता सीतल गज सुकुमाल रे । क्षमा नीरें नवराव्यो प्रातमारे, स्यु दाझे छे तेहनो नहीं ख्यालरोध.।३१। दहन धर्म ते दाझे अगणि थी रे, हुंतो परम प्रदाह्य अग्रह्य रे । जे दाझे छे तेह महारु नहीं रे, अक्षय चिनमय तत्व प्रवाह रे ।ध०।३२॥ क्षपक -सेणि ध्याने पारोहिने रे, पुद्गल आतमनो भिन्न भाव रे । निजगुण अनुभव वलि एकाग्रता रे, भजतां कीधो कर्म अभाव रेंध.।३३। - १-सर्वविरति-साधु धर्म। २-एक रात का अभिग्रह धारण करो ३-जो जलने के स्वभाव वाली है, वह आग से जलता है, में तो आदाह्य हैं। ४-क्षपक श्रेरिण द्वारा ध्यान में चढ़ते हुए, आत्मा और शरीर की भिन्नता का अनुभव करते हुए। ४-अपने गुरणों की रमणता से कर्मों का अभाव किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीमद् देवचंद पद्य पीयूष निर्मल ध्याने तत्व अभेदता रे, निर विकल्प ध्याने तदरुप रे । घाती'विलये निज गुण उलस्या रे, निर्मल केवल आदि अनूप रोध.। ३४। थयो अयोगी शैलेसी'करी रे, टाल्यो सर्व संजोगी भाव रे । अातम प्रातम रूपे परिणम्यो रे, प्रगटयो पूरण वस्तु स्वभाव रे ।ध.।३५। सहज अकृत्रिम वलि असंगता रे, निरुप (म) चरित वलि निरद्वंद रे। निरुपम अव्या बाध सुखी थया रे, श्री गज सुकुमाल मुनिंद रे ।ध.।३६। नित प्रति एहवा मुनि संभारीये रे, धरीये एहिज मनमाही ध्यान रे । इच्छा कीजे ए मुनि भावनीरे, जिम लहीये अनुभव परम निधान रोध.।३७ खरतर गच्छ पाठक दीपचंद नो रे, देवचंद वंदे मुनिराय रे ।। सकल संघ सुख कारण साधु जी रे, भव भव होजो सुगुरु सहायरे।ध.।३८। गहूली हाल-स्वामी सीमंधरा ! वीनति, ए देशी शासननायक वीर नो, गणधर गौतम स्वाम रे । शील शिरोमणी तेहनो, शिष्य ज अभिराम रे ।।शा०॥१॥ वीर जिन वचन त्रिपदी लही, जेणेकर्या द्वादश अंग रें। दुःषम काल में जेहनो, विस्तयों तीर्थ अति चंग रे ॥शा०॥२॥ १-चार छातीकर्म-ज्ञानावरणीय, दशनावरणीय मोहनीय और अन्तराय के क्षय से केबलज्ञान प्राप्त किया। २-शैलेशी करण-जिसमें प्रात्मा मेरु की तरह निश्चल, निष्प्रकंप बन जाता है। स्वरूपस्थ हो जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम खण्ड । १६१ प्रथम' वायण दिने गुहली, करी इंद्राणीए सार रे । शासन संघ मंगल भणी, इम करे श्राविका सार रे ॥शा०॥३॥ साथियो' मंगल पूरणो, चूरणो विघन मिथ्यात रे । सधवा सहियर सवि मली, मुख थको मुनि गुण गात रे ॥शा०।।४।। आगम आगमधर भणी, वधावानी वाधते ढाल रे । विच विच लेत उवारणा, हर्षती बाल गोपाल रे ।।शा०॥५॥ जे सुणे सूत्र भगते करी, तेहनो जन्म कयत्थ रे । माहरे भवोभव नित हजो, देवचन्द्र श्रुत सत्थ रे ॥शा०।।६।। सम्मेत शिखर स्तवन श्री सम्मेत गिरीन्द, हर्ष धरी वंदो रे भविका । पूरव संचित पाप तुमे निकंदो रे भविका । जिन कल्याणक थानक देखी पाणंदो रे भविका श्रिी. टेक। अजितादिक दस जिनवरू रे, विमलादिक नव नाथ । पार्श्वनाथ भगवानजी रे इहांलया शिवपुर साध रे ।।भ० श्री।।१।। कल्याणक प्रभू एकनु रे, थाये ते शुचि ठाम । वीस जिनेश्वर शिवलह्या रे तेणे ए गिरि अभिराम रे ।।भ० श्री।।२।। १-पहली वाचना के दिन । २-मिथ्यात्त्वरुपी विध्न को चूरनेवाला मांगलिक साथिया हैं। ३-कृतार्थ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द पद्य पीयूष सिद्धथया इण गिरिवरे रे, गणधर मुनिवर कोड़ि / गुण गावे ए तीर्थ ना रे, सुरवर होड़ा होड़ि रे ।।भ 0 श्री।।३॥ परमेश्वर नामे अछे रे, वीसे टूक उत्तुंग / चरण कमल जिनराजना रे, सुर पूजे मनरंग रे ॥भ० श्री।।४।। भाव सहित भेट्यो जिणे रे, गिरिवर ए गुरण गेह / .. जिन तन फरसी भूमिका रे, फरसे धन्य नर तेह रे ॥भ० श्री।।५।। नाम थापना के सही रे, द्रव्य भावनो हेत। संशय तजी सेवो तुमे रे, ठवणा तीर्थ सम्मेत रे ॥भ० श्री॥६॥ तीरथ दीठे सांभरे रे, देवचन्द्र जिन वीस / / शुद्धाशय तन्मय थई रे, सेव्या परम जगदीस रे ॥भ० श्री।।७।। Jain Educationa International For 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