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[ सैंतीस ]
आपके ग्रन्थ समभाव, सम्यकत्व, श्रद्धा को मजबूत करते हुए शुद्ध आत्मदशा का भान कराते हैं । यही कारण है कि श्रीमद् अपने सद् विचारों के कारण सर्वत्र व्याप्त हैं ।
श्रीमद् की महान् प्राध्यात्मिकता का एक प्रमाण यह भी है कि तथाकथित अध्यात्मवादियों की तरह उन्होंने अमुक क्रिया या मान्यता में ही मुक्ति नहीं मानी । मुक्ति के लिये हमेशा 'समभाव' की आवश्यकता पर बल दिया। ऐसे महात्मा यदि सभी जैनों के प्रिय बनें, तो कोई आश्चर्य नहीं है ।
उनके ग्रन्थ का एक एक शब्द उनका प्राध्यात्मिकता, उदारता, उच्चप्रात्मदशा एवं योगनिष्ठा का साक्षी है। शुद्ध आत्मज्ञान के विषय में इतने सारे ग्रन्थों के रूप में जैनसमाज को जो अमूल्य भेंट आपने दी, उसके लिये समाज सदा-सर्वदा आपका ऋणी रहेगा ।
पुण्य प्रभाव
धम्मो मंगल मुक्किट्ट, अहिंसा संजमो तवो । देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ।।
जिस के हृदय में हिंसा संयम और तप रूप धर्म की वास्तविक प्रतिष्ठा हो जाती है उनके सामने स्वयं देवता झुक जाते हैं । उनकीं वारणो में, उनके वर्त्तन में स्वयं चमत्कार ( Miracles) प्रगट हो जाते हैं । सतत आत्म साधना के फलस्वरूप उनके जीवन में स्वतः कुछ अलौकिक शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं । श्रीमद् के जीवन में भी उनके उत्कृष्ट त्याग, संयम, ब्रह्मचर्य एवं सतत आत्म-साधना के पुण्य प्रभाव से कुछ अलौकिक शक्तियाँ, असाधारण साहस एवं अपूर्व वैराग्यभाव प्रकट हो गया था । साधारण लोगों की भाषा में भले उन्हें चमत्कार मानलें, किन्तु वास्तव में वे उनकी उच्च आत्मदशा के ही पुण्यप्रभाव सूचक हैं ।
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