SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ तिरासी ] कि उनका शास्त्रज्ञान, आत्मज्ञान के रुप में परिणित हुआ था । यही कारण है कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ साधलिया था' । शुष्कज्ञान या जड़ क्रिया कभी भी आत्म साधक नहीं बन सकती इसे बात का सटीक प्रतिपादन करने के साथ आपने अपने जीवन में ज्ञान और क्रिया को उचित अवकाश दिया । उनकी पूर्ण विश्वास था कि क्रिया के सम्यक् प्रवर्तन के लिए ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञान की परिपक्वता के लिए सम्यक् क्रिया की श्रावश्यकता है । श्रीमद् ने अपने शास्त्रज्ञान को देव गुरू की सेवा और भक्ति, शुद्ध संयम का पालन, उपदेशप्रवृत्ति, संघ और शासन की सुरक्षा एवं ग्रन्थ रचना श्रादि शुभ कार्यो के द्वारा आत्मज्ञान के रूप में परिणत किया था । प्रापने गांव गांव में विचरणकर तीर्थयात्रा, धर्मं प्रभावना यादि के साथ चतुविध श्रीसंघ को तत्व ज्ञान का उदारहृदय से दान देकर प्रात्म कल्याण की सच्ची राह बताई थी। इस प्रकार वे विश्वय की तरफ पूर्ण लक्ष्य रखते हुए। सच्चे ज्ञानयोगी एवं सच्चे कर्मयोगी महात्मा थे। श्रीमद् श्रात्मसाधने के साथ अपने समय के संघ व शासन के सजग ग्रहसे थे। आपने तत्कालीन संघ की हीन दशा को सुधारने का अपना उत्तरवि यथाशक्य निभाया था । श्रीमंद के समय में समाज में तत्वज्ञान की रूचि कम थी। साधुओं को स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी । श्रात्म ज्ञानी और - आचार्यं बुद्धिसागर सूरी जी ने 'श्रीमद् देवचन्द्र भाग दो की प्रस्तावना में तथा करजी ने 'देवचन्द्र जी का जीवन' पृ० ८८ में इस बात की सही माना कि श्रीमद् एकावतारी हैं और अभी केवल ज्ञानी के रूप में महाविदेह में विचरण रहे हैं ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy