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प्रथम खण्ड
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(३) ढाल-- गउड़ी, धन-धन सुरनरपति तती ए देशी वीर विहारें विचरता, करता जग कु साता जी।
चरण सोवन कज' थापता, जगवच्छल जगत्राता जी । – टक- त्राता अनादि विभाव दुख के, अावीया पावापुरी
जिनराज आगम हरख पाम्या, भव्य केकी-हित धरी धन्य पुहवी धन्य वन सो, धन्य जनपद पूरसही श्री वीर नायक चरण फरसन, भई पावन या मही ।।१।। इन्द्रादिक ग्रागलिं चलें, भगतें जय जय कहतें जी।
छात्र सिंहासन चमरस्यों, इंद्रध्वजलेई बहते जी ।। बटक- वहती जे अागलि देव कोड़ी धर्म चक्र देखावती
नर तिरिय व्यंतर असुर किन्नर अपछरा गुण गावती। निज कार्यकरणी श्रमगा श्रमगणी ग्रातम तत्व निपावती। द्रुम श्रेणी ऊभी उभय पासे नाथ पद शिर नामती ।।२।। गगन पंखी गण उडता, करता प्रदक्षिणा रंगें जी
पूठि पवन अनुकूलता, हरतां ईति प्रसंगे जी टक- सहजें सुगंधित नीर वरसें पूष्प वृष्टि चिह दिसे
कंटक अधोमुख कहें जिनतें भाव कंटक सवि नसें जय जय कहती सुरि नचंती देव दुदुभि रणझगणे देवाधिदेवा करौ सेवा तत्त्वरुचि जननें भणें ।।३।।
-कमल
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