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________________ ३० ] श्रीमद् देवचन्द्र पद्यापीयूष पावन करता : भूतले, मिश्यातिमिरा - हरंता (जी) विषय विर्षे मूर्छित भणी, देसना अमृत झरंता जी त्र टक- तारता “जनकू भंवोदधि थी परम पूरण गुण निहीं गजराज गति जिनराज पावापरसरें आव्या वहीं थई । वधाई नगर सगले सुजन बहु साम्हें वहें वर पुष्प मुगताफल वधावी सकल मंगल सुख त्नहैं ।।४।। ढाल-- ग्रायाजी मुनिपति नरपति हस्तिपाल घर पाया . पायाजी सुरमणि सुरतरू अधिक महोदय पाया बंद्याजी अति प्रमुदित भूपत्ति त्रिभुवन तारक राया । ठायाजी तसू, दर्शित वसिते दारण सभा सुखदाया ।।१॥ धन धन ते थानक जसु भीतर वीर परम गुरु ठाया । छत्र त्रय चामर तति सोभित सिंहासन - सूथपाया . व टक- मंदार कुस में प्रभुवधाया मन रमाया सनि गणें ... चिरकाल जीवो जगत दीवो तरण तारण इम . थुगौं ।।२।। चौमासी जी वर्द्ध मान. जिन तिहां रह्या .... विधि सेती जी नव . नव अभिग्रह मुनि. ग्रह्या परदेशी जी. श्रोता, जन ग्राव्या वही , प्रभु वचनें जी तत्त्व = ग्रहैं - ते गहगही ... वटक- गह गही थतरस...अमृत पीता यातम समता भावता परभाव परणति दूर वमता सुमति रमणी रमावता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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