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श्रीमद् देवचन्द्र पद्यापीयूष
पावन करता : भूतले, मिश्यातिमिरा - हरंता (जी)
विषय विर्षे मूर्छित भणी, देसना अमृत झरंता जी त्र टक- तारता “जनकू भंवोदधि थी परम पूरण गुण निहीं
गजराज गति जिनराज पावापरसरें आव्या वहीं थई । वधाई नगर सगले सुजन बहु साम्हें वहें वर पुष्प मुगताफल वधावी सकल मंगल सुख त्नहैं ।।४।।
ढाल--
ग्रायाजी मुनिपति नरपति हस्तिपाल घर पाया . पायाजी सुरमणि सुरतरू अधिक महोदय पाया बंद्याजी अति प्रमुदित भूपत्ति त्रिभुवन तारक राया । ठायाजी तसू, दर्शित वसिते दारण सभा सुखदाया ।।१॥ धन धन ते थानक जसु भीतर वीर परम गुरु ठाया ।
छत्र त्रय चामर तति सोभित सिंहासन - सूथपाया . व टक- मंदार कुस में प्रभुवधाया मन रमाया सनि गणें ...
चिरकाल जीवो जगत दीवो तरण तारण इम . थुगौं ।।२।। चौमासी जी वर्द्ध मान. जिन तिहां रह्या .... विधि सेती जी नव . नव अभिग्रह मुनि. ग्रह्या
परदेशी जी. श्रोता, जन ग्राव्या वही , प्रभु वचनें जी तत्त्व = ग्रहैं - ते गहगही ... वटक- गह गही थतरस...अमृत पीता यातम समता भावता
परभाव परणति दूर वमता सुमति रमणी रमावता
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