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________________ भूमिका स्वानुभव जैन धर्म का गुरण है । यह दर्शन संकल्प का है फिर भी उसमें भक्ति का स्थान है। जैन धर्म विश्व धर्म बनने का सर्व गुणों से विभूषित है । जगत् के समस्त जीवों में मानव प्रधान है। इसी कारण मानव देह की प्रतिष्ठा है । केवल आत्म तत्व पर निर्भर धर्म देह की महत्ता को स्वीकार करता है । फिर भी महापुरुषों आत्मा और देह की भिन्नता को प्रभेद माना है । स्व संवेदन द्वारा स्वयं की बाह्य प्रवृतियों से परे होकर महापुरुषों ने अन्तर मानन्द को ढूँढ़ कर, जानकर और संसार के कल्याण के लिए शुद्ध स्वरूप से विश्व में प्रचारित किया था । आत्मा की पुष्टि के लिए परम पुरुषों ने अभिव्यक्त की वारणी अनन्त धर्मों ने स्याद्वाद द्वारा समझाई है । अनन्त धर्म से व्याप्त भावों से भरी हुई व्यक्ति के जीवन में वात्सल्य, करूणा आदि सहज भाव से प्रकट होती है । ग्रन्य जीवों को स्व-स्वरूप समझ सकते हैं, इसलिए इसके आचरण में अहिंसा का दर्शन सरलता से देखने को मिलता है। इस कारण से उच्च पुरुषों के सानिध्य में स्व-ज्योति को प्रकट कर प्रात्मिक उत्थान में गति करते हैं और अन्त में मोक्ष गामी बनते हैं । श्रात्म तत्व परमार्थिक दृष्टि से समान है । कर्म-जन्य न्यूनाधिक दृष्टि गोचर होती है। ज्ञान प्रादि रत्नत्रय की रमरणता का मुख्य लक्ष्य वहाँ तक रहता है जहाँ तक आत्म निष्पत्ति की प्राप्ति न हो इन्द्रिय भोगों का रोध प्रभु की मूर्ति से होता है इसलिए जिनेश्वर भगवान् की पूजा स्व की पूजा है । इसी कारण श्रागम और मूर्ति को परम प्रलंबन माना है। अविद्या को दूर करने का यह एक अमोघ उपाय है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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