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[ दो ] इसीलिए दर्शन कारों ने भगवान् को स्वामी माना है। स्वामी और सेवक के भाव को स्थान दिया है। आत्म तत्व समान होने के कारण सुन्दर प्रौर श्रेष्ट योग से आत्मा में उन्हीं गुणों का प्रकटिकरण होता है। .....
विश्व के प्रत्येक धर्म में प्रभु और गुरु उच्च स्थान में हैं। जहाँ तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो वहाँ तक इनको छोड़ना नहीं चाहिए। परम कारुणिक प्रभु की धर्म सरिता निर्मल होती है। सर्ब की निर्मलता मात्र ही उनका हेतु है। भौतिकता के उच्च शिखर पर चाहे विश्व प्राज आनन्द मानता हो परन्तु अन्तर का जो आनन्द है वह बाह्य खोज करने से नहीं मिलता। सम्पन्न पुरुष भी विश्व में शान्ति के लिए भटकता है। इसमे ज्ञान होता है कि भौतिक पदार्थों में सच्ची शान्ति उपलब्ध नहीं - होती। कारण शान्ति देना उनके स्वभाव में ही नहीं है। अंत: सच्ची आत्मिक शान्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। कर्म प्रवेश द्वारा समान इन्द्रियों को बाह्य योग से निकाल कर अन्तर में स्थिर करनी चाहिए। राग, द्वेष, मोह एवं विषय कषाय से दूर होकर मन को जीतकर केवल दृष्टा भाव से कर्मो के फल का आस्वादन लेना चाहिए। जिससे उदासीन वृति के कारण आत्मा पर कर्म के वर्गणा नहीं लगती। संवर और निर्जरा निरन्तर चालू रहती है, परिणाम स्वरूप पुराने कर्म उदय को प्राप्त होते ही बिखर जाते हैं। इसी प्रक्रिया से आत्मा को आनन्द का अनुभव होता है। निरन्तर इस प्रक्रिया से प्रात्मा का निस्तार सहज भाव से स्वयं होता है।
___सर्वज्ञ कथित वाणी यद्यपि ज्ञान भण्ड रों में पुस्तक रूप में दिखाई देती है और इन पवित्र ग्रन्थों का रक्षण करने वाले सब यश के भागी हैं। स्व ज्ञान का उपयोग सुन्दर ग्रन्थों की रचना द्वारा अपनी विशाल शक्ति का परिचय अल्प आत्माओं को ज्ञानी जन दे गये हैं। इस अमूल्य लाभ को प्राप्त करने वाले हम उन ज्ञानी पुरुषों के
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