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ज्ञानोपासना और संयमसाधना
सदगुरु और शिल्पी दोनों एक समान होते हैं। शिल्पी एक अनघड़ पत्थर को काट-छीलकर उसे सुन्दर मूर्ति का रूप प्रदान कर देता हैं। वैसे सद्गुरु भी ज्ञानध्यान, तप और त्याग की छेनी से तराश कर शिष्य के जीवन का नव निर्माण कर देता है । यहि कारण है कि गुरु की महिमा प्रभु से भी अधिक बताई है । कबीर के शब्दों में
[ सौलह ]
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'गुरु गोविन्द दोनों खड़े का के लागू पाय । बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय' ॥
केवल दीक्षा देने मात्र से कुछ नहीं होता, उसके साथ आवश्यक है शिक्षा देना । श्रीमद् के गुरु इस तथ्य से भली भाँति परिचित थे । श्रीमद् के रूप में तो उन्हें एक कोह-ए-नूर मिला था । आवश्यकता थी उसे निखारने की, उनकी अनंत आभा को उजागर करने की ।
श्रीमद् कुशाग्र बुद्धि वाले तो थे ही साथ ही बड़े अध्ययनशील थे । अपने गुरुके प्रति भी उनके हृदय में अनन्य श्रद्धा, प्रगाधभक्ति एवं सहज विनयभाव था । अतः वाचक राजसागर जी, पाठक ज्ञानधर्म जी एवं दीपचन्द्रजी ने प्रसन्न हो मुक्त हृदय 'से प्रापको ज्ञानदान दिया । मां भारती की असीमकृपा, ज्ञानदाता गुरुजनों की लगन, अपनी तीव्र बुद्धि एवं अध्ययननिष्ठा के कारण अल्प समय में आप व्याकरणः काव्य-कोष, छन्द अलंकार, न्याय-दर्शन; ज्योतिष कर्म साहित्य एवं आगमसाहित्य के तलस्पर्शी अध्येता एवं व्याख्याता बन गये । ज्ञानोपासना की तीव्रता में श्रापने दिगम्बर ग्रन्थों को भी अछूता नहीं घोड़ा था । आपकी विद्वत्ता का वर्णन करते हुए कवियर कहते हैं
" सकल शास्त्र लायक थया हो, मंइ सुइ ज्ञान रे ॥
जहने
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