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[पचासी] के लिए यही शोभनीय होता है । म्याद्वादी सदी परमत सहिष्णु होता है । क्रिया जन्य मतभेदों के अन्दर रहे हुए पात्मज्ञान का दर्शक होता है । श्रीमद् ने अपने प्रभु स्तवनों में स्याद्वाददशा की प्राप्ति की सुन्दर याचना की है।
"वीनती मानजो, शक्ति ए प्रापजो
भाव स्याद वादता शुद्ध भासे" महात्मा आनन्दघन जी की तरह श्रीमद् ने उन तथाकथित अध्यात्म शानियों को, पू. उपाध्यायजी यशोविजय जो की तरह कसकर चाबुक तो नहीं लगाई किन्तु विनम्र शब्दों में असर कारक शिक्षा अवश्य दी है।
'गच्छ कदाग्रह साचवें, माने धर्म प्रसिद्ध। असम गुण अकषायता, धर्म न जाणे शुद्ध ।। . तत्वरसिके जर्ने थोड़ला रे; बहलो जन सम्वाद। जारणी छो जिनराजे जी रे, संघलों एह विवाद रें।।
. चन्द्रानन जिन. श्रीमद् का सर्वगच्छं समभाव केवलं वाचिक ही नहीं था किन्तु व्यावहारिक था। उन्होंने तत्कालीन शिथिलाचार के विरुद्ध संवेगी साधुजनों को संगठित होने का आव्हान किया था। जैन मंध में एकता स्थापित करने का यथाशक्य प्रयत्न किया था। धर्मसागर जी द्वारा समाज में जो कटुता पैदा की गई थी उसे आपने यथाशक्य धो डालने का प्रयास किया था । यही कारण है कि तत्कालीन सभी संवेगी मुनिभगवन्त ज्ञानविमलसूरिजी, क्षमाविजयजी आदि के साथ आपका अच्छा स्नेह संबंध था । जिनविजयजी, उत्तमविजयजी एवं विवेकविजयजी के जीवन को तेजस्वी बनाने में प्रापका पूरा पूरा सहयोग रहा । अतः सभी गच्छवालों के लिए आप श्रद्धापात्र थे
और आज भी हैं । श्रीमद् की एक ही इच्छा रहती थी की सभी प्रात्मा तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर प्रभु के सच्चे अनुयायी बनें ।
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