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[ चालीस उपाध्यायपद और स्वर्गवास
संवत् १८१२ (गुजराती मं० १८१२) में आप राजनगर पधारे। आपकी विद्वता, संयमशीलता एवं प्रभावकता आदि गुणों से आकर्षित हो गच्छनायक श्री जिनलाभसुरिजी ने आपको बहुमानपूर्वक 'उपाध्यायपद' दिया।
वस्तुतः श्रीमद् जैसे ज्ञान-समर्पित, ज्ञानरसलीन महापुरुषों के कारण ही उपाध्यायपद की गरिमा अक्षुण्ण है। वहां के श्रावकों ने बड़े ठाट से आपका पद महोत्सव किया। इस वर्ष का आपका चातुर्मास संघ के प्राग्रह से अहमदाबाद में ही हुआ। आप दोसोवाड़ा की पोल में बिराजे थे। आपकी भव्य देशना सुनकर सैंकड़ों लोग धर्मप्रेमी एवं अध्यात्मप्रेमी बने थे।
श्रीमद् केवल वाचिक आत्मज्ञानी नहीं थे, किन्तु शास्त्राध्ययन, परमात्मभक्ति, गुरुसेवा एवं उत्कृष्ट संयमपालन द्वारा उनमें आत्मज्ञान की परिणति हुई थी। विषय राग बिल्कुल खत्म ह गया था। फलतः उन्हें साधुदशा के सच्चे आनन्द का अनुभव हुआ था। वे केवल शुष्कज्ञानी ही नहीं थे किन्तु ज्ञान और क्रिया के अद्भुत संगम थे। शुद्धज्ञान और निश्चयानुलक्षी व्यवहार द्वारा अन्तर और बाह्यजीवन दोनों का पूर्ण विकास करते हुए उन्होंने अपने आपको कृतकृत्य बनाया था। उनके जीवन में किसी भी प्रकार का कदाग्रह नहीं था, बस 'सच्चा सो मेरा' यही आपका जीवन-सूत्र था। यही कारण था कि स्वगच्छ और परगच्छ दोनों में आपका असीम आदर और सम्मान था । अाज भी आपके ग्रंथों को अध्यात्मप्रेमी प्रात्मा बड़े आदर और प्रेम से पढ़ते हैं, उनका चिन्तन और मनन करते हैं। ऐसे महापुरुषों की संघ, शासन और समाज को सदा ही आवश्यकता हैं।
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