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[ इक्तालीस ] एक दिन अचानक आपके शरीर में वायु का प्रकोप हो गया। वमन गैरह होने लगे। धीरे धीरे व्याधि बढ़ती गई। किन्तु शुद्धोपयोग में रमण करने ले उन महापुरुष को मानसिक कोई असमाधि नहीं थी। 'सर्वअनित्यम्' का रन्तर चिन्तन करने वाले उन आत्मज्ञानी सन्त को शरीर का मोह या मृत्यु का य लेशमात्र भी नहीं था। जिसने अपने जीवन के पचपन पचपन वर्ष, ज्ञानोपयोग, त्मिध्यान, चारित्रपालन देव-गुरु की भक्ति एवं आत्मसमाधि में बिताये हों नका समाधिमरण हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। श्रीमद् को अपनी मृत्यु का वाभास हो गया था अतः सर्वं संग-परिग्रह एवं बाह्य प्रवृत्तिों का सर्वथा त्यागकर त्मिध्यान में मग्न हो गये
अरिहंते शरणं पवज्जामि............ सिद्धे शरणं पवज्जामि........... साहू शरणं पवज्जामि............ केवलोपन्नत्तं धम्मं शरणं पवज्जामि............
इन चार-शरण को स्वीकार करते हुए जगत् जीवों के साथ भावपूर्वक मा-याचमा करते हुए संवत् १८१२ (गुजराती संवत् १८११) की भादवा वदी ३० की रात में समाधिपूर्वक इस नश्वर शरीर का त्याग कर सद्गति के भागी बने । आपके स्वर्गवास के समाचार सुनकर देशभर की जैन समाज को बड़ा दुख हुआ केन्तु “जन्म के साथ मृत्यु लगी हुई है" यह सोचकर सभी को शान्ति रखनी पड़ी।
सभी गच्छ के श्रावकों ने मिलकर बड़े उत्सवपूर्वक किन्तु दुखी हृदय से मापके पवित्र देह का अग्नि संस्कार किया जैसा कि कवियण ने कहा है
मोटे आडंबरे मांडवी, चौरासी गच्छ ना हो श्रावक मल्या वृन्द । अगरचंद ने काष्ठेभली, चिता रचिता हो महाजन मुखवंद ।।
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