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________________ [बयालीस ] श्रीमद् के प्रत्यक्ष दर्शन एवं उनके पवित्र चरणों के स्पर्श का सौभाग्य क्रूरकाल ने छीन लिया था अतः श्रावक संघ ने अपनी सान्त्वना एवं गुरुभक्ति के लिये एक स्तूप बनाकर प्रतीकरूप आपकी चरणपादुकाओं की उसमें स्थापना की थी। अभी यह चरण पादुका अहमदाबाद के हरीपुरे के मन्दिर के सामने उपाश्रय के मकान में है। उस पर यह लेख है। 'श्री जिनचन्द्र सूरि शाखायां खरतरगच्छे संवत् १८१२ वर्षे माह वदी ६ दिने उपाध्याय श्री दीपचन्द्रजी शिष्य उपाध्याय श्री देवचन्द्रजीनां पादुके प्रतिष्ठिते ।" श्रीमद् ने अन्तिम समय अपने शिष्यों को जो उपदेश दिया वह मार्मिक होने के साथ ही इस बात का परिचायक है कि- वे निरे अध्यात्मिक ही नहीं थे किन्तु अपने आश्रितों के प्रति उन्हें अपने गुरुपद का पूर्ण कर्त्तव्यबोध भी था। 'पग प्रमाणे सोडि ताणज्यो, श्री संघनी हो धरज्यो तमे प्राण। वहिज्यो सूरिजी नी आज्ञा, सूत्र शास्त्रे हो तुमे धरज्यो ज्ञान । अपने आश्रितों के भावी के प्रति वे कितने जागरूक थे। इन पंक्तियों के चिन्तन और मनन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आप संघ और गुरु दोनों की आज्ञा को बड़ा महत्व देते थे। जहाँ आपने शिष्यों को शास्त्राज्ञा के वफादार रहने की बात कही वहाँ देश, काल और भाव को भी महत्व देने की शिक्षा दी। अपने शिष्य प्रशिष्य परिवार के संयम जीवन के निर्वाह का उत्तरदायित्व अपने बड़े एवं सुयोग्य शिष्य मनरूपजी को सौंपते हुए आपने जो हृदयस्पर्शी वात्सल्यपूर्ण उद्गार निकाले वे अत्यन्त श्लाघनीय हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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