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[ सैयालीस ] "तुम समरथ छो मुझ पूठे, मुझ चिंता हो नास्ति लवलेश । सपरिवार ए ताहरे खोले छे, हो मूक्या सुविशेष ।। सकल शिष्य भेला करी, गुरुजीये हो सहुने थाप्यो हाथ । प्रयाण अवस्था अम तरणी, वाणी केहवी हो जेहवो गंगापाथ ॥
यदि आज का साधु समुदाय श्रीमद् के अन्तिम उपदेश की ओर जरा भी ध्यान दें तो आज संघ व शासन में अहंभाव और ममत्वभाव का जो विष घुल रहा है, वह घुलना बन्द हो जाय और सर्वत्र समभाव प्रतिष्ठित हो जाय।
श्रीमद् का शिष्य-परिवार :
___ आत्मज्ञानी संतों को शिष्यों का भी मोह नहीं होता। उनको दशा के योग्य कोई प्रात्मा मिल जाय तो वे उसकी संयम-साधना में अवश्य सहायक बन जाते हैं।
श्रीमद् के मनरूपजी और विजयचन्दजी नामक दो शिष्य थे। दोनों ही सुयोग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य थे। मनरूपजी बड़े ही विद्वान विचक्षण एवं संयमी थे। विजयचन्द्रजो ताकिक एवं वादीविजेता थे।
मनरूपजी के वक्तुजा और रामचन्द्रजी तथा विजयचन्द्रजी के रूपचन्द्रजी एवं सभाचन्दजी नामक दो-दो शिष्य थे।
मनरूपजी तो श्रीमद् के स्वर्गवास के थोड़े दिन बाद ही स्वर्गवासी हो गये थे। मानो गुरुभक्त शिष्य अपने गुरु के वियोग को अधिक दिन तक सह न पाये हों, और शीघ्र ही गुरु से मिलने चले गये हों। मनरूपजी के पीछे उनके द्वितीय शिष्य रायचन्द्रजी भी अच्छे वक्ता और संयमो थे इससे अधिक आपके शिष्य-परिवार के विषय में कोई वर्णन नहीं मिलता।
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