________________
[अट्ठाईस] "एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में भी प्राध ।
तुलसी संगत साधु की, कटै कोटि अपराध ।।" श्रीमद् के सत्संग से भण्डारीजी में धर्म की जागृति हई। नित्य जिन-पूजनादि करने लगे तथा धार्मिक कार्यों में सेवा सहयोग करते हुए सोत्साह भाग लेने लगे। शासक वर्ग को धर्म प्रेमी बनाना धार्मिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण बात है।
चातुर्मास बाद विहारकर आप धोलका पधारे। वहाँ के निवासी सेठ श्री जयचन्द्रजी ने पुरुषोत्तम नामक योगी से आपका परिचय कराया। श्रीमद् ने भी उसे धर्म का सही स्वरूप बताकर जैन धर्मानुरागी बनाया। ___ यह पहले ही कहा जा चुका है कि श्रीमद् की शत्रुजय तीर्थ के प्रति अपूर्व भक्ति थी। वहाँ अपने उपदेश देकर, मन्दिर निर्माण, जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठादि के महान् कार्य किए थे। संवत् १७६५ में आप पालीताणा पधारे। इस बात को पुष्टि वहाँ के एक शिलालेख से भी होती है। “१७६४ (गुजराती) शक १६५८ असाढ़ सुदी १० रविवार (राजस्थानी संवत् १९८५) प्रोसवंश' वृद्ध शाखा नाडूल गोत्र के भण्डारी भीनाजी के पुत्र भण्डारी नारायणजी के पुत्र भण्डारी ताराचन्दजी के पुत्र भण्डारी रूपचन्दजी के पुत्र भण्डारी शिवचन्द के पुत्र हरख चन्द ने इस देवालय का जीर्णोद्धार कराया और पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा अर्पण करी। बृहत् खरतरगच्छ के जिनचन्दसूरि के विजयराज्य में महोपाध्याय राजमागरजी के शिष्य उपाध्याय दापचन्द्रजी के शिष्य पण्डित देवचन्द्र ने प्रतिष्ठा करी।"
१-धीपावसी के एक देवालय के बाहर यह लेख है। डॉ. वूल्हर ने इसका नं. ३६
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org