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[ उनसठ ] श्रत भावना का वर्णन करते हुए सर्व प्रथम "श्रुत अभ्यास करो मुनिवर सदा रे” कहकर निरन्तर ज्ञानाभ्यास की सुन्दर प्रेरणा दी है। "पंचमकाले श्रुतबल पण घटयो रे,
तो पण ए आधार । 'देवचन्द्रे' जिनमत नो तत्त्व ए रे,
___ श्रुत सू धरज्यो प्यार ॥" देखिये 'तप-भावना का भावपूर्ण वर्णन
"जिण साहू तप तलवारथी, सूडयो छे हो अरि मोह गयंद । तिण साधु नो हूँ दास छु, नित्य वंदु रे तसपय अरविंद।" "धन्य तेह जे धन गृह तजी, तन स्नेह नो करी छेह ।
निसंग वनवासे वसे, तपधारी हो ते अभिग्रह गेह ॥"
महान् साधक भी आपत्ति के समय (सत्त्वहीनता के कारण) धैर्य खो देते हैं। अतः उनके लिये श्रीमद् ने 'सत्त्वभावना' की सज्झाय के रूप में महान् उद्बोधन दिया है। यदि उसका नित्य मनन किया जाय तो रग....रग में सात्त्विक साहस का अवश्य संचार होता है।
रे जीव ! साहस आदरो, मत थाओ दीन ।
सुख-दुख संपद आपदा पूरव कर्म अधीन ॥ स्वजन-परिजन, धन और शरीर के मोह में आत्मा का भान भूलनेवालों के लिये श्रीमद् ने बड़ा मार्मिक उपदेश दिया है
'पंथी जेम सराय मां, नदी नाव नी रीति । तिम ए परियण तो मिल्यो, तिण थी शी प्रीति ।।
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