SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ साठ ] चक्री हरि बल प्रतिहरी, तस विभव अमान । ते पण काले संहर्या, तुज धनेश्ये मान ।। तू अजरामर प्रातमा, अविचल गुण राण । क्षण-भगुर जड़ देहथी, तुज किहां पिछाण ॥ देह-गेह भाड़ा तणो, ए आपणो नाहि । तुज गृह प्रात्तम ज्ञान ए, तिरण माहे समाहि ।। बाह्य-संग-परिग्रह का त्याग कर देने पर भी "एगोऽहं नत्थि में कोई" -मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है।" इस भावना की वास्तविक परिणति हुए बिना आन्तरिक ममत्त्व दूर नहीं होता । 'एकत्त्वभावना' को सज्झाय में उसी ममत्त्व को दूर करने के लिये एक-एक गाथा के रूप में एक-एक इन्जेक्शन लगाया है। "प्राव्यो पण तू एकलो रे, जाइश पण तू एक । तो ए सर्व कुटुम्ब थी रे, प्रीत किसी अविवेक रे।। परसंयोगथी बध छ रे, पर वियोग थी मोख । तेणे तजी पर मेलावड़ो रे, एक पणो निज पोख रे ।। परिजन मरतो देखो ने रे, शोक करे जन मूढ़ । अवसर वारो आपणो रे, सहु जन नी ए रूढ़ रे । अपनी एकता का सच्चा भान हो जाने पर आत्मस्वरूप को निखारने के लिये शुद्ध आत्मतत्त्व का चिन्तन करना आवश्यक है। तत्त्वभावना की सज्झाय में आपने इसी बात पर जोर दिया है । इन भावनाओं का महात्म्य-श्रीमद् के शब्दों में "कर्म कतरणी शिव निसरणी, ध्यान ठाण अनुसरणी जी। चेतनराम तणी ए धरणी, भव-समुद्र दुःख हरणी जी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy