________________
द्वितीय वण्ड .....
६५
-
-
-
श्री सिद्धाचल ऋषभ जिन स्तवन
(ढाल--मोरा प्रातम राम कइसइ दरसरण पासु; ए देशो)
मोरा ऋषभ जिणंद कइयइ' दररूण पास्यु मो०।। सिद्धाचलनी पाजइ चढतां, मरु देवा सुत ध्यासु । घणा दिवस नो अंग उमाहो, ते पामी सुख भास्यु ॥मो०।।१।।
निरमल नीरइ प्रभुनइ अंगइ, कहीयइ न्हवण करास्यु । केशर चंदन मृगमद घसिन इ, तोरइ देहं लगास्यु ॥मो०॥२॥
पूज करीनइ प्रागलि बइसी, पांचे अंग नमास्यु । भाव धरीनइ मन नइ रंगइ, नाभिनंदन गुण गास्यु ॥मो०।।३।।
वार वार तुझ मुख निरखी, हीयडइ हरखति थास्यु । . तेरो ध्यान धरी अति सारो, सकल मिथ्यात विनास्यु मो०।।४।।
आठ करम नो अंत करीने, दुरगति दूर गमास्यु । 'चंद' कहइ इम मन नै रंगइ, तुझ ध्यानइ मन लास्य ।मो०।।५।।
--
१-कब २–पाल ३–जल -हर्षित ८-ध्यान से
४-करके
५-बैठकर
६-हृदय में
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org