________________
१०]
श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
मृग नयणी मुख निरखतां जी, जे लागो भन राग । न गयौ श्रुत जल धोवतां जी, कुण कारण महाभाग ।।१७।।ज.।। अंग १ चंग गुणनवि कला जी, नविवर प्रभुता रे काय । तो पणि माचु लोक में जी, मान विडंबित काय ।।१८।।ज.।। प्रति क्षण-क्षण आउखो घटेजी, न घटे पातक बुद्धि । योवन वय यातां वधै जी, विषयाभिलाष प्रवृद्धि ।।१६।।ज.।। प्रोषध तन रख वालवा जी, सेव्या आश्रव कोडि । पिण जिन धर्म न सेवीयो जी, ऐ ऐ मोह मरोड़ि ॥२०॥ज.।। जीव कर्म भव शिव नहीं जी, विट मुख वाणी रे पीध । तुझ केवल रवि जगम्यै जी, आप संभाल न कीध ।।२१।।ज.।। पात्र भक्ति जिन पूजना जी, नवि मुनि श्रावक धर्म । रत्न विलाप परै करयौ जी, मुझ माणस नौ जन्म ॥२२॥ज.।। जैन धर्म सुखकर छते जी, सेव्यु विषय विभाव । सुरमरिणः सुरधट3 ईहना जी, ऐ ऐ मूढ स्वभाव ।।२३।।ज.।। भोग लीलते रोग छै जी, धन ते निधन समान । दारा कारा नरक ना जी, नवि चारूए निदान ॥२४॥ज.॥ साधु आचार न पालीयो जी, न करयो पर उपगार। तीर्थ उद्धार न नीपनो जी, ते गयो जमारो हार ॥२५॥ज.।। दुर्जन वचन खमै नहीं जी, श्रुत योगे नवि राग। लेश अध्यातम नवि रम्यो जो, किम लहस्यु भाव ताग ॥२६।।ज.।। १- शारीरिक-स्वास्थ्य। २-चिन्तामणि । ३- कामघट। ४- चाहना।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org