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________________ [ पैंतालीस ] पाज में अत्यन्त लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध है। इसकी महत्ता को जानने के लिये निा कहना ही पर्याप्त होगा कि-स्वर्गीय योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर रि जी ने दीक्षा लेने से पहिले सौबार इस ग्रन्थ का अध्ययन किया था। ... प्राचीन प्रतियों के अनुसार प्रतिमा-पूजा, पुष्पपूजासिद्धि, गुणस्थानक रूप और पापस्थानकस्वरूप ये चार विषय आगमसार के ही अन्तर्गत हैं। तमापूजा और पुष्पपूजा को आगमों के पाठ देकर सिद्ध किया है । इस ग्रन्थ की रचना संवत १७७६ की फा०सु० ३ के दिन 'मरोट शहर' में थी। • नयचक्रसार: किसी वचन को समझने के लिये प्रथम यह जानना आवश्यक है कि 'वह स अपेक्षा से कहा गया है।' अपेक्षा को जानने के बाद ही हम उस कथन को ही रूप में समझ सकते हैं। यह कार्य नय का है। नयज्ञान के द्वारा षड्दर्शन के रस्पर विरोधी मन्तव्यों को भी अपेक्षाभेद से सत्य समझने की दृष्टि प्राप्त होती हैं। शिनिक भूमिका पर विरोधी विचारों के बीच समन्वय और समभाव रखते हुए त्य की सर्वोच्च भूमिका पर बुद्धि को पहुंचाने का कार्य नयों का है। अतः नयों ज्ञान अत्यावश्यक है। इस ग्रन्थ में श्रीमद् ने नयों के स्वरूप को यथाशक्य रलता से समझाने का प्रयत्न किया है। इस ग्रन्थ की रचना आपने श्रा लवादीकृत 'द्वादशसारनयचक्र' के आधार पर की है। जैसा कि 'नयचक्र सार' । उपसंहार में आपने स्वयं कहा है। "द्वादशसारनयचक्र' छे, मल्लवादीकृत वृद्ध, सप्तशती नयवाचना, कीधी तिहां प्रसिद्ध । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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